सियोल में हैलोवीन के जश्न के दौरान मची भगदड़ (Seoul Stampede) में अब तक 151 लोगों की मौत हो चुकी है. वहीं 160 से ज्यादा लोग घायल हैं.
दरअसल आएटवॉन डिस्ट्रिक्ट में यह कोरोना के बाद पहला आम कार्यक्रम था, जिसमें मॉस्क या कोरोना के दूसरे नियम लागू नहीं थे. ऐसे में वहां करीब एक लाख की भीड़ इकट्ठी हो गई. शाम से ही कुछ लोग सोशल मीडिया पर बड़ी भीड़ को लेकर आशंकाएं जताने लगे थे.
यह भीड़ प्रबंधन को लेकर दुनिया के तमाम देशों के लिए नजीर बन सकता है. लेकिन भारत में स्थिति अलग है. यहां हर साल भगदड़ के छोटे-बड़े हादसे होते हैं. यह सही है कि हमारे यहां धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रमों वाली जगहों पर बड़ी भीड़ आसानी से जल्दी इकट्ठा हो जाती है और ज्यादातर जगह स्थानीय स्तर पर प्रबंधन के तमाम उपाय भी करने की कोशिश की जाती है.
लेकिन ऐसा लगता है कि यह उपाय भी कई बार नाकाफी साबित होते हैं. बीते सालों के हादसों के बाद तो कम से कम ऐसा ही लगता है. आखिर भीड़ प्रबंधन कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि एक बार कर लिया, तो काम हो गया!
साल दर साल होते रहे बड़े हादसे
आजाद भारत में सबसे बड़ी भगदड़ सतारा जिले मंधर देवी मंदिर के पास लगे मेले में 26 जनवरी 2005 को मची थी. इसमें 350 लोगों की जान गई थी. अगले साल ही हिमाचल प्रदेश के मशहूर नैना देवी मंदिर में भगदड़ मच गई, जिसमें 150 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और 400 लोग घायल हो गए. इसके अलावा-
2008 में जोधपुर में नवरात्र के दौरान, चामुंडा देवी मंदिर में मची भगदड़ में 120 लोगों की मौत हो गई, जबकि 200 से ज्यादा घायल हुए.
4 मार्च 2010 को प्रतापगढ़ के राम जानकी मंदिर में मची भगदड़ में 63 लोगों की मौत हो गई. यह भगदड़ तब हुई, जब लोग एक बाबा से मुफ्त के कपड़े और खाने लेने के लिए इकट्ठा हुए थे.
14 जनवरी, 2011 को केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला श्राइन में भगदड़ मच गई, जिसमें 106 लोगों की मौत हो गई, जबकि 100 से ज्यादा घायल हो गए.
8 नवंबर, 2011- हरिद्वार की हर की पौड़ी में मची भगदड़ में 22 लोगों की मौत हुई.
19 नवंबर, 2012- पटना में छठ त्योहार के दौरान, गंगा किनारे चल रहे कार्यक्रमों में भगदड़ मच गई, जिसमें 20 लोगों की मौत हो गई.
20 फरवरी, 2013- कुंभ मेले के दौरान, इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में 36 लोगों की मौत हो गई.
13 अक्टूबर 2013- मध्य प्रदेश के दतिया के रतनगढ़ हिंदू मंदिर में भगदड़ मची. इस भयानक घटना में 89 लोगों की मौत हो गई, जबकि 100 से ज्यादा घायल हो गए.
18 जनवरी, 2014- मुंबई के मालाबार हिल में दाऊदी बोहरा धार्मिक नेता सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन के घर के बाहर मची भगदड़ में 18 लोगों की मौत हो गई थी.
14 जुलाई, 2015- आंध्र प्रदेश के राजमुंद्री में गोदावरी पुश्करालू के दौरान भगदड़ मच गई. जिसमें 22 श्रद्धालुओं की मौत हो गई, जबकि 20 घायल हो गए.
यह तो हैं बड़े हादसे, जिनमें कई लोगों को जान गंवानी पड़ी, कई लोग अपंग हो गए. इसके अलावा भी तमाम छोटे हादसे होते रहे हैं. इसी साल नए साल के मौके पर वैष्णो देवी में भारी संख्या में श्रद्धालुओं के आने के चलते भगदड़ मच गई. 1 जनवरी को मची इस भगदड़ में कम से कम 12 लोगों की मौत हो गई, जबकि एक दर्जन से ज्यादा घायल हो गए.
तो सवाल उठता है-
जब नैना देवी, वैष्णो देवी, सबरीमाला, कुंभ मेला या हर की पौढ़ी, यह सारी जगहें प्रसिद्ध हैं, भारी संख्या में श्रद्धालुओं के आने का तमाम अंदाजा यहां प्रशासन को होता है, निश्चित ही इसके लिए काफी तैयारियां भी की ही जाती होंगी, तो भी यहां इतने बड़े-बड़े हादसे क्यों हुए?
सियोल में तो हैलोवीन पर आमतौर पर भीड़ इकट्ठा होने का इतिहास नहीं रहा है, लेकिन गोदावरी पुश्कारुलु हो या पटना के घाटों पर छठ का त्योहार, यह सारे ऐसे कार्यक्रम हैं, जहां हर साल एक निश्चित समय में हजारों-लाखों की संख्या में लोग इकट्ठे होते ही हैं, तब क्यों हमारे इंतजाम नाकाफी साबित होते हैं?
क्या पिछले हादसों से मिली सीखों को हम बेहतर भीड़ प्रबंधन के लिए उपयोग करते हैं,? अगर करते भी हैं और हादसे होते हैं, तो यह अनुभव का लाभ उठाने की हमारी कमी को नहीं दर्शाता?
आज सियोल हादसे के दौरान जरूरी है कि हम, हमारे ऊपर बीते इन हादसों और इनकी सीखों को याद रखें, ताकि आगे कई जिंदगियों को उजड़ने की आशंका को कम से कम किया जा सके.
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