किसी मौसम का झोंका था....
जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है
गए सावन में ये दीवारें यूं सीली नहीं थीं
न जाने इस दफा क्यूं इनमें सीलन आ गई है ,
दरारें पड़ गई हैं
और सीलन इस तरह बहती है, जैसे खुश्क रुखसारों पे गीले आंसू चलते हैं
ऐसी नजर से देखा, उस जालिम ने चौक पर
हमने कलेजा रख दिया चाकू की नोक पर
दोनों ही कविताएं अलग-अलग मिजाज की हैं, पर खास बात यह है कि दोनों को लिखने वाली कलम एक ही शख्स की है. वो शख्स गुलज़ार के सिवा कौन हो सकता है, जिसे हर रंग, हर अहसास को कागज पर उतारने का फन हासिल हो.
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के चौथे दिन की सुबह गुलज़ार साब की कविता में डूबी रही. मोड़ पर मौजूद बूढ़े आम के पेड़ से उस शख्स के रिश्ते की कहानी हो, जिसने बचपन में आम तोड़ने के लिए उस पर पत्थर बरसाए थे या फिर जिस्म और रूह के फर्क को खूबसूरती से बयान करना, गुलज़ार के शब्दों में मुश्किल से मुश्किल बात आसान होती नजर आई.
अहसास, इतिहास प्यार या पॉलिटिक्स, गुलज़ार हर मसले पर अपनी बात को बड़े ही सहजता से कह जाने के लिए मशहूर हैं.
नई दिल्ली में कुछ भी नया नहीं है.
लेकिन पांच सालों में एक नई सरकार आ गई है.
राजनीति पर इतने मुलायम शब्दों में गुलज़ार के सिवा और कौन इतना तीखा व्यंग्य कर सकता है.
डिग्गी पैलेस के आगे के लॉन में देर तक अपनी कविताओं के साथ अपने श्रोताओं को सम्मोहित किए रहे.
पुराने बॉलीवुड पर नई किताबें
पुराने बॉलीवुड पर लिखी गई किताबों के लिए आयोजित एक सत्र ‘जाने कहां गए वो दिन: न्यू बुक्स ऑन ओल्ड बॉलीवुड’ में जय अर्जुन सिंह और रऊफ अहमद ने अपनी किताबों पर चर्चा की. सिंह की किताब थी ‘द वर्ल्ड ऑफ ऋषिकेश मुखर्जी’ और रऊफ की किताब थी ‘शम्मी कपूर: द गेम चेंजर’.
अहमद ने आकर्षक व्यक्तित्व के धनी शम्मी कपूर के जीवन के बारे में बात करते हुए कहा कि वे ‘माचो इमेज’ वाले हीरो नहीं थे, पर फिर भी हजारों महिला प्रशंसकों के दिल पर राज करते थे.
वहीं सिंह ने फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी के बारे में बात करते हुए बताया कि किस तरह उनके एक टेक्नीशियन को अपने जीवन के आखिरी दिन बेहद गरीबी में गुजारने पड़े. सिंह ने कहा कि ऐसा अक्सर ही बॉलीवुड के टेक्नीशियंस के साथ होता है. उन्हें उनके काम का पूरा श्रेय नहीं मिलता और अपने आखिरी दिनों में उन्हें परेशानियां उठानी पड़ती हैं.
अरब स्प्रिंग जरूरी था, हार या जीत नहीं
फेस्टिवल के चौथे दिन एक सत्र के दौरान मोना अल्ताहवी, सुलेमान एदोनिया, वली नस्र, उमर बारघोती और लालेह खलीली के पैनल ने 2011 में अरब देशों में सिलसिलेवार हुई क्रांति की घटनाओं पर चर्चा की.
17 दिसंबर, 2010 को ट्यूनिशिया में एक फल विक्रेता मोहम्मद बुअजीजी ने स्थानीय म्यूनिसिपल दफ्तर के सामने आत्मदाह कर लिया था. अल जज़ीरा की खबर के मुताबिक, उस दिन ट्यूनीशियाई पुलिस ने उसका फलों का ठेला छीन कर उसकी पिटाई की थी, क्योंकि उसके पास फल बेचने का परमिट नहीं था.
इसके बाद वह घटना की शिकायत करने नगरपालिका के दफ्तर गया, जहां उसकी बात नहीं सुनी गई. दुखी और गुस्साए 26 साल के बुअजीजी ने खुद को आग लगा ली. इस आत्महत्या के बाद ट्यूनीशिया में शुरू हुआ सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन मिस्र, सीरिया, सऊदी अरब, बहरीन और जॉर्डन तक जा पहुंचा.
पैनल ने कहा कि इस क्रांति के परिणाम को हार-जीत के तराजू में तौलना गलत होगा. इस क्रांति ने लोगों के दिल से तानाशाही का डर दूर किया, यही इसकी सफलता थी.
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