साहित्य में ‘व्यंग्य’ यूं तो हमेशा से ही मौजूद रहा है, लेकिन इस विधा को पहचान बहुत बाद में मिली. हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की शुरुआत अमर साहित्यकार भरतेंदु हरिश्चंद्र के युग से मानी जाती है, लेकिन इसे मुकम्मल ‘विधा’ के तौर पर प्रतिष्ठित किया यशस्वी व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी ने. इस परंपरा को जीवित रखने वाले और इसे अपनी कलम की धार से तराशने वाले महान व्यंग्यकारों में से एक प्रेम जनमेजय हैं.
व्यंग्य विधा को पूरी तरह से समर्पित व्यंग्यकार जनमेजय जी का जन्म 18 मार्च, 1949 को इलाहाबाद में हुआ था. व्यंग्य विधा को न केवल संवर्धित करने, बल्कि सृजन की दृष्टि से भी जनमेजय जी का विशिष्ट स्थान है. उन्होंने व्यंग्य को हमेशा एक गंभीर कर्म माना है और गंभीर कर्म हो भी क्यों न?
शिक्षा को लेकर तीखा व्यंग
सामाजिक, राजनीतिक एवं अन्य परिस्थितियों पर गहन सोच-विचार कर ही व्यंग्य-रचना को वजूद बख्शा जाता है. ‘शिक्षा’ को लेकर उन्होंने जो तीखा व्यंग्य किया है, वह वाकई किसी भी व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर देता है. अपनी महत्त्वपूर्ण रचना ‘राम! पढ़ मत, मत पढ़’ में वे लिखते हैं.
“आजकल सरकार भी शिक्षा पर बहुत बल दे रही है. शिक्षा को चुस्त-दुरुस्त किया जा रहा है. चुस्त-दुरुस्त शिक्षा के अनेक लाभ हैं. सबसे बड़ा लाभ यह है कि ऐसी शिक्षा को आसानी से बेचा और मुश्किल से खरीदा जा सकता है. बाजारवाद के युग में ऐसी शिक्षा मूल्यवान हो जाती है और शिक्षा का व्यवसाय करने वाले बहुमूल्य. यही कारण है कि आजकल व्यवसायी व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दे रहे हैं. सरकार का भी विश्वास है कि शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे.”
व्यंग्य-रचना कोई आसान काम नहीं है, जितना यह अपने नाम से प्रतीत होता है. यह सिर्फ किसी विषय पर हंसी-मजाक करना नहीं है, बल्कि उस विषय के बारे में गंभीर रूप से चिंतन-मनन करते हुए अपने विचार इस प्रकार से प्रस्तुत करना होता है कि उसके बारे में लोगों की आंखें खुल जाएं. असल में व्यंग्यकार अपनी व्यंग्य-रचनाओं के माध्यम से आंखें खोलने का ही काम करता है.
‘ये पीड़ित जनम जनम के’
जनमेजय की एक महत्त्वपूर्ण हास्य-व्यंग्य रचना है ‘ये पीड़ित जनम जनम के’. इसमें रेल को केंद्र बनाकर उन्होंने जबरदस्त ढंग से व्यंग्य को उभारने का प्रयास किया है. इसे उनकी ही रचना के एक अंश से इस प्रकार समझा जा सकता है.
“भारतीय रेलों से मुझे प्यार है. गाय और गंगा की तरह रेलों को हमें माता मानना चाहिए. वे भी दिन–रात जनसेवा में जुटी रहती हैं. 90 करोड़ संतानों को अविचलित भाव से ढोती हैं. संतानें डिब्बों में यों खचाखच भरी होती हैं, ज्यों दड़बे में चूजे. खिड़कियों में यों लटकी रहती हैं, जैसे पेड़ पर चमगादड़ें. फुटबोर्डों पर यों खड़ी रहती हैं, जैसे पतले तार पर नट. कुछ संतानों को छत पर बैठना अच्छा लगता है. वे छत पर ऐसे बैठी रहती हैं, जैसे सर्कस के कलाकार झूले पर. दरअसल हमारे इस गणतंत्र में डिब्बे के अंदर हवा का संकट हमेशा बना रहता है. यात्री को गंतव्य तक बिना हवा के काम चलाना पड़ता है.
यह एक कठिन योग–साधना है. छत मुसाफिरों को इस तपस्या से बचाती है. दूसरी बात यह है कि टीटी चाहकर भी ऊपर नहीं पहुंच सकता. इससे भ्रष्टाचार की एक नई शाखा नहीं फूटने पाती. कुछ संतानें अत्यंत रोमांचप्रिय होती हैं. उन्हें दुर्गम स्थानों पर अतिक्रमण में आनंद आता है. वे बोगियों के बीच लगे बंपरों पर ही कब्जा कर लेती हैं. संभवत: वे रेल और घुड़सवारी दोनों का मज़ा एक साथ उठाना चाहती हैं.”
पहला संग्रह- ‘राजधानी में गंवार’
जनमेजय जी आधुनिक हिंदी व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं. उनका पहला संग्रह ‘राजधानी में गंवार’ 1978 में प्रकाशित हुआ था. इसके बाद तो उन्होंने अनेक ऐसी व्यंग्य-रचनाएं रचीं, जो मील का पत्थर बन गई हैं : चाहे वह ‘अंधेरे के पक्ष में उजाला’ हो या फिर ‘आंधियों का मौसम’ या फिर ‘तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी’. उनकी रचनाओं में व्यंग्य का पुट बेइंतिहा तौर पर बिखरा हुआ है. समकालीन साहित्यकार दिविक रमेश ने प्रेम जनमेजय को अपनी पीढ़ी का श्रेष्ठ व्यंग्यकार कहा है. यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है कि जनमेजय जी ने व्यंग्य को एक गंभीर कर्म के रूप में अपनाया और इस विधा को न केवल सीमित होने से बचाया, बल्कि इसकी रोचकता को और इसकी लय को परवान भी चढ़ाया. व्यंग्य-लेखन के प्रति गंभीरता को उनके ही शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है-
“मेरा मानना है कि व्यंग्य-लेखन अन्य विधाओं से भिन्न प्रक्रिया की मांग करता है. व्यंग्य आपको बेचैन अधिक करता है. अधिकांशतः सामयिक घटनाएं प्रेरक बिंदु होने के कारण व्यंग्य-रचना अन्य विधाओं की अपेक्षा अपने जन्म के लिए अधिक जल्दी में होती है. मैंने अन्य विधाओं में भी लिखा है और मेरा यह अनुभव है. व्यंग्य-लेखन की प्रक्रिया में मैंने अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक बेचैनी का अनुभव किया है. इस बेचैनी को जब तक मैं कागज पर उतार नहीं लेता हूं, चैन नहीं आता है.”
व्यंग्य के प्रति गंभीर एवं सृजनात्मक चिंतन के चलते उन्होंने 2004 में व्यंग्य को समर्पित पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ का प्रकाशन भी आरंभ किया. इस पत्रिका ने व्यंग्य-विमर्श का मंच तैयार किया. विद्वानों ने इसे हिंदी व्यंग्य साहित्य में ‘राग दरबारी’ के बाद दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना माना है. इस पत्रिका को आधुनिक साहित्यकारों का महत्त्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हो रहा है.
‘तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी’ में तो जनमेजय का व्यंग्य और भी अधिक निखरकर सामने आया है. इस व्यंग्य-रचना में व्यंग्य का वह स्रोत फूटा है कि पाठक इससे बंध जाता है और उसके मुंह से अनायास ही प्रशंसनीय शब्द फूट पड़ते हैं. प्रस्तुत है इससे एक अंश—
“लोग दीपावली पर लक्ष्मी-पूजन करते हैं, मेरा सारे वर्ष चलता है. फिर भी लक्ष्मी मुझ पर कृपा नहीं करती. मैं लक्ष्मी-वंदना करता हूँ हे भ्रष्टाचार प्रेरणी, हे कालाधनवासिनी, हे वैमनस्यउत्पादिनी, हे विश्वबैंकमयी! मुझ पर कृपा कर! बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई. यहां तक मुझमें चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदेच्छा भी पैदा न हुई, वरना ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के बल पर किसी प्रदेश का मंत्री, किसी थाने का थानेदार, किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी आदि-आदि बन देश-सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता. युवा में मैं सावन का अंधा ही रहा. जिस लक्ष्मी के पीछे दौड़ा, उसने बहुत जल्द आटे-दाल का भाव मुझे मालूम करवा दिया. हे कृपाकारिणी! मुझ पर इस प्रौढ़ावस्था में ही कृपा कर.”
जनमेजय जी वैसे तो मुख्य रूप से व्यंग्यकार के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन व्यंग्य-रचनाओं के अलावा भी उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं को समृद्ध करने का प्रयास किया है. उन्होंने संस्मरणात्मक लेखन भी किया, साहित्यिक निबंध भी लिखे, रेडियो नाटक और कहानियां भी. ‘देखो कर्म कबीर का’ उनका एक प्रसिद्ध रेडियो नाटक है तो ‘त्रिनिदाद में दीवाली’ उनका एक अत्यंत पठनीय संस्मरण. यही नहीं बाल साहित्य में भी उन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. ‘शहद की चोरी’ और नल्लूराम’ उनकी प्रसिद्ध बाल साहित्यिक रचनाएं हैं.
‘हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान’ एवं ‘हरिशंकर परसाई स्मृति पुरस्कार’ और अन्य अनेक पुरस्कारों से सम्मानित प्रेम जनमेजय ने जिस प्रकार साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा ‘हास्य-व्यंग्य’ को अपनी कलम से सींचा है, वह अत्यंत सराहनीय एवं प्रशंसनीय है. आशा है कि भविष्य में भी उनकी लेखनी से पाठकों को हास्य रस से पूर्ण रचनाएं मिलती रहेंगी.
एम.ए. समीर कई वर्षों से अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से लेखक, संपादक, कवि एवं समीक्षक के रूप में जुड़े हैं. वर्तमान समय में स्वतंत्र रूप से कार्यरत हैं. 30 से अधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ अनेक पुस्तकें संपादित व संशोधित कर चुके हैं.
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