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संडे व्यू: पीएम मोदी के लिए सबसे बुरा हफ्ता, बेकाबू अर्थव्यवस्था 

सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स. 

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पीएम नरेंद्र मोदी का सबसे बुरा हफ्ता

इंडियन एक्सप्रेस के फिफ्थ कॉलम में तवलीन सिंह ने बीते सप्ताह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सबसे बुरा हफ्ता करार दिया है. वह लिखती हैं कि ऐसा इसलिए नहीं कि शीर्ष खुफिया अधिकारियों को उनके बीच ‘डॉग फाइट’ के बाद छुट्टी पर भेजना पड़ा या सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में आकर व्यवस्था देनी पड़ी. बल्कि, इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री ने सीबीआई संकट को बहुत भद्दे तरीके से हैंडल किया.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि आधी रात की जो पैंतरेबाजी हुई है उसके लिए जिम्मेदार अगर प्रधानमंत्री नहीं हैं तो जो कोई भी है, उन्हें सामने लाया जाना चाहिए और दंडित किया जाना चाहिए. अगर पीएम सोचते हैं कि वे चुप रहकर राजनीति की चक्की में पिसने से बच जाएंगे, तो वे गलत हैं. तवलीन लिखती हैं कि यह उनकी संवाद करने की क्षमता ही थी कि 2013-14 में जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया. मगर, अब यही उनके नेतृत्व की बड़ी कमजोरी बनती दिख रही है.

राहुल गांधी का जिक्र करते हुए तवलीन सिंह लिखती हैं कि बार-बार देश का ‘चौकीदार चोर है’ कहते हुए प्रेस कॉन्फ्रेन्स करने वाले राहुल गांधी बच्चे जैसे लगते हैं और यह मोदी का सौभाग्य है कि मीडिया उन्हें ही विपक्ष का नेता के तौर पर दिखाता है. अगर कोई गम्भीर नेता होता, तो मुश्किल बड़ी हो सकती थी. तवलीन ने लिखा है कि मोदी की चुप्पी ने ही उन पर व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार के आरोप लगाने का मौहाल बनाया है. पीएम मोदी के कार्यकाल में इससे अधिक बुरे समय के बारे में नहीं सोचा जा सकता.

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व्यक्तिगत उपलब्धि से परे होता है नेतृत्व

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली के वनडे में 10 हजार रन पूरे होने पर लिखा है कि नेतृत्व का संबंध व्यक्तिगत उपलब्धि से नहीं होता. वह लिखते हैं कि मीडिया ने इस तथ्य के बावजूद विराट की उपलब्धि को सुर्खियों में रखा कि रणजी के स्तर वाली वेस्टइंडीज टीम के साथ टाई करने के अलावा कोई उपलब्धि भारतीय टीम के पास नहीं थी.

क्रिकेट के दोनों प्रमुख फॉर्मेट में विराट कोहली टॉप फाइव में बने हुए हैं. कप्तान के रूप में उनका प्रदर्शन शानदार है. कप्तानी करते हुए चाहे वनडे हो या टेस्ट क्रिकेट, विराट कोहली का व्यक्तिगत प्रदर्शन भी सुधर जाता है. इन सबके बावजूद अगर कोहली के पास सर्वकालिक महान टीम नहीं दिखी है तो इसकी वजह यही है कि कोहली कभी भी लगातार दो मैचों में समान खिलाड़ियों वाली टीम का नेतृत्व नहीं कर सके हैं.

चाणक्य लिखते हैं कि एक टीम किसी संस्था की तरह होती है. इसी तरह बेस्ट टीम भी बेस्ट ऑर्गनाइजेशन जैसी होती है. अच्छा नेतृत्व तीन बातों पर गौर करता है क्षमता, मोटिवेशन और रणनीति. आधुनिक क्रिकेट में अब यह टैलेंट, फिटनेस और ट्रेनिंग के साथ-साथ एटीच्यूड, मोटिवेशन और स्ट्रेटजी में बदल गया है.

अच्छा लीडर वही हो सकता है जो अपनी सीमाओं को जानें और अपने काम पर ध्यान दे. कोहली के मामले में न उनका व्यक्तिगत प्रदर्शन और न उनकी कप्तानी पर कोई सवाल है. उन्हें बस लोगों को मैनेज करना है और विरोधियों को दूर धकेलना है. वे इस बात को जितनी जल्दी समझ लेंगे, उतनी ही जल्दी भारत को महानतम कप्तान के रूप में वे स्थायी निधि माने जाएंगे.

जब तोता बोलने लगा ‘राफेल-राफेल’

टाइम्स ऑफ इंडिया में शोभा डे ने पिंजरे में बंद तोते और तोतों की कहानी बताते हुए सीबीआई के भीतर ताजा विवाद को सामने रखा है. लेखिका ने उन सभी परिस्थितियों का जिक्र किया है जब मालिक ने अतीत में सोने के पिंजरे में बंद तोते को कभी किसी किस्म की कमी नहीं होने दी. जो मांगा, वो खाने को दिया. बदले में देश-विदेश से आने वाले लोगों के बीच मालिक की धुन पर तोता नाचता रहा. वही बोला जो उसे मालिक ने सिखाया. दुनिया भी तोते को देखकर वाह-वाह करती रही.

शोभा डे लिखती हैं कि समय बदला तो तोते को अहसास हुआ कि दूसरे पक्षी अच्छा खाते हैं, बेहतर रहते हैं. वैसी ही परिस्थिति, वैसा ही भोजन काश उसे भी मिलता! तोते ने अपनी पसंद की फेहरिस्त मालिक के पास रख दी. मालिक समझ गया कि तोता लालची हो चला है. उसने उसके बगल में ही कई और सोने के पिंजरे और तोते ला दिए. वे तोते और भी बेहतर तरीके से मालिक की धुन पर डांस कर सकते थे. देशी-विदेशी मेहमानों के बीच सिखाए गये शब्दों को दोहराकर वाहवाही लूट सकते थे. उसके बाद तोते में ईर्ष्या आ गयी. वह छटपटाने लगा, मालिक से नाराजगी दिखलाने लगा.

कहानी आगे बढ़ाती हुए शोभा डे लिखती हैं कि मालिक ने अब उसका पहले वाला भोजन भी बंद कर दिया. इस बीच देशी-विदेशी आगन्तुकों के बीच तोते ने ‘राफेल’ जैसे शब्दों का उच्चारण सीख लिया था. वह वही दोहराने लगा. मालिक उस तोते को जहर देकर मार भी सकता था. मगर, बात लीगल नाम के इगल तक पहुंच चुकी थी. इसलिए राज खुलने का डर था. इस बीच नयी परिस्थिति ये बनी कि नये तोतों की हालत और भी बदतर हो गयी है. पुराने को वादा किया गया है कि और भी बड़ा और सुनहरा पिंजरा दिया जाएगा जहां बेहतर भोजन और माहौल मिलेगा.

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बुरा दौर, बेकाबू अर्थव्यवस्था

इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदम्बरम ने भारतीय अर्थव्यवस्था की बुरी स्थिति को बयां करने के लिए जिस मुहावरे का इस्तेमाल किया है वह है, ‘बुरा वक्त अकेले नहीं आता’.उन्होंने एक के बाद एक बुरी खबरों की बारिश गिनाई है. वह लिखते हैं कि शेयर बाजार में ट्रेडिंग 15 महीने पहले के स्तर पर पहुंच चुका है जबकि विदेशी निवेशक इस साल अब तक 96 हज़ार करोड़ रुपये निकाल चुके हैं. रुपये में इस साल 16 प्रतिशत की गिरावट हो चुकी है और खाड़ी देशों में उथल-पुथल के बीच क्रूड ऑयल की कीमत 77 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर पहुंच चुकी है.

चिदम्बरम ने लिखा है कि रुपया गिर रहा है, कीमतें बढ़ रही हैं. आम लोगों के पॉकेट में बड़ा छेद हो चुका है. देश के 36 प्रतिशत जिलों में बारिश कम हुई है, किसानों में बगावत की स्थिति है. न्यूनतम समर्थन मूल्य दे पाने में बाजार असमर्थ दिख रहा है. व्यापारिक निर्यात चार साल पहले 315 बिलियन डॉलर था, इस बार शुरुआती छह महीने में बमुश्किल 160 अमेरिकी डॉलर पहुंच सका है. जुलाई-सितम्बर में केवल डेढ़ लाख करोड़ के निवेश प्रस्ताव ही आ सके थे, जबकि 5,349 प्रॉजेक्ट पर कामकाज बंद है. उद्योगों को कर्ज में वृद्धि की दर 1.93 फीसदी तक पहुंच चुकी है. वहीं बैंकों का एनपीए 10 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है.

पूर्व वित्तमंत्री लिखते हैं कि सितम्बर 2018 में सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक बेरोजगारी की दर 6.6 प्रतिशत है जो अगस्त में 6.3 प्रतिशत थी. टैक्स राजस्व में भारी गिरावट, विनिवेश कार्यक्रम का रुक जाना, सरकारी कार्यक्रमों के लिए फंड की कमी जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी दिख रही है. इन सबके बीच चिदम्बरम चिन्ता जताते हैं कि आज देश के पास कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर का अर्थशास्त्री सलाहकार के रूप में नहीं है. चिदम्बरम अपनी बात यह कहते हुए ख़त्म करते हैं कि केन्द्र के हाथ से स्थिति निकलती जा रही है.

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ट्विंकल खन्ना को याद आए स्कूल के दिन

टाइम्स ऑफ इंडिया में ट्विन्कल खन्ना ने अपने स्कूली दिनों का रोचक संस्मरण लिखा है. ‘द केमिस्ट्री आई शेयर्ड विद फ्रेडी मर्करी’ नाम से लिखे इस संस्मरण में ट्विन्कल ने हिल स्टेशन पंचगनी को तीन कारणों से यादगार बताया है- बोर्डिंग स्कूल, स्ट्रॉबेरी और फ्रेडी मर्करी. ये तीनों चीजें आज भी एक पेन्टेड बिलबोर्ड में दिख जाती हैं जिससे एक दाढ़ी वाले चश्मा पहने हुए इंसान सड़क की ओर देख रहे होते हैं. उस बिल बोर्ड पर लिखे शब्दों से जोड़ते हुए ट्विंकल खन्ना ने करिश्माई टीचर पीटर पैट्राओ को याद किया है जिन्हें अब लोग पीटर बाबा के नाम से जानते हैं.

फेसबुक के माध्यम से अपनी बाल सखाओं के सम्पर्क में आने का जिक्र करते हुए ट्विन्कल लिखती हैं कि किस तरह बोर्डिंग लाइफ में तीन बाथरूम को शेयर करने के लिए 40 लड़कियां हुआ करती थीं. अब ट्विन्कल सबकुछ शेयर कर सकती हैं लेकिन बाथरूम नहीं. यहां तक कि अपने पति के साथ भी नहीं. फ़िल्म टॉयलेट-एक प्रेम कथा का डायलॉग उनके जीवन की सच्चाई है

ट्विन्कल ने लिखा है कि पीटर ऐसे शिक्षक थे जो कविता के रूप में केमिस्ट्री पढ़ा दिया करते थे. पास के गांव के लोगों को भी उन्होंने स्ट्रॉबेरी की खेती सिखलायी. 2012 में उनकी मौत हो गयी लेकिन उन्हें कोई कभी भुला नहीं सकता. फ्रेडी मर्करी भी उन्हीं दिनों के स्कूल ब्वॉय का किस्सा हैं. यह नाम उन्होंने खुद को दिया था चूकि लोग उन्हें कुछ और नाम से न चिढ़ाएं. ट्विन्कल ने बताया है कि किस तरह पीटर बाबा बातों-बातों में ही सेक्स से जुड़ी शिक्षा भी दे दिया करते थे.

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वायरस से भी खतरनाक है नफरत

द हिन्दू में ताबिश खैर ने नफरत और वायरस के बीच अद्भुत समानता दिखलायी है. ये दोनों ही धर्म, भाषा, संस्कृति और पहचान के कारण भेदभाव नहीं करते. सबको समान रूप से अपना ठिकाना बना लेते हैं. लेखक ने गुजरात में हिन्दी भाषी लोगों के खिलाफ नफरत का जिक्र करते हुए दावा किया है कि यह मुसलमानों के लिए वायरस बनी नफरत का ही रीप्रोडक्शन है.

लेखक ताबिश खैर का कहना है कि वायरस और नफरत दोनों को ही जीवित या मृत घोषित नहीं किया जा सकता. अतीत और वर्तमान की हिंसा में यह नफरत जिन्दा दिखती है. वायरस की तरह यह जीवित लोगों में खुद को बढ़ाती रहती है. लेखक सुझाव देते हैं कि व्यक्ति अपने शरीर में वायरस को जगह देने से रोकने का उपाय करे क्योंकि वह दूसरों के शरीर में इसे पलने-बढ़ने से नहीं रोक सकता.

ताबिश नफरत को इस मायने में वायरस से भी बुरा बताते हैं क्योंकि इसे मिटाने के लिए हर तरह के नफरत को मिटाना जरूरी होता है. अगर आप मुसलमानों या ईसाइयों के लिए नफरत का भाव रखते हैं तो जल्द ही आप बंगाली-बिहारी, ग्रामीण-किसान, महिला-होमोसेक्सुअल्स और इसी तरह नफरत को बढ़ाते दिखेंगे. वे लिखते हैं कि सभी राजनीतिक दलों को, सभी लोगों को यह बात बारम्बार याद दिलाने की जरूरत होगी कि वे अपने आप से नफरत रूपी वायरस को खत्म करने की कोशिश करें.

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आजाद भारत में नहीं मिला आजाद हिन्द फौज को सम्मान

डीएनए में अनन्त कार्तिकेयन ने सुभाष चंद्र बोस को याद करते हुए उनकी बनायी आजाद हिन्द फौज का जिक्र किया है. वह लिखते हैं कि सुभाष चंद्र को भरोसा था कि जर्मनी भारत की आजादी में मदद करेगा. हिटलर ने सुभाष का स्वागत किया था और सुभाष की भारतीय सरकार को मान्यता दी थी. कार्तिकेयन लिखते हैं कि भारतीय युद्धबंदियों को आजाद हिन्द फौज के लिए जर्मनी ने मुहैया कराया. समारोहपूर्वक 5 हजार भारतीय युद्धबंदी सुभाष की मौजूदगी में उनकी फौज का हिस्सा बने.

अनन्त कार्तिकेयन ने लिखा है कि जब जर्मनी ने रूस पर हमला कर दिया, तो वाम रुझान वाले सुभाष चंद्र बोस अवाक रह गए. 1942 आते-आते उत्तर अफ्रीका और लेनिग्राद की लड़ाई में जर्मनी को करारी हार का सामना करना पड़ा. उसके बाद सुभाष ने जर्मनी छोड़ने में ही भलाई समझी. मगर, अपनी सैन्य टुकड़ी को भगवान भरोसे छोड़ दिया. यह सैन्य टुकड़ी मित्र राष्ट्र की सेना का कोपभाजन बनी.

लेखक ने कहा है कि ब्रिटिश आर्मी के सुपुर्द होने के बाद भारतीय सैनिकों पर मुकदमे चले. भारत के आजाद होने के बाद ये मुकदमे वापस ले लिए गये, लेकिन सुभाष की सेना को भारत में सम्मान नहीं मिल सका. वह सम्मान भी नहीं मिला, जो सुभाष चंद्र बोस की ही इंडियन नेशनल आर्मी यानी आईएनए को मिला था. यहां तक कि उन सैनिकों को भारतीय सेना में भी जगह नहीं मिली. लेखक सवाल उठाते हैं कि आजाद हिन्द फौज के उन सैनिकों को क्या कभी सम्मान मिलेगा?

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