जिग्नेश मेवाणी (Jignesh Mevani) की गलत गिरफ्तारी पर बहुत कुछ कहा जा सकता है- जैसे यह सरकार के आलोचकों को सजा देने की कोशिश है. प्रधानमंत्री मोदी को एक ऐसा सम्राट बनाया जा रहा है जिनकी आलोचना नहीं की जा सकती है. भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में डराने के लिए पुलिस इरादतन ऐसी गिरफ्तारियां कर रही हैं.
ये सब बातें सही हो सकती हैं लेकिन इन सबसे मेवाणी जिस परिस्थति में हैं उनसे वो बाहर नहीं निकल सकते. कांग्रेस पार्टी कह रही है कि मेवाणी की रिहाई के लिए वो कोर्ट जाएगी, गुवाहाटी हाईकोर्ट में अपील करेगी लेकिन फिलहाल फोकस उन कानूनी उपायों पर करने की है जिससे गुजरात के इस निर्दलीय विधायक मेवाणी को कुछ फौरी राहत मिले.
वो कानूनी उपाय- चाहे FIR यानि प्रथम सूचना रिपोर्ट को खत्म करने का हो या जमानत की. हमें सबसे पहले ये पड़ताल करनी है कि मेवाणी को कोकराझार में गिरफ्तारी और फिर मजिस्ट्रेट से पुलिस को तीन दिन की रिमांड देने में क्या कानूनी गलतियां हुई हैं.
सौभाग्य से मेवाणी के पक्ष में बहुत सी चीजें हैं. कोई भी समझदार जज इसे समझेगा और मेवाणी को जमानत पर जल्द से जल्द रिहा करेगा और यहां तक इस आधार पर उनके खिलाफ दर्ज FIR को भी रद्द किया जा सकता है.
मेवाणी की गिरफ्तारी में क्या गलत नहीं?
पहले एक स्पष्टीकरण कि वडगाम के विधायक की गिरफ्तारी में क्या चीज गलत नहीं है. विधायक के कुछ समर्थकों और सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने कहा कि निर्वाचित विधायक मेवाणी को तब ही गिरफ्तार किया जा सकता है जब गुजरात विधानसभा अध्यक्ष से पहले इसकी इजाजत ली जाए. पर ये सच नहीं है.
हां ये जरूर है कि विधायक हो या सांसद उनको कई विशेषाधिकार हासिल हैं . विधानसभा या सदन की कार्यवाही के दौरान सिविल मामले में उनकी गिरफ्तारी नहीं हो सकती. या फिर जब किसी कमिटी का हिस्सा हों और कमेटी की मीटिंग होने वाली हो या हो रही है तो उसके 40 दिन के पहले और बाद में उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकते. लेकिन आपराधिक मामलों में इस तरह की सुरक्षा उन्हें हासिल नहीं है. संसदीय विशेषाधिकार मैन्युअल में इसे अच्छी तरह से बताया गया है.
स्पीकर या चेयर पर्सन से गिरफ्तारी के लिए इजाजत की जरूरत तब पड़ती है जब विधायक या सांसद को सदन के परिसर से गिरफ्तार किया जाता है.
लेकिन अगर किसी विधायक या सांसद को विधानसभा या संसद परिसर से बाहर गिरफ्तार किया जाता है तो फिर जिस कोर्ट में उनकी पेशी होती है, वो इसकी सूचना स्पीकर या चेयर पर्सन को देते हैं. इसमें गिरफ्तारी से जुड़ा पूरा ब्यौरा मसलन गिरफ्तारी कब और कैसे और कहां पर और क्यों किया गया देना होता है , फिलहाल उन्हें कहां रखा गया है, इसकी भी जानकारी बताना जरूरी है.
सुप्रीम कोर्ट और आपराधिक प्रक्रिया की गाइडलाइन का हनन
अब जो सच में कानूनी गड़बड़ियां की गई है उसकी बात करते हैं. FIR यानि प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर किए जाने की जरूरत के बारे में बात करने से पहले हमें ये देखने की जरूरत है कि क्या असम पुलिस के कोकराझार पुलिस स्टेशन ने इस पूरी कार्रवाई में गलतियां की है.
इस तरह की कार्रवाई में बहुत सीधी सी आपत्ति किसी को भी हो सकती है कि वो ये है कि असम पुलिस ने कोड ऑफ मॉडल कंडक्ट का पालन नहीं किया है, जो सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में अरुणेश कुमार फैसला के तहत तय किया था.
मूल रूप से, जहां किसी व्यक्ति पर ऐसे अपराधों का आरोप लगाया गया है जहां अधिकतम सजा सात साल की कैद या उससे कम है, पुलिस को पहले सीआरपीसी की धारा 41 ए के तहत प्रक्रिया का पालन करना चाहिए. मतलब उन्हें नोटिस भेजकर सवालों का जवाब देने और जांच में सहयोग करने के लिए कहना चाहिए.
सीआरपीसी की धारा 41 के अनुसार पुलिस को ऐसे व्यक्ति को तभी गिरफ्तार करना चाहिए जब यह आवश्यक हो:
किसी और अपराध को करने से रोकने के लिए
अपराध की पूरी तरह से जांच करने के लिए
सबूतों से छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए
गवाहों को डराने धमकाने से रोकने के लिए
कहीं फरार होने से रोकने के लिए
मेवाणी के मामले में उनके खिलाफ प्राथमिकी में सबसे गंभीर अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए और 295ए हैं. इन अपराधों के लिए अधिकतम सजा तीन साल की कैद है (धारा 295ए में पांच साल तक की जेल की सजा है), यानी सात साल से कम.
यहां यह भी स्पष्ट है कि धारा 41 की कोई भी पूर्व शर्त यहां लागू नहीं होती है. मेवाणी निर्वाचित विधायक हैं, इसलिए उनके फरार होने की आशंका कम है. अपराध उनकी एक ट्वीट से संबंधित है, इसलिए गवाहों को धमकाने/डराने का कोई सवाल ही नहीं है. चूंकि ट्वीट्स को एडिट नहीं किया जा सकता है, इसलिए गवाहों के साथ छेड़छाड़ का भी सवाल नहीं है.
इसलिए असम के कोकराझार में पुलिस को मेवाणी को बुधवार रात नाटकीय रूप से गिरफ्तार करने से पहले धारा 41 ए के तहत नोटिस भेजना चाहिए था.
इस प्रक्रिया का पालन नहीं करने का संज्ञान उन मजिस्ट्रेट को लेना चाहिए था जिनके सामने कोकराझार में मेवाणी को पेश किया गया. पर मजिस्ट्रेट ने भी वैसा नहीं किया बल्कि उन्होंने विधायक को तीन दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया. अरुणेश कुमार फैसला में सुप्रीम कोर्ट के जज ने साफ लिखा है ‘अगर पुलिस की कार्रवाई कानूनी धारा 41 के हिसाब से नहीं है तो फिर मजिस्ट्रेट का ये कर्तव्य है कि वो हिरासत को सही नहीं माने और आरोपी को रिहा करे.
इससे मेवाणी को जमानत दिए जाने के लिए स्पष्ट आधार मिलता है. चाहे सुनवाई सत्र अदालत में हो या हाईकोर्ट में.
FIR में अपराध को कैसे सही ठहराया जा सकता है?
19 अप्रैल को मेवाणी के खिलाफ एक स्थानीय बीजेपी कार्यकर्ता अरुण कुमार डे ने FIR दर्ज कराई थी. इसमें IPC की नीचे लिखित धाराओं का जिक्र किया गया है:
धारा 153A (अलग–अलग समुदायों में नफरत भड़काने)
धारा 295A (धार्मिक भावनाओं को अपमान)
धारा 504 (शांति भंग करने के लिए इरादतन अपमान)
धारा 505 (सार्वजानिक उत्पात मचाने वाले बयान ).
अपनी शिकायत में डे ने 18 अप्रैल वाली मेवाणी के ट्टवीट का जिक्र भी किया जिसमें मेवाणी ने लिखा था,
“गोडसे को अपना आराध्य मानने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 तारीख से गुजरात दौरे पर हैं, उनसे अपील है कि गुजरात में हिम्मतनगर, खंभात, वेरावल में जो कौमी हादसे हुए हैं उसके खिलाफ शांति और अमन की अपील करें. महात्मा मंदिर के निर्माता से इतनी उम्मीद तो बनती है."
डे की शिकायत के मुताबिक ट्वीट
"व्यापक आलोचना का कारण बना है और लोगों के एक वर्ग में सद्भाव बनाए रखने के खिलाफ, सार्वजनिक शांति भंग करने वाला है. यह एक निश्चित समुदाय से संबंधित जनता के एक वर्ग को दूसरे समुदाय के खिलाफ किसी अपराध के लिए उकसाने वाला है. इससे देश के इस हिस्से में रहने वाले विभिन्न समुदायों का सामाजिक ताना-बाना टूट सकता है. यह ट्वीट किसी विशेष समुदाय के प्रति असंतोष पैदा कर सकता है और विभिन्न समुदायों के प्रति शत्रुता या घृणा को बढ़ावा देता है. यह आम जनता की शांति और सद्भाव के लिए हानिकारक है. ऐसी आशंका है कि कुछ लोग ऐसे संवेदनशील मुद्दों का फायदा उठाकर एकता, शांति और भाईचारे को भंग करने की कोशिश कर रहे हैं.
NDTV के साथ इंटरव्यू में डे ने बताया कि उनकी शिकायत आखिर क्या है. उन्होंने कहा कि बीजेपी के सदस्य प्रधानमंत्री मोदी के बारे में कोई नकारात्मक टिप्पणी बर्दाश्त नहीं कर सकते. ये शिकायत ऐसे किसी भी विधायक या सासंदों को एक चेतावनी देने के लिए हैं कि इसका अंजाम क्या हो सकता है.
बड़ी बात ये है कि शिकायत के 'वास्तविक' कारण को समझने के लिए पुलिस ने अपने दिमाग का इस्तेमाल भी नहीं किया.
मेवाणी का ट्वीट किसी भी तरह से किसी भी समुदाय को किसी के खिलाफ भड़काता नहीं है. इसमें सिर्फ इस बात का जिक्र है कि गुजरात के हिम्मतनगर, खंभात, और वेरावल में जो सांप्रदायिक हिंसा हुए हैं उसके लिए अमन चैन की अपील प्रधानमंत्री मोदी करें.
अब सांप्रदायिक घटनाओं पर प्रधानमंत्री से शांति के अपील के लिए पूछना कैसे दो समुदायों में नफरत फैलाने वाला हो गया? ये बिल्कुल समझ में नहीं आने वाली बात है. कोई भी समझदार आदमी इसे समझ जाएगा कि यहां धारा 153A, 504 और 505 जो कि शांति भंग करने के मामलों में लगाया जाता है, का औचित्य नहीं है.
क्षेत्र में कोई हिंसा या अशांति भी नहीं हुई है, जिसका मतलब है कि ट्वीट से लोग भड़के भी नहीं. चूंकि यहां विचाराधीन अपराध का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर पाबंदी से जुड़ा है. इसलिए संविधान के आर्टिकल 19 (2) में पब्लिक ऑर्डर को बनाए रखने के लिए जिन पाबंदियों को लगाने की संवैधानिक व्यवस्था है उसपर नजर डालना चाहिए.
पब्लिक ऑर्डर बिगड़ने के मामले में संविधान में साफ साफ बातें बताई गई हैं और इस ट्वीट में ऐसा कुछ नहीं है जिस आधार पर ये सोचा जाए कि इससे उस शांति में खलल पड़ती है.
हालांकि इन प्रावधानों में अशांति पैदा करने की प्रवृत्ति के साथ भाषण को भी शामिल किया गया है, ट्वीट में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हिंसा को उकसाता है या किसी एक समुदाय के बारे में अफवाहें फैलाता हो, इसलिए यहां इस पहलू के लागू होने का सवाल ही नहीं है.
अब आईपीसी की धारा 295 ए को देखें तो ये, किसी धर्म या धार्मिक विश्वासों के खिलाफ "जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण" अपमान से संबंधित है.
समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक, पुलिस सूत्रों ने उन्हें बताया कि मेवाणी का "प्राथमिक अपराध" यह है, कि उसने "धार्मिक भावनाओं का अपमान किया, अपने ट्वीट्स के माध्यम से जिसमें उन्होंने नाथूराम गोडसे की तुलना देवता (भगवान) से की".
नोट: द क्विंट ने इस बयान की पुष्टि करने के लिए कोकराझार पुलिस स्टेशन के पुलिस अधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन असम पुलिस द्वारा दिए गए फोन नंबरों पर भी उनसे संपर्क नहीं हो पाया.
यह शिकायत में हिंसा भड़काने के दावों से भी अधिक विचित्र है, क्योंकि मेवाणी ने नाथूराम गोडसे की तुलना भगवान से नहीं की है, बल्कि प्रधानमंत्री की विचारधारा के बारे में राजनीतिक टिप्पणी की है.
अगर ये भी दलील दी जाए कि यह नरेंद्र मोदी की विचारधारा के बारे में एक भ्रामक बयान है तब भी यह आईपीसी की धारा 295 ए के तहत अपराध का आधार नहीं होगा. क्योंकि इसमें किसी भी समुदाय या धर्म के लोगों की धार्मिक मान्यताओं के अपमान की बात नहीं है.
आपराधिक कानून का दुरुपयोग?
यह बिल्कुल साफ लगता है कि बीजेपी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को परेशान करने के लिए आपराधिक कानून का दुरुपयोग किया गया है. और प्राथमिकी FIR का आधार नहीं होने के कारण इसकी पूरी संभावना है कि गुवाहाटी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द कर दे.
जैसा अर्णब गोस्वामी मामले में सबको याद होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था-
“ये सभी अदालतों यहां तक कि जिला अदालतों , हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का कर्तव्य है कि –वो सुनिश्चित करें कि आपराधिक कानून नागरिकों को परेशान करने का हथियार नहीं बनें."
हालांकि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऊंची अदालतें भी शुरू में ही FIR को रद्द करने के बारे में नहीं कह सकती भले ही ये पूरी तरह निराधार हो- और पुलिस को जांच करने के लिए कुछ टाइम दे दे.
हालांकि मामले को अभी खारिज किए जाने की संभावना भी है, जैसा कि विनोद दुआ के मामले में देखा गया था. उदाहरण के लिए, अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आरोपी को अंतरिम आधार पर रिहा किया जाए, जब तक कि याचिका पर अंतिम रूप से फैसला नहीं हो जाता.
जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अर्नब गोस्वामी फैसले में कहा है कि, यह हाईकोर्ट का कर्तव्य है कि वो अंतरिम चरण में भी सुनिश्चित करे कि अभियुक्त को रिहा किया जाए यदि मामले में पहली नजर में कोई अपराध नहीं दिखता, जैसा कि इस मामले में है.
असम पुलिस को शायद यह भी देखना चाहिए था कि त्रिपुरा में अक्टूबर 2021 में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बारे में ट्वीट करने वाले पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ FIR दर्ज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने किस तरह से त्रिपुरा पुलिस को फटकार लगाई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों में त्रिपुरा पुलिस की किसी भी कार्रवाई या जांच पर रोक लगा दी थी और त्रिपुरा सरकार से कहा था कि वो सोशल मीडिया पोस्ट के लिए "इस तरह लोगों को परेशान करना बंद करे". सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि इन मामलों में कुछ आरोपियों को धारा 41ए में नोटिस नहीं भेजना चाहिए था, गिरफ्तारी तो बहुत दूर की बात है.
इन सब बातों को ध्यान से देखने पर साफ है कि असम पुलिस ने बिना कुछ सोचे समझे मेवाणी के खिलाफ FIR दर्ज की है. अब इस FIR के रद्द होने की संभावना है क्योंकि इसमें अपराधिक मामले बनते ही नहीं हैं. मेवाणी ना सिर्फ जमानत लेने में कामयाब होंगे बल्कि जरूरी होने पर रिहाई सुनिश्चित करते हुए आगे की कार्रवाई पर रोक लगाने के लिए गुवाहाटी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम आदेश भी हासिल कर सकते हैं.
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