गठबंधन की गांठें
जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी सरकार से बीजेपी के समर्थन वापस लिये जाने के बाद यह सवाल उठने लगा है कि आखिर इस तरह के गठबंधन का क्या भविष्य है. बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं- जो विविध शक्तियां नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर करने के लिए कोशिश कर रही हैं. उन्हें विपक्षी एकता का महत्व समझ में आ चुका है. लेकिन जम्मू-कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी का यह अलगाव दिखाता है कि अक्सर गठबंधन बनाना आसान होता है लेकिन उसे बरकरार रखना मुश्किल.
नाइनन लिखते हैं - अल्पमत सरकारों ने गठबंधन की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है. इंदिरा गांधी की सन 1969 के बाद की सरकार, नरसिंह राव की सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार, सभी अल्पमत में थीं लेकिन बची रहीं और उन्होंने बहुत अच्छा काम किया. ये उदाहरण बताते हैं कि सन 2019 के आम चुनाव में और उसके बाद विपक्षी गठबंधन की संभावनाएं बहुत उज्ज्वल नहीं हैं.
अहम बात यह है कि गठबंधन सरकार में प्रमुख दल की मजबूती की अहम भूमिका होती है. वह स्वाभाविक तौर पर समूह का नेता और उसे जोड़े रखने वाला होता है. इनके अलावा एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है जो जटिल हालात में भी परिस्थितियों पर काबू रख सके. चूंकि ऐसा नेता भी नहीं है इसलिए इस बात पर दांव होगा कि मोदी विरोधी सरकार बनी भी तो बीजेपी-पीडीपी सरकार से ज्यादा नहीं चलेगी. उसके बाद क्या सन 1980 में इंदिरा गांधी की तरह मोदी की भी वापसी होगी?
चंदा कोचर की वापसी मुश्किल
वीडियोकॉन लोन मामले में चंदा कोचर को आईसीआईसीआई बैंक बोर्ड ने छुट्टी पर भेज दिया है. उनके खिलाफ जांच चल रही है. इस मामले पर हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखे अपने लेख में उदयन मुखर्जी ने मैकिंजी के पूर्व चीफ रजत गुप्ता का जिक्र किया है, जिनसे वह हाल में वह साउथ दिल्ली के कैफे में मिलने गए थे. मुलाकात के दौरान कभी सेलिब्रिटी माने जाने वाले रजत इधर-उधर देख रहे थे कि कोई उन्हें पहचान न ले. हर कोई जानता है कि वित्तीय धोखाधड़ी के मामले में वह जेल जा चुके हैं.
उदयन लिखते हैं- चंदा कोचर गुप्ता की तरह जेल तो नहीं जाएंगीं लेकिन लगता नहीं है कि दोबारा आईसीआईसीआई बैंक लौट पाएंगीं. चंदा कोचर की कथित गड़बड़ी का जिक्र करते हुए वह कहते हैं- आखिर करियर के शिखर पर पहुंच कर लोग इस तरह की भीषण गलतियां क्यों करते है. क्या वह उन पर नजदीकी लोगों के निजी अहसान चुकाने का दबाव होता है या सिर्फ अहंकार कि अब वे ऐसी जगह पहुंच चुके हैं आप कुछ भी करके आसानी से निकल सकते हैं.
कोचर के शानदार करियर का अंत मिथकीय आइकरस की तरह है जो सूरज के इतना नजदीक चला गया कि उसने अपने पंख जला लिये. किसी के तीन दशक के करियर को तुलनात्मक तौर एक छोटी से गलती से आंकना थोड़ा कठोर लगता है लेकिन धन, कद और प्रशंसा उन कीमतों के साथ आती है जिन्हें चुकाना पड़ता है.
बदलनी होगी कश्मीर की स्क्रिप्ट
जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात पर टिप्पणी करते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने लिखा है- फौरी तौर पर केंद्र सरकार यह सोच रही होगी कि गर्मियों का मौसम वह टेरर अटैक और विरोध (पत्थरबाजी) समेत अन्य तरह की मुश्किलों का सामना करते हुए निकाल लेगी. लेकिन मौजूदा हालात को देख कर ऐसा संभव नहीं लगता.सीमा पार टेररिस्ट कैंपों पर सरकार अटैक कर सकती है.
बहरहाल सर्दियों से पहले आतंकी गुटों को कमजोर करने और राज्य में विरोध प्रदर्शनों को काबू कर सरकार तीन राज्यों और फिर लोकसभा चुनाव से पहले अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत कर सकती है. इसके बाद टेक्नोक्रेट्स के सहारे सरकार चलाने की कोशिश करते हुए कल्याणकारी योजनाएं शुरू की जा सकती हैं. लेकिन यह स्ट्रेटजी भी काम न करे तो सरकार को बातचीत के लिए रास्ता खोलना पड़ सकता है.
चाणक्य लिखते हैं कि सरकार अपनी फौरी स्ट्रेटजी के जरिये तीन-चार महीने तक हालात काबू करने की कोशिश करेगी, जब तक सर्दियां न आ जाए.लेकिन जम्मू-कश्मीर की स्क्रिप्ट बदलती नहीं दिखती.
जम्मू-कश्मीर के लोग स्थानीय नेताओं, हुर्रियत, आतंकवादियों और सिक्यूरिटी फोर्सेज के बीच फंसे हैं. उन्हें इस हालात से निकालने के लिए केंद्र को लांग स्ट्रेटजी बनाने और इसमें सफल होना होगा.इसके लिए भारत और पाकिस्तान दोनों जगह मजबूत सरकार की जरूरत होगी. केंद्र और राज्य के स्थानीय नेताओं से बातचीत की जरूत है. इसमें नाकामी से कश्मीर आशा, निराशा, हिंसा और त्रासदी के बीच झूलता रहेगा.
कश्मीर की औरतों की सुनो
हिन्दुस्तान टाइम्स में ललिता पणिकर ने लिखा है कि कश्मीर के विमर्श में उन महिलाओं को भुला दिया जाता है जो अशांत और संघर्ष से घिरे राज्य में शारीरिक और मानसिक यंत्रणाओं से जूझ रही हैं . पणिकर लिखती हैं कि न सिर्फ इन महिलाओं की त्रासदियों को समझने की जरूरत है बल्कि इन्हें खत्म करने के लिए कदम भी उठाए जाने की दरकार है.
कश्मीर में हालात बेहद खराब रहे हैं इसका सबसे ज्यादा खामियाजा वहां की महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है. महिलाओं के लिए जिंदगी की साधारण नेमतों का लुत्फ उठाना मुश्किल है. शाम को किसी सिनेमाघर में जाना मॉल में घूमना, सबनामुमकिन सा होता जा रहा है. वो घरों की चारदीवारी में बंद होकर रह गई हैं. उथलपुथल और हिंसा के इस दौर में उनका दम घुट रहा है. उग्रवाद बढ़ने से उनमें सुसाइड की संख्या बढ़ी है और मानसिक बीमारी से ग्रस्त महिलाओं की तादाद बढ़ी है.
पणिकर लिखती हैं- कश्मीर को लेकर व्यापक बहस के बीच मैंने कभी किसी वार्ताकार या राजनीतिक नेता को राज्य की महिलाओं के मानसिक तनाव और ट्रॉमा के बारे में बाते करते नहीं सुनीं. वे जिन हालातों में रह रही है,उनसे निकालने या उनकी जिंदगी बेहतर करने की कोई तजवीज नहीं सुनी.
ऐसे नायकों के जज्बे को सलाम
फीफा वर्ल्ड कप में भारत की भागीदारी न होने से सीनियर कॉलमनिस्ट शोभा डे निराश हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया में छपने वाले अपने कॉलम में वह लिखती हैं- भारत में भले ही मेसी जैसे नायक न हों लेकिन यहां दूसरे तरह के हीरो हैं, जिनका स्वागत किया जाना चाहिए. उन्होंने 17 साल सुदीक्षा भाटी की ओर ध्यान दिलाया है जो एक चाय बेचने वाली की बेटी हैं और जिन्होंने विदेश में पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप हासिल की है. सुदीक्षा की उपलब्धियों की तारीफ करते हुए शोभा कहती हैं इस बात पर मंथन की जरूरत है कि भारत की प्रतिभाएं हर फील्ड में उपलब्धिया क्यों हासिल नहीं कर पा रही हैं. जबकि अपने यहां प्रतिभाओं की कमी नहीं है.
शोभा लिखती हैं- देश के एजुकेशन और स्पोटर्स ट्रेनिंग में भारी सुधार की जरूरत है.जब तक अपने यंगस्टर्स को अपने बारे में सोचने और पुराने तरीकों से निकलने के लिए प्रेरित नहीं करेंगे तब तक हम श्रमिक ही पैदा करते रहेंगे थॉट लीडर्स नहीं. एजुकेशन सिस्टम का क्या हाल है यह सुदीक्षा की कहानी से साबित हो जाता है. तमाम अड़चनों के बावजूद इस तरह की प्रतिभाएं जबरदस्त प्रदर्शन करती हैं. दुर्भाग्य यह कि भारत में स्पेस है, पैसा है और हर फील्ड में बेहतर करने के मौके. लेकिन सिस्टम ऐसा है कि ये अवसर हाथ से निकल जाते हैं.
इसे झेलने को मजबूर हैं युवा
भारत में बेरोजगार युवकों का हुजूम नौकरी के लिए इंटरव्यू देते जाते समय जिन कठिनाइयों से गुजरता है और जिस तरह उनकी दिक्कतों से नजरें फेरी जाती हैं इसका जीवंत ब्योरा राजीव सिंह ने अमर उजाला में लिखे लेख में दिया है- उन्होंने यूपी में पुलिस भर्ती के दौरान भारी यंत्रणाओं से गुजरते युवाओं और पीसीएस पेपर में गलत पेपर खुलने का विरोध करते युवाओं पर लाठीचार्ज जैसे उदाहरणों का उदाहरण देते हुए लिखा है कि वैसे तो युवा शक्ति के हित की बातें देश में बहुत होती हैं लेकिन हाल में दिखी कुछ तस्वीरें ये हालात बयान करती हैं कि हम युवाओं के प्रति कितने संवेदनहीन हैं.
न तो कभी सत्ता में बैठे लोग और न ही कोई राजनेता इस पर बात करना चाहता है और न ही प्रशासनिक अमला इसके सुधार के लिए कोई कदम उठाना चाहता है. ये मान लिया जाता है कि इस देश के युवाओं को तो यह सब सहना ही होगा. इन युवाओं के मां-बाप की चिंता तो शायद नौकरी मिल जाने से ज्यादा अपने बच्चों के सुरक्षित घर लौट आने की होती है. देश में धर्म के आधार पर वैमनस्य, मंदिर-मस्जिद, दलित-सवर्ण संघर्ष, गाय की रक्षा जैसे इतने ‘ज्वलंत’ मुद्दे हैं कि इन युवाओं की तकलीफों और उनकी सुरक्षा की तरफ सोचने की फुरसत किसी के पास नहीं है.
मोदी, कुमारस्वामी की मुलाकात से कांग्रेस डरी
और आखिर में कूमी कपूर की बारीक नजर. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम इनसाइडर ट्रैक में वह लिखती हैं- पीएम नरेंद्र मोदी से कर्नाटक के सीएम एचडी कुमारस्वामी की दो लंबी मुलाकातों से कांग्रेस का शक बढ़ता जा रहा है.
कुमारस्वामी की एक निजी मुलाकात कावेरी के पानी के बंटवारे को लेकर थी दूसरी राज्य की विकास परियोजनाओं को लेकर. लेकिन कांग्रेस को जिस चीज ने चौंकाया वह यह कि मोदी ने सीएम कांफ्रेंस में शामिल दूसरे मुख्यमंत्रियों को मिलने का समय नहीं दिया. लेकिन कुमारस्वामी से वह मिले.
कांग्रेस का मानना के कर्नाटक के सीएम ऐसा करके कांग्रेस पर दबाव बनाना चाहते हैं कि अगर उन पर दबाव बढ़ा तो वह नीतीश कुमार की तरह पाला बदल सकते हैं. हाल में कर्नाटक के बजट को लेकर कांग्रेस और जेडीएस में भिड़ंत हो चुकी है. ऐसे मामलों को बीच कुमारस्वामी की मोदी से मुलाकात कांग्रेस को डरा रही है.
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