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चुनाव से नहीं साहब, चुनाव बाद गठबंधन से डर लगता है

आखिर ऐसे दलबदलू नेताओं पर लगाम कसने वाला दलबदल विरोधी कानून क्या है, कितना सख्त है और उसके अपवाद क्या हैं? 

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भारत
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वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता

कैमरा पर्सन: मुकुल भंडारी

आप चाहे बीजेपी को सपोर्ट कर रहे हों, कांग्रेस को या एनसीपी को या किसी भी और पार्टी को, लेकिन क्या एक वोटर के तौर पर आप ये चाहेंगे कि आपने जिस कैंडिडेट को उसकी पार्टी देखकर, उसके नेता को देखकर वोट किया है. वो चुनाव जीतने के बाद पाला बदल ले?महाराष्ट्र में दल बदल के बवंडर के बीच क्या ये वोटर का अधिकार नहीं है कि वो ऐसे नेताओं को उनकी सही जगह दिखा सके? ऐसे में हम आज समझते हैं कि आखिर ऐसे दलबदलू नेताओं पर लगाम कसने वाला दलबदल विरोधी कानून क्या है, कितना सख्त है और उसके अपवाद क्या हैं.

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'आया राम-गया राम'

हाल के सालों में हमें दल बदल का कुचक्र कर्नाटक, गोवा, आंध्र प्रदेश, मणिपुर जैसे राज्यों में देखने को मिल चुका है. ये तो हाल के सालों की बात हुई लेकिन दलबदल की कहानी दशकों से चल रही है. पहले एक जुमला आया था 'आया राम गया राम'. ये जुमलाहरियाणा के विधायक गया लाल से आया, जिन्होंने साल 1967 में एक ही दिन में तीन बार अपनी पार्टी बदल दी. दलबदल की समस्या की पड़ताल के लिए बाद में वाई बी चह्वाण पैनल बना था. इस पैनल की रिपोर्ट के बाद 1973 में उमाशंकर दीक्षित (इंदिरा सरकार) और फिर 1978 में शांति भूषण (मोरारजी देसाई सरकार) की अगुवाई में इस समस्या को खत्म करने के कदम उठाए गए. लेकिन दोनों कोशिश नाकाम रहीं.

1985 में राजीव गांधी सरकार लाई बिल

आखिरकार साल 1985 में राजीव गांधी सरकार दलबदल पर रोक लगाने के लिए एक बिल लाई. संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसमें दलबदल विरोधी कानून शामिल है, को इस संशोधन के जरिये संविधान में जोड़ा गया. इन संशोधनों की संसद में आलोचना हुई. कहा गया कि इससे विधायक और सांसदों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कम हो जाएगी. साथ ही इससे स्पीकर के पद पर भी असर पड़ेगा. लेकिन आखिरकार राजीव गांधी के कार्यकाल में यह बिल पास हो गया.

दलबदल विरोधी कानून में आखिरी संशोधन 2003 में किया गया.अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इसकी समीक्षा के लिए एक बिल पारित किया. कमेटी बनाई गई और इसके चीफ प्रणब मुखर्जी बनाए गए. इसमें कुछ प्रावधानों खत्म कर दिया गया.

अब विधायक या सांसद कैसे अयोग्य ठहराए जाते हैं जरा ये जानते हैं?

अगर कोई विधायक या सांसद खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है. तो उसकी सदस्यता चली जाती है.

अगर विधायकों या सांसदों ने पार्टी के व्हिप के खिलाफ वोट किया या वोटिंग के दौरान सदन में मौजूद नहीं रहा है तो भी अयोग्य हो जाता है... लेकिन अगर वो सांसद या विधायक 15 दिन पहले अपनी गैर मौजूदगी का कारण पार्टी को बता देता है और पार्टी अगर उससे सहमत होती है तो वो अयोग्य नहीं ठहराया जाता है....

अपवाद क्या है?

ये कानून किसी पार्टी को किसी दूसरी पार्टी में विलय करने की अनुमति देता है बशर्ते उसके कम से कम दो-तिहाई विधायक विलय के लिए तैयार हों... ऐसी स्थिति में, न तो विलय का फैसला करने वाले सदस्य अयोग्य होते हैं, और न ही वो सदस्य जो मूल पार्टी के साथ रहने का फैसला करते हैं.

बता दें, दलबदल को लेकर आखिरी फैसला सदन के अध्यक्ष का ही होता है, लेकिन इस फैसले की कानूनी समीक्षा हो सकती है.

क्या दलबदल रुक गया?

ये तो हो गई नियम कानून की बात, अब जो सवाल है वो ये है कि इस कानून के लागू होने के बाद भी क्या स्थिति बदल गई है, दलबदल रुक गया है? अगर नहीं तो क्या इस कानून की समीक्षा की जरूरत नहीं है?जरा शिवसेना को देखिए. वो कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ी. अब कांग्रेस के साथ सरकार बनाने को तैयार है. अजित पवार बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़े. अब उसकी सरकार में डिप्टी सीएम बनने को तैयार हैं. चुनाव बाद पाला बदलने वालों के खिलाफ क्या वोटर के पास कोई हथियार नहीं होना चाहिए?

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