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कोरोनावायरस का इलाज ढूंढने की हड़बड़ी, हो सकती है खतरनाक

वैक्सीन के सेफ्टी ट्रायल की शुरुआत अमेरिकी सरकार की फंडिंग पर वाशिंगटन के सिएटल शहर से हुई.

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कोरोनावायरस से पूरी दुनिया में 11,000 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. हर रोज मौत का ये आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है. अमेरिका में कोविड-19 से निपटने के लिए वैक्सीन की ट्रायल शुरू हो चुकी है. इस खबर से उम्मीद की एक किरण तो जगी है, लेकिन कई सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढना बेहद जरूरी हो गया है.

दुनिया के कई जानकारों का मानना है कि वैक्सीन की टेस्टिंग में कई तरह की एहतियात बरतने की जरूरत होती है और इस प्रक्रिया में अचानक आई तेजी खतरनाक भी साबित हो सकती है.

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वैक्सीन की सेफ्टी ट्रायल की शुरुआत अमेरिकी सरकार की फंडिंग पर वाशिंगटन के सिएटल शहर से हुई, कई लोग टेस्टिंग के लिए खुद सामने आए, जल्द ही कोरोनावायरस के कई और वैक्सीन की सेफ्टी ट्रायल होने वाली है.

वैक्सीन की जांच में सुरक्षा का सवाल

लेकिन दो सवालों के जवाब अभी स्पष्ट नहीं हैं. पहला ये कि हमारा इम्यून सिस्टम इस वायरस का सामना कैसे कर रहा है, दूसरा कि वैक्सीन की मदद से कैसे सुरक्षित तरीके से इम्यून सिस्टम को मजबूत कर वायरस को मात दी जाए. ये सब जानने में वक्त लगता है. जानवरों या बीमार लोगों पर इसके असर की स्टडी की जाती है. लेकिन यहां दो तरह की राय सामने आ रही है. जहां कुछ एक्सपर्ट्स मानते हैं कि जानकारियों के इंतजार में सेफ्टी ट्रायल को रोका नहीं जाना चाहिए. दूसरे पक्ष की आशंका ये है कि ट्रायल नाकाम होने या इसका इंसान पर उल्टा असर होने पर क्या होगा.

क्या शरीर में इम्यूनिटी तैयार की जा सकती है?

वैक्सीन के सहारे इंसान में किसी भी बीमारी के संक्रमण से लड़ने की पहले से तैयारी कर ली जाती है. इसलिए ऐसा भी माना जा रहा है कि कोरोना जैसे दूसरे वायरस, जैसे कि SARS-CoV-2, की चपेट में आकर ठीक हो चुके लोग लंबे समय तक इस बीमारी का शिकार नहीं होंगे. लेकिन इसकी अभी वैज्ञानिक तौर पर पुष्टि नहीं हो सकी है.

चीन में दो Rhesus बंदरों, जो कि पहले SARS-CoV-2 के संक्रमण से उबर चुके थे, के शरीर में चार हफ्तों के भीतर दो बार कोरोनावायरस डाल कर देखा गया तो परिणाम सकारात्मक आए. लेकिन इंसान पर इसके असर के बारे में अभी तक कोई रिसर्च नहीं की गई है.

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इंसान में तैयार की गई इम्यूनिटी कितने दिनों तक बनी रहती है?

इस बारे में ठीक-ठीक कहना मुमकिन नहीं है. साधारण सर्दी खांसी के लिए ली जाने वाली वैक्सीन का असर बहुत लंबा नहीं होता. जिन लोगों के शरीर में ऐसे वायरस से लड़ने वाली एंटीबॉडी की तादाद ज्यादा होती है, वो भी बीमारी के शिकार हो जाते हैं.

लेकिन पिछले वर्षों में दुनिया के कई देशों को अपनी चपेट में लेने वाले SARS और MERS वायरस से जुड़ी रिसर्च में जो नतीजे सामने आए वो बिलकुल अलग थे. MERS वायरस से संक्रमण से उबरने वाले लोगों में वायरस से लड़ने वाली एंटबॉडी की तादाद अचानक से गिर जाती थी. वहीं SARS से जुड़ी स्टडी में पाया गया कि बीमारी से उबरने के 15 साल बाद भी लोगों के शरीर में एंटीबॉडी मौजूद थी. हालांकि ये स्पष्ट नहीं है कि दोबारा संक्रमण को रोकने और वायरस से निपटने में ये एंटीबॉडी कितने कारगर हैं. इसलिए शरीर में किसी वायरस से लड़ने की इम्यूनिटी कितने लंबे समय तक टिकती है, अभी इसका ठीक-ठीक दावा नहीं किया जा सकता.

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वैक्सीन बनाते समय किस तरह की इम्यूनिटी तैयार करने का लक्ष्य होता है?

कोरोनावायरस की जिस वैक्सीन की ट्रायल शुरू हुई है उसे अमेरिका के कैम्ब्रिज की एक कंपनी, मॉडर्न ने तैयार की है. जानकारों के मुताबिक कोरोनावायरस एक प्रोटीन के जरिए इंसान की कोशिकाओं में प्रवेश करता है. अमेरिका में बना वैक्सीन दरअसल एक RNA Molecule है जो इंसान के इम्यून सिस्टम को उस प्रोटीन को पहचानने और उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने के लिए तैयार करता है. अब पहले फेज की ट्रायल के बाद इसकी रिसर्च की जा रही है कि वैक्सीन का शरीर के इम्यून सिस्टम पर ठीक वैसा ही असर रहा या नहीं.

हालांकि परीक्षा यहीं खत्म नहीं होती. ये तो महज वायरस से निपटने की शुरुआती तैयारी होगी. कोई भी वैक्सीन तब पूरी तरह सफल माना जाता है जब उसकी मदद से शरीर में वायरस के मारक प्रोटीन को मात देने वाली एंटीबॉडी बननी शुरू हो जाए. यानी शरीर में वो T-Cells तैयार होने लगें जो संक्रमित कोशिकाओं की पहचान कर उन्हें खत्म कर दें.

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वैक्सीन कारगर होगा या नहीं इसका पता कैसे चलता है?

आम तौर पर पहले वैक्सीन की ट्रायल जानवरों पर होती है, इंसान पर प्रयोग से पहले ये तय कर लिया जाता है कि वैक्सीन पूरी तरह सुरक्षित और प्रभावी है. लेकिन मॉडर्ना वैक्सीन को एक साथ जानवर और इंसान दोनों पर इस्तेमाल किया जा रहा है. अमेरिका में पेनसिलवेनिया की इनोवियो फार्मा भी एक वैक्सीन तैयार कर रही है जिसकी ट्रायल अप्रैल में शुरू होगी. लेकिन जानकारों का कहना है ऐसा वक्त की कमी और आपातकाल जैसी स्थिति की वजह से किया जा रहा है.

जहां मॉडर्ना वैक्सीन में RNA Molecule है, इनोवियो वैक्सीन DNA Molecule से बना है, दोनों कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन को टारगेट करते हैं. चूहे और गिनी पिग पर इस वैक्सीन के इस्तेमाल में पाया गया कि जानवरों ने ना सिर्फ एंटीबॉडी बनाई बल्कि वायरस के खिलाफ T cells भी तैयार हुए. प्रयोग सफल होने के बाद इसे बंदरों पर भी इस्तेमाल किया जा रहा है. जिसके बाद इसे संक्रमित जानवरों पर भी इस्तेमाल किया जाएगा ताकि ये तय हो जाए कि वैक्सीन पूरी तरह सुरक्षित है या नहीं. मॉडर्ना वैक्सीन पर भी इस तरीके से काम किया जा रहा है.

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क्या वैक्सीन का इस्तेमाल सेफ होगा?

फिलहाल वैक्सीन का इस्तेमाल स्वस्थ लोगों पर किया जा रहा है. वैक्सीन पर रिसर्च करने वालों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है बीमारी को बढ़ने से रोकना. संक्रमित व्यक्तियों में उस हालात को रोकना जिसमें वैक्सीन देने के बाद उनकी बीमारी उल्टा बढ़ जाती है. 2004 में SARS वैक्सीन के प्रयोग के दौरान एक बार ऐसा ही हुआ. तब वायरस से संक्रमित लोगों में वैक्सीन डालते ही उनके लीवर पर बुरा असर पड़ने लगा था.

यही वजह है कि इंसान पर वैक्सीन के इस्तेमाल से पहले जानवरों पर इसका प्रयोग कर ये सुनिश्चित कर लिया जाता है कि वैक्सीन की वजह से कहीं संक्रमित लोगों में बीमारी उल्टा बढ़ तो नहीं रही है. इसलिए जानकारों के मुताबिक वक्त की पाबंदी की तमाम बाधाओं के बावजूद कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों पर मॉडर्ना वैक्सीन के इस्तेमाल से पहले इसकी सेफ्टी तय कर ली जाएगी. उम्मीद है अगली सर्दी से पहले कोरोनावायरस से लड़ने वाला वैक्सीन इंसान के इस्तेमाल के लिए तैयार होगा.

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