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संडे व्यू: भारत में ‘भीड़तंत्र’, अमेरिका में नफरत का ‘उल्लास’

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भीड़तंत्र के हवाले न्यू इंडिया

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि बहुमत के हुक्म पर चलने वाला समाज तैयार हो रहा है, अलग किस्म की नागरिकता जन्म ले रही है. नतीजों से बेपरवाह होकर सामूहिक हमलों को अंजाम दिया जा रहा है, जहां पुलिस और दूसरे लोग तमाशनबीन हैं.

भीड़तंत्र नया ट्रेंड बन गया है. किसी को कोई डर नहीं है. अल्पसंख्यकों को डराने, तंग करने और अलग-थलग करने के उदाहरण भरे पड़े हैं- दादरी में मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, ऊना में 4 दलित, झारखण्ड में तबरेज अंसारी, त्रिपुरा में बुधी कुमार.

‘जय श्री राम’ और ‘जय हनुमान’ के नारे लगवाने तक ये घटनाएं सीमित नहीं हैं. इसका मकसद है इसे खुलेआम व्यापक तौर पर आगे बढ़ाना. किसी को भी स्मगलर, राष्ट्र विरोधी, चोर, बाहरी घोषित किया जा सकता है और भीड़ उसके साथ न्याय करेगी.

यह मान लिया गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला बड़ा जनादेश इस सब करतूतों पर मुहर है. अगर कोई बीजेपी के साथ है तो कानून से साफ तौर पर बच सकता है. दादरी लिंचिंग केस का अभियुक्त यूपी सीएम की रैली में आगे की सीट पर बैठता है. महाराष्ट्र में कांग्रेस विधायक नीतेश राणे भी ऐसा ही उदाहरण है. संसद में जिस 'न्यू इंडिया' की बात नरेंद्र मोदी ने की है, वह सपना तेजी से दूर होता दिख रहा है. भीड़तंत्र के हवाले हो रहा है न्यू इंडिया.

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बगैर रीढ़ वाले पत्रकार ऐसे दूर करें दर्द

जी सम्पथ ने द हिन्दू में इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की है कि क्या पत्रकारों में रीढ़ की हड्डी रह गयी है? वे पीठ का दर्द लेकर अपने परिचित डॉक्टर के पास रियायती इलाज के लिए पहुंचते हैं. एक्सरे देखकर डॉक्टर गुस्सा हो जाते हैं और लेखक को पत्रकार मानने से इनकार करते हैं.

एक के बाद एक सबूत पेश किए जाने के बाद वे कहते हैं कि अगर आप पत्रकार हैं, तो आपकी रीढ़ की हड्डी कहां है? एक्सरे में तो दिख नहीं रही. आगे एमआरआई समेत दूसरे टेस्ट होते हैं. आखिरकार पत्रकार को पुरानी चिकित्सा पद्धति में औरा चक्र मशीन के हवाले कर दिया जाता है. नतीजा वही निकलता है कि पत्रकार में रीढ़ की हड्डी नहीं है.

लेखक सह पत्रकार पीत बाबा से सवाल करते हैं कि अगर रीढ़ की हड्डी नहीं है तो दर्द क्यों महसूस होता है? वे पूछते हैं काल्पनिक अंग के बारे में सुना है? उसे महसूस भी कर सकते हैं और दर्द का आभास भी. इस तरह आपमें भी काल्पनिक रीढ़ की हड्डी है. इसलिए इलाज ये है कि आप ये महसूस करना बंद कर दें कि आपमें रीढ़ की हड्डी है.

पत्रकार के बहुतेर सवालों के जवाब में बाबा फिर कहते हैं कि उनकी सलाह पर अमल करें. रोजाना सुबह-सुबह क्राउल करें यानी घिसट-घिसट कर चलें. पत्रकार ने एक हफ्ते में ही दर्द से राहत महसूस कर लिया. उसने अपने अनुभव से बताया कि न सिर्फ पत्रकार, बल्कि नौकरशाह, जज, सिपाही, सेलेब्रिटी सबके लिए यही उत्तम है कि वे राष्ट्रवादी पोस्टर में क्राउल करना यानी घिसट-घिसट कर चलना शुरू कर दें. तभी रीढ़ की हड्डी नहीं होने के बावजूद जो दर्द है उससे निजात मिल सकता है.

असाधारण नहीं है 5 ट्रिलियन की इकनॉमी

पी चिदम्बरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे आलेख में 5 ट्रिलियन वाली अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को महत्वपूर्ण बताया है, मगर इसे असाधारण लक्ष्य मानने से इनकार किया है. तथ्यों के हवाले से उन्होंने बताया है कि यह बिल्कुल व्यावहारिक लक्ष्य है और साधारण गणित के अनुरूप है. अगर रुपये-डॉलर के विनिमय दर को 70-75 रुपये प्रति डॉलर पर स्थिर रखें, तो 2018-19 में 2.75 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था 2024-25 में 5 ट्रिलियन डॉलर की हो जाएगी.

लेखक बताते हैं कि 1991 में 325 बिलियन की अर्थव्यवस्था 2003-04 में दोगुनी हो गयी थी. इसी तरह 2008-09 में यह फिर दोगुनी हुई और फिर सितम्बर 2017 में फिर दोगुनी होकर 2.12 ट्रिलियन डॉलर की हो गयी. आगे भी यह हर छह या सात साल में दोगुनी हो जाएगी.

चिदम्बरम ने कहा है कि मूल सवाल ये है कि कितनी जल्दी हम दस फीसदी की विकास दर हासिल करते हैं. इसी तरह कब हम भारतीयों की प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय बढ़ेगी और कब सबसे गरीब दस लोगों की आय और सबसे अमीर दस लोगों की आय का अंतर कम हो रहा है कि नहीं? पी चिदम्बरम ने आने वाले समय में घरेलू संसाधनों की कमी के बीच राजस्व दबाव बढ़ने की आशंका जताई है.

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अंतरजातीय विवाह से ही टूटेगा जातिवाद

स्वामी अग्निवेश ने अमर उजाला में बरेली की युवा जोड़ी के विवाह सूत्र में बंधने और अदालत की ओर से उन्हें मिली सुरक्षा की घटना के हवाले से लिखा है कि जातिवाद अंतरजातीय विवाह से ही मिटेगा. वे लिखते हैं कि समाज अंतरजातीय प्रेम विवाहों को मान्यता नहीं देता है. ताजा घटना में लड़की का उच्च जाति वर्ग से होना और लड़के का अनुसूचित जाति से होना ही विवाद की वजह रहा. उस पर लड़की के पिता राजनीतिक-आर्थिक रसूख वाले रहे. वे लिखते हैं कि जन्मना जातिवाद अत्याचार के मूल में रहा है जिसे खुद धार्मिक ग्रंथों में मान्यता नहीं है.

स्कंद पुराण के हवाले से स्वामी अग्निवेश लिखते हैं कि ‘जन्मना जायते शूद्र संस्कारात द्विज उच्चयते’. अर्थात हर इंसान शूद्र पैदा होता है और संस्कारों से ही उसका दूसरा जन्म होता है. मगर, जातिवादी तत्व इस मूल बात को ही भुला बैठे हैं. जन्मना जातिवाद के खिलाफ हमेशा आवाज उठी है.

बाबासाहब अम्बेडकर, ज्योतिबा फूले, महर्षि दयानन्द, महात्मा गांधी सबने जन्मना जातिवाद का विरोध किया. गांधीजी ने संकल्प लिया था कि वे उस शादी में नहीं जाएंगे जो अंतरजातीय न हो. स्वामी लिखते हैं कि हिन्दू मैरिज एक्ट में विशेष सुविधा भी अंतरजातीय, अंतरधार्मिक विवाद को अनुमति देती है जिसका फायदा समाज को उठाना चाहिए.

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अमेरिका में ‘नफरत का उल्लास’

द न्यूयॉर्क टाइम्स में जैमेले बुई ने द ज्वॉय ऑफ हैट्रेड यानी ‘नफरत का उल्लास’ नाम से आलेख लिखा है. ग्रीनविल्ले एनसी में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में हुई रैली का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं कि नारे और लोगों में गुस्सा डराने वाले थे, लेकिन वह नजारा भीड़ का उल्लास बता रहा था. ट्रम्प के वोटर और समर्थकों के लिए वह आनन्द था.

इल्हान उमर के लिए लगाए जा रहे नारे ‘उनको (महिलाओं को) वापस भेजो’ का नारा साझा मूल्यों के खिलाफ नस्लवाद का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन था. 2015 से ये नजारे ट्रम्प की रैलियों का हिस्सा रहे हैं.

लेखक लिखते हैं कि ट्रम्प की रैली कोई लिंचिंग करने वाली भीड़ नहीं थी, लेकिन इस रैली को देखकर दिमाग उस युग की ओर लौटने को मजबूर होता है, जिसे ‘लिंचिंग का युग’ कहा जाता है.

फिल्म पेरिस टेक्सास का जिक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि 1893 में मानसिक रूप से दिव्यांग अश्वेत किशोर को जिंदा जला दिया गया था. 10 हजार लोगों की श्वेत भीड़ ने उसकी परेड कराते हुए, उस पर जुल्म ढाते हुए सबके सामने केरोसिन छिड़कर उसे जिंदा जला दिया था. भीड़ नारे लगा रही थी और उस नजारे का लुत्फ उठा रही थी.

लेखक ने कई लेखों के हवाले से बताया है कि अमीर लोगों में जितना नस्लवाद है उससे कहीं ज्यादा निचले तबके में है. अश्वेतों को वोट का अधिकार, शिक्षा तक छीन लिए जाते हैं, उन्हें ट्रेड यूनियन का अधिकार नहीं मिलता और यहां तक कि पड़ोस में रहने तक नहीं दिया जाता. ऐसे प्रदर्शन इसलिए हो पा रहे हैं क्योंकि डोनाल्ड ट्रम्प का इन्हें समर्थन है. उनकी राजनीति उनकी ताकत है.

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मुखौटा हैं इमरान

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि कुलभूषण जाधव मामले में फैसले के बाद भारतीय न्यूज चैनल पर पाकिस्तानी पत्रकार ने 26/11 के लिए ‘डीप स्टेट’ को जिम्मेदार बताया. कुरेदे जाने पर उसने साफ किया कि भारत के ‘डीप स्टेट’ की ओर उसका इशारा है. पाकिस्तान में सेना, मौलाना और सरकारी अधिकारी के समूह के हस्तक्षेप से, जो समांतर हुकूमत चलती है उसे ही ‘डीप स्टेट’ कहा जाता है, मगर भारत में यह वास्तविकता से परे है.

लेखिका का मानना है कि भारत में कुछ कांग्रेसियों ने 26/11 हमले को लेकर आरएसएस का हाथ बताना शुरू किया था, उसे ही पाकिस्तान के कुछ लोग भारत में ‘डीप स्टेट’ की मौजूदगी मानते हैं.

लेखिका लिखती हैं कि इमरान-बाजवा की अमेरिकी यात्रा में असली बातचीत बाजवा से होनी है. इमरान महज मुखौटा हैं. वे इलेक्टेड नहीं सेलेक्टेड प्रधानमंत्री हैं. जाधव पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले के बाद इमरान खान और नरेंद्र मोदी के ट्वीट का जिक्र कर लेखिका तवलीन लिखती हैं कि इमरान यह कहकर खुश हैं कि जाधव की रिहाई का आदेश नहीं हुआ और न ही भारत को सौंपने का. वहीं, मोदी की खुशी की वजह है कि जाधव की फांसी रुक गयी.

वास्तव में इमरान की प्रतिक्रिया अहमियत नहीं रखती, क्योंकि वे मुखौटे हैं. भारतीय प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया की अहमियत है क्योंकि वे चुने हुए हैं.

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