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‘हमें बस रोहित वेमुला के दिखाए हुए रास्ते पर चलना है’

JNU छात्रसंघ के पूर्व उपाध्‍यक्ष अनंत पर भी यूनिवर्सिटी की जांच समिति ने जुर्माना लगाया है.

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(इस आलेख में लिखे गए विचार अनंत प्रकाश नारायण के हैं, जो कि JNU छात्रसंघ के पूर्व उपाध्‍यक्ष हैं. यूनिवर्सिटी की जांच समिति ने अनंत पर भी जुर्माना लगाया है, जिसके खिलाफ वे भूख हड़ताल पर हैं.)

भूख हड़ताल का बारहवां दिन चल रहा है. प्रशासन कितना दवाब में है, कुछ भी कहा नहीं जा सकता है. हां, अगल-बगल के हालात देखकर, बातचीत सुनकर इतना तो जरूर समझ में आ रहा है कि कुछ तो ‘अन्दर’ जरूर चल रहा है. अध्यापक संघ हमारे साथ खड़ा है. उन्होंने हमारे समर्थन में एक दिन का भूख हड़ताल भी किया और अब क्रमिक भूख हड़ताल पर है.

हमसे हमारे शुभचिंतकों द्वारा बार-बार आग्रह किया जा रहा है कि हम भूख हड़ताल को छोड़ें. हम जब इस भूख हड़ताल पर बैठ रहे थे, तो हमारे सामने की स्थिति ने हमें चेता दिया था कि ये ‘करो या मरो’ की स्थिति है. इसलिए हमने नारा भी दिया कि ये भूख हड़ताल हमारी मांगों तक या फिर हमारी मौत तक. हमारी मांग बिलकुल स्पष्ट है कि हम अलोकतांत्रिक, जातिवादी उच्चस्तरीय जांच कमिटी को नहीं मानते हैं.

इसलिए इसके आधार पर हम कुछ छात्र-छात्राओं पर जो आरोप व दंड लगाए गए हैं, उनको खारिज किया जाए और प्रशासन बदले की भावना से इन छात्र-छात्राओं पर कार्रवाई करना बंद करे. जेएनयू के एडमिशन पॉलिसी को लेकर कुछ मांगें हैं. सजा क्या है? कुछ का विश्वविद्यालय से निष्कासन, कुछ का हॉस्टल-निष्कासन और कुछ लोगों पर भारी जुर्माने की राशि और कुछ लोगों पर यह सब कुछ.

अब जब हम आन्दोलन में हैं, तो यह साफ-साफ देख पा रहे हैं कि यही तो हुआ था हैदराबाद के साथियों के साथ. इसी तरह से हॉस्टल से निकलकर सड़क पर रहने के लिए विवश किया गया था. इसी तरह तो कोशिश की गई थी रोहित और उसके साथियों को देश और दुनिया के सामने एंटी-नेशनल के तमगे से नवाज देने की. नतीजा क्या हुआ, सबके सामने है.

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बीते दिनों इस स्टूडेंट-मूवमेंट के साथ साथ पूरे जेएनयू को निशाने पर लिया गया और इसे एक संस्थान के रूप में देश-विरोधी ठहरा देने का प्रयास हुआ. आखिर देश है क्या? आखिर हम देशभक्ति मानें किसे?

वो भारत का नक्शा दिखाकर और भारत की सीमाओं को दिखाते हुए बोलते इन सीमाओं के भीतर जो कुछ भी है, देश है. इसका मतलब पेड़-पौधे, रेलगाड़ी, प्लेटफॉर्म, पहाड़, जंगल, कारखाने, यहां के लोग, खनिज-संपदा, नदियां, तालाब, इत्यादि सब कुछ देश हैं. इस दौरान मुझे अपवाद के रूप में भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसने देश की इस परिभाषा से असहमति जताई.

देश के लिए प्रतीक बने, संविधान बना, कानून बने और जैसे-जैसे यह देश बदलता जाता है, आगे बढ़ता जाता है, देश लगातार चलने वाली एक प्रक्रिया का हिस्सा है. देश रोज बनता है और हमेशा नए ढंग में हमारे सामने आता रहता है, जिसे इस देश का गरीब, किसान, मजदूर और बाकी मेहनतकश लोग बनाते हैं.

अब लड़ाई इस बात की है कि यह देश किसका है और इसका मालिक कौन होगा? इस देश की संपत्ति, संसाधनों पर हक किसका होगा? यही गरीब, मजदूर, किसान और मेहनतकश लोग जो रोज इस देश को बनाते हैं, जब अपने हक के लिए खडे़ होते हैं, तो इस देश की सत्ता/सरकार चंद पूंजीपतियों के साथ क्‍यों खड़ी हो जाती है? और इस देश को बनाने वालों के हक में जब जेएनयू जैसे संस्थान आवाज उठाते हैं, तो उसे देशद्रोही करार देने की कोशिश क्यों होती है?

जिस समय जेएनयू का मसला ही पूरे देश में चर्चा का विषय बना रहा, उस समय जेएनयू प्रशासन व इस देश की सत्ता ने बड़ी चालाकी से अपने मंसूबों को पूरा करने में इस समय का इस्तेमाल किया. यह सर्वविदित है कि जेएनयू अपनी एडमिशन पॉलिसी के कारण ही अपना एक इनक्लूसिव कैरेक्टर बना पाया है.

लगभग 24 साल से चली आ रही इस पॉलिसी को प्रशासन ने बदल दिया और स्टूडेंट कम्युनिटी को कुछ खबर तक नहीं हुई. दूसरा, ओबीसी के मिनिमम एलिजिबिलिटी कट ऑफ, जिसको 4 साल के लम्बे संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जा करके इस जेएनयू प्रशासन के खिलाफ जीत कर लाया गया था और इसे सिर्फ जेएनयू नहीं, पूरे देश के संस्थानों के लिए अनिवार्य किया गया था, उसको खत्म कर दिया गया और किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई.

इसी तर्ज पर दूसरी तरफ सत्ता में बैठे लोगों ने इस समय का फायदा विजय माल्या को इस देश के बाहर भेजने के लिए इस्तेमाल किया. ये सत्ता की बहुत ही पुरानी तरकीब रही है कि अगर देश की कुछ रियल समस्याएं हैं, तो उसकी तरफ से ध्यान भटकाने के लिए कुछ ऐसा करो कि इस देश के लोगों का ध्यान उधर जाए ही ना.

इस सरकार के 2 साल बीत जाने के बाद इनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इस देश के लोगों के सामने गिना सकें कि हमने क्या किया. ये चुनाव पर चुनाव हारते जा रहे हैं. तब इन्होंने इस देश के लोगों का ध्यान उनकी विफलता से हटाने के लिए जेएनयू ‘काण्ड’ को गढ़ा.

इस साजिश को साफ-साफ समझा जा सकता है कि जब जेएनयू का आन्दोलन चल रहा था, उस समय बीजेपी अध्यक्ष ने घोषणा की कि वह इस मामले को लेकर के यूपी के घर-घर में जाएंगे. यूपी के घर-घर ही क्‍यों? क्‍योंकि वहां चुनाव आने वाले हैं. धूमिल ने सत्ता/सरकार की इसी साजिश की ओर इशारा करते हुए हमें सावधान किया और लिखा कि

चंद चालाक लोगों ने

जिनकी नरभक्षी जीभ ने

पसीने का स्वाद चख लिया है,

बहस के लिए भूख की जगह भाषा को रख दिया है....

अगर धूमिल की इसी बात को और आगे बढ़ाते हुए कहा जाए तो आज भूख की जगह प्रतीकों/सिम्बल्स/नारों को रखने की कोशिश चल रही है. यानी हमारे जीवन की रियल समस्याओं से ध्यान हटा देने की हर बार की तरह एक कोशिश, एक साजिश.

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हमारे सामने क्या रास्ता है? हमारे ऊपर जो दंडात्मक कार्रवाइयां हुई हैं, उनको मान लेना चाहिए? हमारा यह साफ-साफ मानना है कि ये दंडात्मक कार्रवाइयां हमारे ऊपर एक विचारधारात्मक कार्रवाई है.

भले ही यह कार्रवाई कुछ छात्र-छात्राओं पर की गई है, लेकिन इसका निशाना पूरा जेएनयू ही है. इसका कारण स्पष्ट है कि जेएनयू साम्प्रदायिकता व साम्राज्यवाद विरोधी होने के कारण हमेशा से सत्ता के निशाने पर रहा है.

यहां पर समाज के हर तबके की आवाज के लिए एक जगह है और इतना ही काफी है RSS के लिए कि वह जेएनयू विरोधी हो. जेएनयू के छात्र आन्दोलन की विशेषता है कि यह कैम्पस के मुद्दों को उठाने के साथ साथ देश दुनिया में चल रही प्रत्येक चीज पर सजग रहता है, और जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप भी करता है. इसी का परिणाम है कि इस सरकार के सत्ता में आने से पहले और बाद में हमेशा से जब भी इन्होंने इस देश के लोगों के खिलाफ कदम उठाए हैं, तब-तब इन्हें यहां के छात्रों के आन्दोलन या विरोध का सामना करना पड़ा है.

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अब इन सारी चीजों को ध्यान में रखकर देखें, तो हमें क्या करना चाहिए? नए कुलपति साहब की नियुक्ति हुई है, वो अपने संघ के एजेंडे पर काम कर रहे हैं.

उनको जेएनयू के कैरेक्टर को खत्म करना है. ऐसे समय में छात्र-आन्दोलन की जिम्मेदारी क्या होगी? क्या हम लोग इस देश के छात्र-आन्दोलन के प्रति जवाबदेह नहीं है, जबकि आज एक ऐतिहासिक जवाबदेही हमारे कंधों पर है? जेएनयू के छात्र-आन्दोलन को इस देश में एक सम्मानजनक स्थान हासिल है.

हम किसी मुगालते या भावुकता में भूख हड़ताल में नहीं बैठे हैं, बल्कि पूरी तरह से सोची-समझी गई राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ हम इस आन्दोलन में गए हैं. आज हम अपनी लड़ाई को रोहित वेमुला की लड़ाई से अलग करके नहीं देखते हैं. रोहित ने हमें संदेश दिया कि अगर बर्बाद ही होना है, तो लड़ते हुए बर्बाद हो. रोहित हम तुम्हारे दिखाए हुए रास्ते पर चल रहे हैं.

-अनन्त प्रकाश नारायण

(लेखक जेएनयू के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ लॉ एंड गवर्नेंस के शोध-छात्र हैं और जेएनयू. छात्र संघ के पूर्व उपाध्यक्ष हैं.)

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