कपिलदेव : ऑलटाइम ग्रेटेस्ट इंडियन क्रिकेटर
रामचंद्र गुहा ने अमर उजाला में कपिलदेव के 60 साल पूरे होने पर उन्हें सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ भारतीय क्रिकेटर घोषित किया है. कपिलदेव के साथ मंच साझा करने के एक मौके की याद दिलाते हुए गुहा ने अपने उस भाषण को याद किया, जिसमें उन्होंने कपिलदेव के पहले मैच से लेकर पाकिस्तान के खिलाफ मैच में उनकी एक-एक गेंद और बल्ले के खेल का वर्णन है.
1983 के विश्वकप के दौरान विव रिचर्ड्स का कैच लेते हुए उनके मुस्कुराने का भी उन्होंने जिक्र किया है और उस पर कपिलदेव के जवाब का भी, कि उनकी निकली हुई दांत हमेशा उन्हें मुस्कुराते व्यक्ति के रूप में महसूस कराती है.
कपिल के ऑलराउंडर होने को चुनौती देने की क्षमता रामचंद्र गुहा न सचिन तेंदुलकर में देखते हैं न विराट कोहली में, उनका कहना है कि वीनू मांकड़ ही उनके वास्तव में प्रतिद्वंद्वी थे. उन्हें द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण अहम मौके पर अधिक खेलने का मौका नहीं मिला. वह केवल 44 टेस्ट खेल सके. उस समय अगर वनडे जैसे खेल होते तो मांकड़ और शानदार खेल दिखा सकते थे. रामचंद्र गुहा ने कपिल को सर्वकालिक महान भारतीय क्रिकेटर घोषित किया है.
CBI: पिंजरे के तोते के पर भी कतरे
हिन्दुस्तान टाइम्स में बरखा दत्त ने लिखा है कि कांग्रेस राज में सीबीआई को बंद पिंजरे का तोता कहा जाता था, मगर अब मोदी राज में इसके पंख भी कतर दिए गये हैं. उन्होंने लिखा है कि जैसी हड़बड़ी आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के मामले में ‘आधी रात का ड्रामा’ में दिखी थी, वैसी ही जल्दबाजी सीबीआई डायरेक्टर के तबादले में भी दिखी.
सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को दोबारा सशर्त उनके पद पर इसलिए बिठाया क्योंकि उन्हें हटाए जाने के मामले में प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया.
बरखा दत्त लिखती हैं कि माना जा रहा है कि पद पर बहाली के बाद वर्मा राफेल से लेकर मेडिकल एडमिशन घोटाला, एयर एशिया मामला जैसे मसले को भी उठाने जा रहे थे. उन्होंने पद संभालते ही डॉ अस्थाना की जांच कर रहे सभी अफसरों को वापस इकट्ठा कर लिया था. इन वजहों से भी सरकार को जल्दबाजी दिखानी पड़ी. कांग्रेस ने भी कभी आलोक वर्मा की नियुक्ति का विरोध किया था, अब उनके समर्थन में पार्टी खड़ी दिख रही है. सार ये है कि राजनीति के मैदान में सीबीआई एक बार फिर फुटबॉल बनी नजर आई.
आरक्षण नहीं, आत्मरक्षा के लिए संविधान संशोधन
जनसत्ता में पी. चिदम्बरम लिखते हैं कि 124वें संविधान संशोधन को बीजेपी की सरकार ने खौफ में आकर अंजाम दिया है. इसे अंजाम देने में 48 घंटे भी नहीं लगे. वह याद दिलाते हैं कि संविधान बनाने से लेकर इसमें पहले संशोधन तक में कितना अधिक समय लगा था. सैद्धांतिक रूप से संशोधन बिल का समर्थन करते हुए चिदम्बरम ने वैधानिक और नैतिक रूप से इसे संदिग्ध बताया है.
आठ लाख की सीमा पर सवाल उठाते हुए उन्होंने जानना चाहा है कि यह आधार कैसे लिया गया, जिसमें देश की 90 फीसदी आबादी आ जाती है. ऐसे में वास्तव में जरूरतमंद 20 फीसदी गरीब लोगों को आरक्षण का फायदा कैसे मिलेगा? लगातार घटती नौकरियों के संदर्भ में भी चिदम्बरम ने इस कानून को बेमकसद बताया है. उन्होंने लिखा है कि यह विधेयक आरक्षण के लिए नहीं, आत्मरक्षा के लिए.
धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी की घर वापसी का सवाल
स्वनदास गुप्ता ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि विभाजन के दौरान जो लोग गलत तरीके से सीमा की दूसरी ओर रह गए, उनके प्रति जिम्मेदारी का निर्वाह करना जरूरी है. हालांकि, उन्होंने इसके लिए भारत सरकार की ओर से उठाए गये कदम के बाद असम की प्रतिक्रिया का सम्मान करने की भी बात कही है. स्वपन दासगुप्ता ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश और किसी हद तक अफगानिस्तान से भी, जिन धार्मिक अल्पसंख्यकों को खदेड़ा गया है वे वहां के लिए अवांछित हो गये और उन्होंने बसने के लिए भारत की ओर देखा.
पाकिस्तान में यह समस्या इसलिए नहीं है क्योंकि वहां से धार्मिक अल्पसंख्यकों को खदेड़ दिया गया. बांग्लादेश में भी स्थिति वैसी ही है. मगर, भारत की स्थिति अलग है. भारत ने नागरिकता अधिनियम में जो संशोधन किया है उसमें ‘घर लौटने’ का प्रावधान किया गया है. असम गण परिषद ने इसके विरोध में एनडीए का साथ छोड़ दिया है. इसी विषय पर मेघालय के मुख्यमंत्री ने भी नाराजगी का इजहार किया है. असम को आशंका है कि भारत सरकार के फैसले से उनके प्रदेश की डेमोग्राफी बदली दी जा सकती है.
आरक्षण खत्म करने के बजाय बढ़ाया गया दायरा
जनसत्ता में तवलीन सिंह लिखती हैं कि 70 साल बाद भी जब आरक्षण की जरूरत बनी हुई है तो इसकी आवश्यकता ही क्या है. उन्होंने लिखा है कि आरक्षण का दायरा बढ़ाने का प्रावधान ऐसे समय में लाया गया जब वास्तव में आरक्षण को हटाने का प्रावधान लाया जाना चाहिए था. यह काम सरकार बनने के शुरुआती 100 दिनों में ही होना चाहिए था. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो आखिरी 100 दिन में ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती.
अपने अनुभवों के आधार पर तवलीन सिंह लिखती हैं कि विदेश में शिक्षण संस्थानों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं है और वे बहुत बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं भारत में नियुक्ति से लेकर सिलेबस तक में सरकार का हस्तक्षेप रहता है फिर भी शिक्षण संस्थानों की हालत बदतर है. वह पूर्व मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के हवाले से लिखती हैं कि देश को 1500 विश्वविद्यालय की आवश्यकता है. घटती सरकारी नौकरियां और उसे पाने वालों में बेतहाशा बढ़ोतरी का जिक्र करते हुए तवलीन सिंह लिखती हैं कि इन स्थितियों के रहते आरक्षण का दायरा बढ़ाने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि नौकरियां कहां से आएंगी?
करीब आने में झिझक रहे हैं भारत-पाक
इंडियन एक्सप्रेस में खालिद अहमद ने लिखा है कि करतारपुरा में सिख यात्रियों के लिए सीमाएं खोलकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान में लोकप्रियता हासिल की थी. और, अब उन्हें ऐसा लग रहा है कि मध्यावधि चुनाव कराकर और अधिक ताकतवर हों ताकि नीतिगत फैसले आसानी से लिए जा सकें. करतारपुरा की कूटनीति को गूगली बताने पर तब पाकिस्तानी विदेश मंत्री की सार्वजनिक खिंचाई हुई थी.
पाकिस्तान चाहता है कि भारत वहां निवेश करे और दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य हो, लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब दोनों देशों के बीच बातचीत में कश्मीर से ध्यान हटाया जाए.
खालिद अहमद लिखते हैं कि
भारतीय भी महसूस करते हैं कि मुशर्रफ ने जो रास्ता अपनाया था उस पर दोनों देश सहमत हो सकते हैं. एलओसी को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना जा सकता है.
मनमोहन सिंह के दौर में उस दिशा में सोचा जा रहा था.वहीं, वे यह भी लिखते हैं कि दोनों देशों के प्रधानमंत्री अपने-अपने देश में कट्टरपंथी ताकतों से भी घिरे हैं जो इस मार्ग में बाधा हैं. खालिद अहमद ने लिखा है कि लगातार यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भारत अपने पड़ोसियों के साथ सहज नहीं है. ऐसे में भारत के लिए सार्क को जिन्दा रखने की जरूरत और बढ़ गई है.
दो अहम विधेयकों पर नदारद विरोध
मुकुल केसवान ने द टेलीग्राफ ने लिखा है कि पिछले हफ्ते संसद में दो विधेयक लाए गए. एक संविधान में संशोधन का बिल था तो दूसरा पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी लोगों से जुड़ा था. एक बिल में सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघन है तो दूसरे बिल में भी धार्मिक आधार पर नागरिकता देने की बात. दोनों ही बातें नयी थीं. परम्परागत संवैधानिक आधार पर प्रतिकूल थीं.
मुकुल केसवान लिखते हैं-
दोनों ही मामलों में विरोध का पक्ष गायब दिखा. चुनाव वर्ष होने की वजह से विभिन्न राजनीतिक दलों ने समर्थन का रुख अपनाया. आरक्षण बिल पर तो विरोध की आवाज भी नहीं उठी, वहीं नागरिकता बिल पर जो असंतोष था उसे प्रकट होने का उचित मौका नहीं मिला.
लोकसभा से पारित होने के बाद यह बिल राज्यसभा में पेश नहीं हो सका. उम्मीद है कि बजट सत्र में इसे पारित कर लिया जाएगा.
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