उत्तराखंड के चमोली जिले में आई तबाही ने आठ साल पहले केदारनाथ में आई त्रासदी की यादें ताजा कर दी हैं. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड, जिसका अधिकतर हिस्सा संवेदनशील कहा जाता है, वहां ऐसी त्रासदियां ‘प्राकृतिक’ कही भले जाती हैं, लेकिन इनके पीछे कारण ‘मैन मेड’ ही होते हैं. चमोली में ग्लेशियर टूटने से आई बाढ़ के बाद तबाही का भयानक मंजर पैदा हुआ है. एक बार फिर अब एक्सपर्ट्स ने इसके लिए ऊंची पहाड़ियों और संवेदनशील इलाकों में ‘विकास’ को जिम्मेदार ठहराया है.
उत्तराखंड के चमोली में रैणी गांव के पास अचानक ग्लेशियर टूट गया. इसके टूटने के बाद पहाड़ों से तेज रफ्तार के साथ पानी नीचे उतरने लगा, पानी के साथ मलबा और पत्थर भी नीचे आए, जैसे-जैसे पानी नीचे की ओर बढ़ता गया, तबाही मचाता रहा. इस हादसे में अब तक 15 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, और 150 से ज्यादा लोग लापता हैं. प्रभावित इलाकों में रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है.
चारों तरफ हिमालय की पहाड़ियों से घिरे उत्तराखंड में कई डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं. इन प्रोजेक्ट्स को लेकर इससे पहले भी विवाद खड़े हो चुके हैं. पहले भी एक्टिविस्ट ने इन प्रोजेक्ट्स को पहाड़ के इकोसिस्टम के हिसाब से गलत बताया था.
1. चार धाम सड़क प्रोजेक्ट
उत्तराखंड के चार धाम यात्रा को लोगों के लिए सुगम बनाने के लिए सरकार नेशनल हाईवे का निर्माण कर रही है, जो कि केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में जोड़ेगा. टूरिज्म की दृष्टि से ये प्रोजेक्ट काफी महत्वकांक्षी है, लेकिन इस सड़क की चौड़ाई को लेकर विवाद जारी है और मामला सुप्रीम कोर्ट में है.
चारधाम सड़क प्रोजेक्ट में सड़क मंत्रालय ने अपने ही 2018 के सर्कुलर का पालन नहीं किया, जिसमें कहा गया है कि पहाड़ों पर सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर की होगी.
800 से ज्यादा किमी लंबे इस स्ट्रेच में 365 किमी सड़क का निर्माण 10 मीटर की चौड़ाई के साथ किया गया है. इतनी चौड़ी सड़क को लेकर एक्टिविस्ट ने आपत्ति जताई है. सितंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सड़क 2018 के सर्कुलर के हिसाब से ही बनाई जाएगी.
कोर्ट ने इसके बाद 21 सदस्यों की हाई-पावर्ड कमेटी (HPC) से रिपोर्ट सबमिट करने के लिए कहा था. इस रिपोर्ट में हालांकि एक्सपर्ट्स की राय बंटी हुई थी. ज्यादातर लोगों ने कहा कि कटी हुई सड़कों पर वापस पेड़ नहीं उगाया जा सकता, इसलिए निर्माण इसी चौड़ाई पर होना चाहिए. वहीं, कुछ सदस्यों का कहना था कि चौड़ी सड़क से संवेदनशील हिमालय क्षेत्र प्रभावित हो सकता है.
इस सड़क परियोजना में सरकारी निर्देशों को ताक पर रखा गया है. ब्लूमबर्ग क्विंट की दिसंबर 2020 की रिपोर्ट में, एनवायरमेंटल रिसर्चर मल्लिका भनोट ने बताया कि 100 किमी से ज्यादा के सड़क निर्माण के लिए एनवायरमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट (EIA) की जरूरत पड़ती है. इस प्रोजेक्ट को 53 छोटे प्रोजेक्ट्स में बांट दिया गया है और हर प्रोजेक्ट की लंबाई 100 किमी से कम है. भनोट ने कहा कि इसमें ऐसा दिखाया गया कि सभी सेक्शन अलग-अलग प्रोजेक्ट हैं और इसलिए इन्हें EIA की जरूरत नहीं है’
2. डैम का निर्माण लगातार जारी
उत्तराखंड में इन ‘प्राकृतिक त्रासदियों’ के पीछे डैम (बांध) के निर्माण को भी एक बड़ा कारण बताया जा रहा है. चमोली में बाढ़ के बाद ऋषिगंगा नदी पर बन रहा हाइड्रो प्रोजेक्ट पूरी तरह से नष्ट हो गया है. वहीं, तपोनव विष्णुगढ़ प्रोजेक्ट, विष्णुप्रयाग प्रोजेक्ट और पीपल कोठी प्रोजेक्ट को भी इससे नुकसान पहुंचा है.
2013 केदारनाथ बाढ़ के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में बांध के लिए एक कमेटी का गठन किया था. कमेटी ने सिफारिश में कहा था कि राज्य में और बांधों का निर्माण नहीं होना चाहिए. इसके बाद, अगस्त 2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में हाईड्रो-इलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी, लेकिन राज्य में निर्माण जारी है.
चमोली जिले में हुए हादसे के बाद, पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा कि केंद्रीय मंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान, उन्होंने हिमालयी क्षेत्र में बांध नहीं बनाने की सिफारिश की थी. उमा भारती ने लिखा,
“मैं जब मंत्री थी, तब अपने मंत्रालय के तरफ से हिमालय उत्तराखंड के बांधो के बारे में जो ऐफिडेविट दिया था, उसमें यही आग्रह किया था की हिमालय एक बहुत संवेदनशील स्थान है, इसलिए गंगा और उसकी मुख्य सहायक नदियों पर पावर प्रोजेक्ट नही बनने चाहिए.”
द टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2019 में, रैणी गांव के एक निवासी ने ऋषिगंगा हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट को लेकर उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक याचिका भी डाली थी. स्थानीय निवासी, कुंदन सिंह कहा कहना था कि प्रोजेक्ट में प्राइवेट कंपनी पहाड़ों पर खुदाई के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल कर रही है, जिसके कारण नंदा देवी बायोसफीयर रिजर्व के आसपास के संवेदनशील इलाकों को नुकसान पहुंचा है.
3. शिवालिक एलिफेंट रिजर्व का विवाद
उत्तराखंड में ‘विकास’ के लिए सरकार वहां के पूरे इकोसिस्टम को ताक पर रख रही है. इसका एक और उदाहरण है शिवालिक एलिफेंट रिजर्व का विवाद. देहरादून के जॉलीग्रांट एयरपोर्ट को बढ़ाने के लिए उत्तराखंड सरकार ने नवंबर 2020 में शिवालिक एलिफेंट रिजर्व की अधिसूचना रद्द कर दी थी. वहीं, देहरादून एयरपोर्ट को बढ़ाने के लिए 10,000 पेड़ों के काटे जाने की भी तैयारी है.
ये रिजर्व करीब 5 हजार किमी में फैला है. सरकार के आदेश के बाद कई पर्यावरणविद और स्थानीय लोगों ने इसका विरोध भी किया था. कई वकीलों ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से भी इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की थी, जिसके बाद हाईकोर्ट ने जनवरी 2021 में सरकार के अधिसूचना रद्द करने के आदेश पर रोक लगा दी है.
4. मलबा बन रहा बड़ी परेशानी
हिमालय क्षेत्र में पैदा हो रहे खतरों को लेकर क्विंट ने उत्तरकाशी में काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार शैलेंद्र गोदियाल से बातचीत की. गोदियाल ने क्विंट को बताया कि कैसे लगातार पैदा होते खतरे को नजरअंदाज किया जा रहा है. उन्होंने हमें बताया कि उत्तरकाशी में गंगोत्री ग्लेशियर से निकलने वाली भागीरथी नदी में कई बार उफान आ चुके हैं. 2017 में गंगोत्री ग्लेशियर के नजदीक नील ताल टूटने के कारण भागीरथी में भारी उफान आया था, जिसका मलबा अभी भी गोमुख क्षेत्र में फैला हुआ है. उस मलबे को लेकर शासन की ओर से गठित निगरानी दल ने कई बार निरीक्षण भी कर दिया है. जबकि 2012 में डोडीताल का एक हिस्सा टूटने और ताल में मलबा भरने से असी गंगा घाटी में भारी नुकसान हुआ था.
गोदियाल ने बताया कि इससे निर्माणाधीन असी गंगा जल विद्युत परियोजना प्रथम और असी गंगा विद्युत परियोजनाएं भी ध्वस्त हुई थी. साथ ही चार पुल बहने के अलावा जनहानि भी हुई. ताल का एक हिस्सा टूटने का कारण द्रवा टॉप पहाड़ी की ओर से जलप्रवाह और भूस्खलन हो रहा है, जो अभी खतरा बना हुआ है. ताल के एक किनारे पर अब भी करीब 40 मीटर मलबे का ढेर है. इसमें भारी बोल्डर, पत्थर और टूटे हुए सैकड़ों पेड़ शामिल हैं.
उत्तराखंड में ‘विकास कार्य’ को लेकर ये विवाद बताते हैं कि कैसे संवेदनशील इलाके में निर्माण कार्य के दौरान नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, जिसका खामियाजा वहां के स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ रहा है.
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