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लालू यादव का जेल से बाहर आना बदल सकता है बिहार की राजनीति

लालू का बाहर आना पार्टी के अंदर-बाहर दोनों जगह असर डालेगा

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झारखंड हाईकोर्ट से RJD अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को बेल मिलने के बाद पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं और विपक्ष के लोगों में अचानक से ही खुशी की एक लहर दौड़ गयी है. स्थिति यह है कि पार्टी को यह घोषणा करनी पड़ी कि कार्यकर्ता किसी भी तरह के सेलिब्रेशन से दूर रहें और कोरोना काल में घर पर ही रहें. तो क्या लालू वाकई आज भी उतने ताकतवर और प्रासंगिक हैं? क्या उनके जेल से बाहर आने के बाद वाकई राजनीतिक समीकरण तेजी से बदलेंगे?

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कई राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि लालू आज भी राजनीतिक रूप से उतने ताकतवर हैं जितना पहले थे. हां, यह जरूर है कि हाल के दिनों में उनका स्वास्थ्य काफी कमजोर हुआ है और जमानत की शर्तों के अनुरूप वो प्रत्यक्ष रूप से उतने सक्रिय नहीं रह पाएंगे. वैसे परदे के पीछे उनकी सक्रियता जरूर रहेगी जो RJD के लिए कुछ कम नहीं है.

राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं-“लालू आज भी ‘मास लीडर’ हैं. उनके बाहर आने से न केवल पार्टी में जान आएगी बल्कि विपक्षी एकता भी मजबूत होगी. बहुत संभव है कि राज्य और देश की राजनीती में जान आ जाए.” उनके अनुसार लालू न केवल यादवों बल्कि गरीबों के नेता भी हैं, और उनके आने से एक नया पॉलिटिकल कॉम्बिनेशन जन्म ले सकता है’’

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आज भी लालू की पक्की पकड़

जनता पर उनकी पकड़ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लालू के जेल में रहने के वावजूद RJD 75 सीटें जीत गया. दिवाकर कहते हैं, "यह कोई मामूली बात नहीं हैं कि जिस पार्टी के अध्यक्ष जेल में बंद हों वो पार्टी सीटों के मामले में सत्तारूढ़ JDU से भी आगे निकल जाए".

गहन प्रचार और बीजेपी के साथ गठबंधन होने के वाबजूद मुख्यमंत्री नितीश कुमार के नेतृत्व वाली JDU कुल 43 सीटें ही जीत पायी. यह अलग बात है कि बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री JDU का ही है. लेकिन राजनीति में ऐसे दाव-पेंच चलते रहते हैं.

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दूसरे पॉलिटिकल एक्सपर्ट सत्यनारायण मदन का मानना है कि लालू के जेल से बाहर आने से एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा और पहले की तुलना में उन्हें दलितों-पिछड़ों कि सहानुभूति भी ज्यादा मिलेगी जबकि कोरोना महामारी ने पिछले एक साल में उनकी जिन्दगी को काफी तबाह किया है.

RJD के अंदर और बाहर दोनों जगह असर पड़ेगा

मदन कहते हैं, "उनके (लालू) निकलने भर से ही देश के भीतर एक 'साइकोलॉजिकल मैसेज' जाएगा. पार्टी पर भी असर पड़ेगा और पार्टी के बाहर भी". उनका कहना है कि लालू यादव के घर पर होने से न केवल विपक्षी एकता को धार मिलेगी बल्कि सारी समस्यायों को सुलझाने के लिए वो अब खुद मौजूद रहेंगे बशर्ते कि उन्हें फिर से जेल न जाना पड़े.

2015 के विधानसभा चुनाव के बाद फिर से सत्ता में लौटने पर लालू ने देश में बिखरी विपक्षी एकता को मजबूत करने के लिए अगस्त 2017 में पटना के गाँधी मैदान में "बीजेपी भगाओ, देश बचाओ रैली" की थी जिसमे उन्होंने देश की सारी विपक्षी पार्टियों को बुलाया था. यह रैली काफी सफल रही थी क्योकि बीते दो दशक में यह पहली बार था कि गांधी मैदान लोगों से लगभर भर गया था. इसके पहले ऐसी भीड़ 90 के दशक में आयोजित "गरीब रैला" में जुटी थी जो उसी जगह पर आयोजित की गयी थी.

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लालू ने हमेशा धारा के विपरीत राजनीति की है और उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर कभी समझौता नहीं किया जिसका खामियाज़ा उन्हें कई बार उठाना पड़ा. जहां उनके साथी नीतीश कुमार समय के साथ पाला बदलते रहे, लालू अपनी विचारधारा पर मजबूती से अड़े रहें. यह चीज लालू को देश के अन्य नेताओं से अलग करती है.

विश्लेषकों के अनुसार लालू के नहीं रहने से उनकी पार्टी को कई नुकसान भी उठाने पड़े. जैसे पार्टी के भीतर जारी विवाद को खत्म करनेवाला कोई योग्य नेता नहीं था. कम्युनिकेशन गैप और स्थिति को ठीक से हैंडल नहीं कर पाने के कारण कई सहयोगी 2020 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले महागठबंधन छोड़कर चले गए, जैसे पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा और मछुआरों के नेता मुकेश साहनी. वो यहां रहते तो संभव था ये नेता महागठबंधन छोड़कर नहीं जाते.

और, आखिर में उनके परिवार को लालू की बेल के लिए कोर्ट का चक्कर काटना पड़ा जिससे समय का काफी नुकसान हुआ और परिवार के लोग पार्टी की मजबूती पर भरपूर समय नहीं दे पाए.

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मुश्किल हालात में उभरे लालू

लालू की एक और खासियत है. वो हमेशा विपरीत परिस्थितियों में उभर कर सामने आये हैं. एक समय ऐसा था कि सारे विपक्ष के नेता एक साथ इकट्ठा होने के बावजूद लालू की सत्ता को नहीं हिला पाए और उनकी पार्टी पूरे 15 सालों तक सत्ता में रहीं. ये नेता थे राम विलास पासवान, शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडेस, नीतीश कुमार और पूरी बीजेपी.

एक बार फिर लालू ने 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में वापसी की. वैसे तो यह कहा जाता है कि RJD को नीतीश के साथ गठबंधन का फायदा मिला लेकिन चुनाव में दोनों पार्टियों की जीती गयी सीटें कुछ और ही कहानी बयां करती है. 2015 के चुनाव में RJD ने जहां 80 सीटें जीतीं, वही JDU मात्र 71 सीटें ही जीत पाई

2020 के विधानसभा चुनाव में भी RJD ने यही करिश्मा दोहराया. लालू के जेल में रहने के वाबजूद RJD 75 सीटें जीत पाया और विधानसभा में सबसे ज्यादा सीटें जीतने का दर्जा प्राप्त किया. वही, बीजेपी 74 और JDU 43 सीटें ही जीत पाई. वह भी तब जब बीजेपी के बड़े-बड़े महारथियों जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार में उतरना पड़ा.

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