पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने एक्टिविस्ट नवदीप कौर की गिरफ्तारी के मामले को संज्ञान में लिया था लेकिन 24 फरवरी बुधवार को अदालत को इस मामले को स्थगित करना पड़ा. चूंकि हरियाणा पुलिस इस मामले में नवदीप की मेडिकल रिपोर्ट अदालत में पेश नहीं कर पाई. लेकिन अब 26 फरवरी को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने नवदीप कौर को जमानत दे दी है और वो जमानत पर रिहा हो गईं हैं.
कुंडली में अपने साथी मजदूरों के अधिकारों के लिए प्रदर्शन करने वाली नवदीप के खिलाफ हरियाणा पुलिस ने तीन मामले दायर किए और उसे गैर कानूनी तरीके से हिरासत में लिया.
इस दलील के साथ नवदीप के वकील बराबर यह दावा कर रहे हैं कि उनकी मुवक्किल के साथ पुलिस का बर्ताव बहुत खराब है. पुलिस ने उसे बुरी तरह मारा है. 12 जनवरी को गिरफ्तारी के बाद उसे अलग-अलग पुलिस स्टेशनों में ले जाया गया है जहां उसका यौन शोषण भी हुआ है.
हरियाणा पुलिस मारपीट के आरोपों से इनकार करती है. उसका कहना है कि नवदीप के साथ हमेशा महिला पुलिस रही है, सोनीपत में उसकी गिरफ्तारी के चंद घंटों के अंदर उसे अनिवार्य मेडिकल जांच के लिए सिविल अस्पताल ले जाया गया था और उस दिन जब उस पर यौन हमले की जांच की जा रही थी, तो नवदीप ने ऐसा कोई दावा नहीं किया था.
हाई कोर्ट में अपने बयान में नवदीप ने इस दावे का खंडन किया और कहा कि उसे महिला पुलिस के बिना पुलिस स्टेशन ले जाया गया और ‘वहां पुलिस वालों ने उसे बुरी तरह मारा-पीटा.’
यह दावा सिर्फ नवदीप ने नहीं किया है. इस मामले से जुड़े दूसरे लोगों ने भी पुलिसिया अत्याचार की बात कही है.
मजदूर अधिकार संगठन के दूसरे एक्टिविस्ट शिव कुमार को भी हरियाणा पुलिस ने 12 जनवरी को ऐसे ही मामले में गिरफ्तार किया था. उसके पिता ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में एक याचिका दायर करके कहा है कि 24 साल के शिव को पुलिस कस्टडी में पीटा गया.
हाईकोर्ट ने 20 फरवरी को आदेश दिया कि चंडीगढ़ के सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में आरोपी की मेडिकल जांच कराई जाए. जो मेडिकल रिपोर्ट आई है उसमें कहा गया है कि शिव को पीटा गया है.
नवदीप के मामले में हाई कोर्ट ने किसी अलग मेडिकल जांच के आदेश अब तक नहीं दिए हैं, चूंकि चीफ ज्यूडीशियल मेजिस्ट्रेट ने 18 जनवरी को ही उसकी मेडिकल जांच के आदेश दिए थे- लेकिन हरियाणा पुलिस इसी रिपोर्ट को 24 फरवरी को पेश नहीं कर पाई.
गिरफ्तार व्यक्ति का यह हक है कि वह मेडिकल जांच की मांग करे
सीआरपीसी यानी आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता के सेक्शन 54 के तहत गिरफ्तार व्यक्ति कस्टडी के दौरान किसी भी समय मेडिकल जांच की मांग सकता है. निम्नलिखित दावों के लिए वह व्यक्ति ऐसी मांग कर सकता है-
पहला, यह साबित करने के लिए कि उसने कोई अपराध किया ही नहीं, या
दूसरा, किसी और व्यक्ति ने उसके खिलाफ अपराध किया है
यहां दूसरा मामला बनता है, चूंकि यहां गिरफ्तार व्यक्ति मेडिकल जांच की मांग कर रहा है ताकि यह साबित हो कि पुलिस ने उसके साथ मार-पिटाई की या उस पर अत्याचार किया.
हरियाणा पुलिस का दावा है कि 12 जनवरी को जब नवदीप कौर को गिरफ्तार करने के बाद मेजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, तब उसने शारीरिक या यौन उत्पीड़न के आरोप नहीं लगाए थे.
ऐसी प्रक्रियाओं के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति को अक्सर यह मौका नहीं दिया जाता कि वह मेजिस्ट्रेट से कुछ कह पाए, या उसके पास अपनी पसंद के वकील नहीं होते जो उसके हक के लिए लड़ें. इसलिए किसी भी मामले में पुलिस के ऐसे दावे पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता.
हालांकि, अगर पुलिस के इस बयान को सच मान लिया जाए तो भी नवदीप को मेडिकल जांच की मांग करने का पूरा हक है. चूंकि सेक्शन 54 साफ कहता है कि ऐसी मांग मेजिस्ट्रेट के सामने पेश होने के समय की जा सकती है, ‘या हिरासत की पूरी अवधि के दौरान किसी भी समय’.
इसमें ऐसी कोई समय सीमा नहीं दी गई है कि गिरफ्तार व्यक्ति कब इस मेडिकल जांच की मांग कर सकता है.
संबंधित न्याय क्षेत्र वाले मेजिस्ट्रेट से यह मांग की जा सकती है, जोकि यह निर्देश देगा कि ‘उस व्यक्ति के शरीर की जांच एक रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टीशनर से कराई जाए.’
मेजिस्ट्रेट उस मांग को ठुकरा सकता है, अगर उसे लगता है कि यह मांग न्याय की प्रक्रिया को परेशान करने या उसमें देरी करने या उसे हराने के लिए की गई है.
पुलिसिया अत्याचार के दावे पर मेडिकल जांच का आदेश कौन दे सकता है
सीआरपीसी के सेक्शन 54 की सरल भाषा में कहा जाए तो अगर गिरफ्तार व्यक्ति मेडिकल जांच की मांग करता है तो ऐसे सभी मामलों में निचली अदालत का एक मेजिस्ट्रेट मेडिकल जांच के आदेश दे सकता है, इसके बावजूद कि वह व्यक्ति सिर्फ पुलिस पर आरोप भर लगा रहा हो.
बेशक, नवदीप के मामले में सोनीपत के प्रथम श्रेणी के ज्यूडीशियलर मेजिस्ट्रेट ने उसके दावों के आधार पर यह आदेश जारी किया है.
लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई मामलों में हाई कोर्ट्स या, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट आदेश देते हैं, तब जाकर मेडिकल जांच कराई जाती है.
जैसे छत्तीसगढ़ की आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी को निष्पक्ष मेडिकल जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा था, जब उन्होंने पुलिस कस्टडी में अत्याचार की शिकायत की थी.
तब पुलिस ने सोनी सोरी के आरोपों के जवाब में कहा था कि वह नहाने के समय झरने में गिर गई थीं, इसलिए उन्हें चोटें आई हैं.
तब 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सोरी की चोटों को ‘प्रथम दृष्टया, या पहली नजर में देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे इतनी मामूली हैं, जैसा छत्तीसगढ़ पुलिस दावा कर रही है.’ अदालत ने कोलकाता में सोरी की निष्पक्ष मेडिकल जांच के आदेश दिए थे. न्यूज रिपोर्ट्स के अनुसार, कोलकाता मेडिकल कॉलेज, जहां उनकी जांच हुई, ने पाया कि उनके वेजाइना और रेक्टम में पत्थर घुसाए गए थे, और 25 नवंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट को इस बाबत जानकारी दी गई.
यहां सवाल यह है क्या ऐसे दावों की स्थिति में हायर ज्यूडीशियरी को शामिल किए जाने की जरूरत है, जबकि आपराधिक न्याय प्रक्रिया में ऐसा करने का अधिकार पहले चरण पर मौजूद अधिकारी को है. उसे ऐसा करना ही चाहिए, जब तक कि उसे इस बात का विश्वास न हो कि आरोपी का इरादा शातिराना है.
भारत में कस्टोडियल हिंसा आम बात है, इसलिए मेजिस्ट्रेट के पास मेडिकल जांच की मांग को ठुकराने के पीछे ठोस कारण होने चाहिए.
जब तक मामला हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है, आरोपी व्यक्ति अपनी मांग के साथ संविधान के अनुच्छेद 21 के कथित उल्लंघन की रिट याचिका भी दायर कर सकता है, और ऐसे मामलों में मेडिकल जांच को ठुकराना लगभग असंभव होता है.
लेकिन ऐसे कोई तय नियम नहीं हैं कि मेडिकल जांच कहां कराई जाएगी. हालांकि अदालतें आला दर्जे के मेडिकल संस्थान में ऐसी जांच के आदेश देती हैं, जहां उन्हें इस बात का भरोसा हो कि पुलिस मेडिकल जांच को प्रभावित नहीं कर सकती. यह उस राज्य के भीतर भी हो सकता है, उसी राज्य के किसी दूसरे शहर में (जैसे शिव कुमार के मामले में हुआ) या पूरी तरह से दूसरे राज्य में (जैसे सोरी के मामले में हुआ), या उसी शहर में भी- जोकि हालात पर निर्भर करता है.
इसके बाद क्या?
अगर मेडिकल जांच की रिपोर्ट गिरफ्तार व्यक्ति के अत्याचार या मार-पिटाई के दावे का समर्थन करती है तो भी यह जरूरी नहीं कि पुलिस के खिलाफ उचित कार्रवाई हो, जोकि काफी दुखद है.
भारत उन पांच देशों में से एक है जिन्होंने 1987 के यूनए कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर एंड अदर क्रुअल, इनह्यूमन एंड डिग्रेडिंग ट्रीटमेंट ऑर पनिशमेंट को मंजूर नहीं किया है. न ही भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में पुलिस अधिकारियों के अत्याचार/मार-पीट से संबंधित कोई खास प्रावधान हैं.
अगर मेडिकल रिपोर्ट यह बताती है कि गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस ने सचमुच मारा-पीटा या प्रताड़ित किया है तो मेडिकल जांच का आदेश देने वाला मेजिस्ट्रेट सिर्फ यह कर सकता है कि जिम्मेदार लोगों के खिलाफ संबंधित प्रावधानों के अंतर्गत आपराधिक मामला दायर कर दे.
इसके बावजूद कि पुलिस के लिए आईपीसी में कोई खास प्रावधान नहीं हैं, ऐसे मामलों में तकलीफ देने, गंभीर तकलीफ देने, यौन हमले या रेप के मामले बनाए जा सकते हैं. पुलिस अधिकारी अगर रेप करता है तो इसे आईपीसी के सेक्शन 376 (2) के तहत गंभीर अपराध माना जाता है.
न्यायिक व्यवस्था जिस यांत्रिक तरीके से काम करती है, उसे देखते हुए गिरफ्तार व्यक्ति मेजिस्ट्रेट की अदालत या किसी दूसरी अदालत में यह शिकायत दर्ज करा सकता है कि उसके मामले पर कार्रवाई की जाए.
ऐसी शिकायत की जांच निष्पक्ष हो, इसके लिए किसी बाहरी एजेंसी या पुलिस बल को यह जांच सौपी जाएगी. तुतुकुड़ी के उस भयावह कस्टोडियल डेथ मामले को याद कीजिए— दुकानदार पिता पुत्र जयराज और बेनिक्स को स्थानीय पुलिस में किस तरह प्रताड़ित किया था. उस मामले में सीबीआई जांच के आदेश दिए गए थे और सीबीआई ने चार्ज शीट दायर की थी. लेकिन इस सिलसिले में कोई पक्के नियम नहीं है, इसलिए कानून में जल्द ही संशोधन किए जाने की जरूरत है.
क्या रिपोर्ट में चोटें साबित होने पर गिरफ्तार शख्स को बेल मिलेगी
कोई सोच सकता है कि रिपोर्ट में यह साबित होने पर कि पुलिस ने मार-पीट की है, गिरफ्तार शख्स को अपने आप बेल मिल जाएगी. लेकिन कानून के तहत ऐसा नहीं होता.
जैसा कि सीनियर एडवोकेट सतीश टम्टा ने क्विंट को बताया, ‘कानून में ये दोनों अलग-अलग बातें हैं. अगर यह पाया जाता है कि पुलिस ने हिरासत में किसी से मार-पीट की तो इस आधार पर उस शख्स को बेल नहीं मिल सकती.’
चूंकि सीआरसीपी में कोई प्रावधान नहीं है, टॉर्चर पर कोई कानून नहीं है और सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस भी नहीं है, इसलिए ऐसी स्थिति में अदालत यह आकलन करेगी कि गिरफ्तार व्यक्ति को बेल दी जाए या नहीं- लेकिन पुलिस कस्टडी में मार-पीट या अत्याचार की आशंका का इससे कोई लेना-देना नहीं है.
जैसे सोनी सोरी के मामले में ठोस मेडिकल सबूत होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें दो साल बाद, यानी 2013 में बेल दी. अपने आदेश में जजों ने कथित कस्टोडियल टॉर्चर का जिक्र किया लेकिन यह उनकी रिहाई का आधार नहीं बना. एविडेंस एक्ट के अंतर्गत अगर आरोपी को टॉर्चर करके उनसे कोई कनफेशन या एडमिशन कराया जाता है तो वह मंजूर नहीं किया जाएगा.
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