बदल चुकी है बंगाल की सियासत
हिंदुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि बंगाल की राजनीति में चाहे ममता बनर्जी तीसरी बार चुनकर आए या फिर बीजेपी उन्हें रोकने में कामयाब रहे, लेकिन यह बात साफ है कि इस प्रदेश की राजनीति बदल चुकी है. पश्चिम बंगाल में मुकाबला प्रधानमंत्री बनाम मुख्यमंत्री है. डबल इंजन की सरकार वाली सोच ममता बनर्जी को चुनौती दे रही है. बिहार और दिल्ली में जरूर मोदी के नाम पर लड़े गए चुनाव के नतीजे नहीं मिल पाए थे, लेकिन यूपी जैसे प्रांत इस बात के गवाह हैं कि मोदी के नाम पर प्रदेश में भी बीजेपी को जीत मिली है.
लेखक का मानना है कि जहां ममता बनर्जी को अल्पसंख्यक वोटरों और बहुसंख्यक वोटरों के अल्प हिस्से पर भरोसा है, वहीं बीजेपी को बहुसंख्यक वोटरों के बहुसंख्यक हिस्से का साथ मिलने की उम्मीद है.
चाणक्य लिखते हैं कि कांग्रेस-लेफ्ट के साथ मुसलमानों के एक तबके के साथ आ जाने के बावजूद आमतौर पर मुसलमानों का वोट टीएमसी को मिलने जा रहा है. संगठनात्मक रूप से टीएमसी मजबूत है जबकि बीजेपी ने भी अपनी जड़ें मजबूत की हैं और इसमें संघ की भूमिका रही है. पश्चिम बंगाल में बीजेपी को सिर्फ शहरी वोटरों और सवर्ण का सहयोग नहीं है, बल्कि यहां उसे हर तबके का समर्थन मिल रहा है. इसकी वजह है हिंदुत्व.
बंगाल की सियासत में धार्मिक आधार पर बड़ा बदलाव आया है. ममता बनर्जी इस बदलाव को रोक पाती हैं या नहीं, यह महत्वपूर्ण है. अगर बीजेपी चुनाव हार भी जाती है तब भी बंगाल की सियासत में वैचारिक आधार पर बदला आ चुका है.
हिंदुत्व की सियासत यहां स्थापित हो चुकी है. ‘जय श्री राम’ का नारा और बांग्लादेशी घुसपैठिये का मुद्दा अहम है. हिंदू-मुस्लिम से जुड़े सवाल बंगाल की राजनीति को तय करते दिख रहे हैं.
लोकतंत्र को मार देगी मध्यवर्ग की नींद
पी चिदंबरम ने द इंडियन एक्सप्रेस में मध्यवर्ग और उसके आकार को पहचानने की कोशिश करते हुए इसकी संख्या करदाताओं के आसपास निश्चित की है, यानी 2.4 फीसदी. देश में तकरीबन 6 करोड़ मध्यमवर्ग हैं जिनमें कारोबारी, किसान, जज, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, अभिनेता, लेखक और दूसरे पेशेवर हैं.
लेखक बताते हैं कि 1930-1940 से लेकर 1980 के दशक तक जो वर्ग खुद को खुशी से मध्यवर्ग कहता था, वह राजनीति सहित सार्वजनिक जीवन में सक्रिय था. यही लोग वक्ता, लेखक, कवि, अभिनेता और कलाकार होते थे. आजादी की लड़ाई के दौरान यही मध्यवर्ग सबसे ज्यादा सक्रिय था. यह वर्ग जनमत बनाया करता था, आंदोलनकारी था जिसने संवेदना, तर्क, निष्पक्षता और समानता जैसे मूल्यों को पेश किया.
चिदंबरम अब इसी मध्यवर्ग को जीवन की हर गतिविधि से गायब देख रहे हैं. क्लब, समाज, खेल, सहकारी समितियां, ट्रेड यूनियन, मंदिर के ट्रस्टी और समाज के हर संगठित संस्था में अब मध्यवर्ग नहीं, राजनीतिक दिखने लगे हैं.
सिंधु और टिकरी पर किसान आंदोलन को लेकर मध्यवर्ग की उदासीनता निराशा पैदा करती है. निर्भया कांड के वक्त को छोड़ दें तो मध्य वर्ग जेएनयू और एएमयू में पुलिस दमन, शाहीन बाग और अन्य जगहों पर सीएए विरोध और लॉकडाउन के वक्त भी यह वर्ग नजर नहीं आया.
सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, कवियों की मनमाने तरीके से गिरफ्तारियां या विपक्षी नेताओं के उत्पीड़न भी उनके आत्मसंतोष को हिला नहीं सका. सांसदों-विधायकों की खरीद-फरोख्त जारी है. फिर भी बगैर दलबदल कानून में बदलाव के ही चुनाव की अधिसूचनाएं जारी हो रही हैं. लगता है मध्यवर्ग ने बुरा देखना, सुनना और कहना बंद कर दिया है. यह गायब मध्यवर्ग जल्द ही लोकतंत्र को मार देगा.
मुश्किल दौर में भारत निर्माण का दौर
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि निर्माण के दौर से गुजर रहा है भारत. हाईवे, एक्सप्रेसवे, हाई स्पीड फ्रेट कॉरिडोर, सागर पर पुल निर्माण, कोस्टल फ्रीवेज, हर बड़े शहर में मेट्रो लाइन्स, बुलेट ट्रेन, सेमी हाई स्पीड इंटर सिटी ट्रेनें, नए बंदरगाह, हवाई जहाज... लंबी और प्रभावशाली सूची है. अगर चीजें योजनानुसार बढ़तीं तो भारत की तस्वीर अपनी आजादी के 75वें साल तक बिल्कुल बदल चुकी होती. मगर, अब थोड़ा वक्त और लगेगा.
मुंबई का अपने मुख्य शहर में दो शहरों से ट्रांस हार्बर लिंक के जरिए जुड़ना अहम है. चेनाब नदी पर दुनिया का सबसे लंबा रेल ब्रिज पूरा होने को है. हिमालयन दर्रे में ऑल वेदर टनल तैयार हो रहे हैं. ब्रह्मपुत्र पर पुलों का निर्माण जारी है. अब निवेश की चर्चा ट्रिलियन में हो रही है.
नाइनन लिखते हैं कि आप कह सकते हैं कि वाजपेयी सरकार ने स्वर्णिम चतुर्भुज योजना की शुरुआत की. मनमोहन सरकार ने ग्रीन एनर्जी को आगे बढ़ाया, फ्रेट कॉरिडोर का लू प्रिंट बनाया और पहली बुलेट ट्रेन सेवा की सोच को बढ़ाया. मगर, मोदी सरकार ने निस्संदेह इंफ्रा इन्वेस्टमेंट और लोककल्याणवाद को महत्वाकांक्षा की नयी ऊंचाई तक ले गए. मगर, अब परियोजनाएं लटकती दिख रही हैं. ग्रीन एनर्जी ड्राइव अपने लक्ष्य से दूर है.
सरकार की आमदनी घट चुकी है. नेशनल हाईवे अथॉरिटी कर्ज में डूब चुका है. रेलवे नुकसान में है. राजस्व घाटा बढ़ रहा है. संपत्ति बेचना मूल मंत्र है. कुल मिलाकर मुश्किल दौर में दिख रहा है भारत निर्माण का दौर.
देश को बढ़ा रही हैं 100 यूनीकॉर्न कंपनियां
एसए अय्यर ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में उन दावों को खारिज किया है कि भारत की अर्थव्यवस्था इक्के-दुक्के अरबपतियों के हाथों में है. एक रिसर्च पेपर के हवाले से अय्यर बताते हैं कि 100 बड़ी यूनीकॉर्न यानी विशालकाल कंपनियां भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा रही हैं, जिनमें से हरेक अरबों डॉलर की ताकत के साथ खड़ी हैं. भारत के पास इतनी बड़ी संख्या में अरबपति कारोबारी कभी नहीं दिखे थे. ये यूनीकॉर्न पूरी दुनिया से निवेश इकट्ठा कर कारोबार में लगा रहे हैं और 21वीं सदी में अपना दबदबा बनाए हुए हैं.
कुछ यूनीकॉर्न मशहूर हैं. सीरम इंस्टीट्यूट दुनिया में सबसे बड़ी वैक्सीन निर्माता कंपनी है. फ्लिपकार्ट ने अपना कारोबार 16 अरब डॉलर में वॉलमार्ट को बेच दिया है. वंडर सीमेंट, जीआरटी ज्वेलरी, ग्रीनको, डिजिट या चार्जबी जैसे प्रमुख युनीकॉर्न हैं.
दो तिहाई यूनीकॉर्न ने 2005 में काम करना शुरू किया. सॉफ्टवेयर, लॉजिस्टिक्स, आधुनिक कारोबार, बायो फार्मास्यूटिकल्स जैसे क्षेत्रों का विकास हुआ. 80 हजार स्टार्ट-अप का पिरामिड की तरह विकास हुआ. हर साल करीब एक तिहाई नयी कंपनियां बढ़ती चली गईं. ओला कैब परिवहन की दुनिया में मशहूर नाम है. इसने दुनिया की सबसे बड़ी इलेक्ट्रिक टू व्हीलर कंपनी बनाने की घोषणा की है, जो 1 करोड़ बाइक बनाएगी. क्या सपना है!
ऐसे में बाजार नियामक सेबी के नियम दयनीय हैं. अमेजन, फेसबुक जैसी कंपनियां स्टॉक मार्केट में इसलिए जगह नहीं बना सकतीं क्योंकि उसने मुनाफे नहीं कमाए हैं.
क्रिकेट में गावस्कर वाले दिन
मुकुल केसवान ने द टेलीग्राफ में सुनील गावस्कर के क्रिकेट मैदान पर उतरने के 50 साल पूरे होने के मौके पर क्रिकेट से जुड़े सुनहरे चमकते दिनों को याद किया है. इसे उन्होंने ‘सनी डेज’ नाम दिया है. सुनील गावस्कर के नाम से ‘सनी डेज’ को याद करते हुए लेखक बताते हैं कि अपने पहले ही टेस्ट मैच में सनी ने 774 रन जुटाए थे और अगर वह 5 टेस्ट मैच की सीरीज होती तो सनी जरूर हजार रन पूरे कर लेते. तीन अर्धशतक, तीन शतक और एक दोहरा से शतक- शानदार प्रदर्शन था सुनील गावस्कर का.
केसवान लिखते हैं कि 1975 से 1980 के बीच जब वे विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, गावस्कर दुनिया के श्रेष्ठ बल्लेबाज बने रहे. उन्होंने 18 शतक बनाए. अपने करियर के आखिरी दो सालों में गावस्कर ने शानदार खेल दिखाया. जिस साल लेखक ने अपना थीसिस पूरी की, उस साल गावस्कर ने लॉर्ड्स में अपना इकलौता शतक बनाया था. सुनील गावस्कर को 1981 में चेतन चौहान के साथ क्रिकेट के मैदान पर उतरते देखने का आनंद ही अलग हुआ करता था. गावस्कर का लेखन उनके व्यक्तित्व का शानदार पहलू है.
गावस्कर ने 1976 में ‘सनी डेज’ लिखी. उन्होंने रंगभेद के खिलाफ आवाज उठायी. आज के जमाने में जबकि खिलाड़ी अपने कॉर्पोरेट आकाओं के लिए ट्वीट करते हैं या फिर चुप रहते हैं, गावस्कर को याद करना सुखद है जो खुले दिमाग से खुद को व्यक्त करते थे. हाल में वसीम जाफर अकेले पड़ गये जब उन पर क्रिकेट में सांप्रदायिकता का आरोप लगा. 1993 में बंबई दंगे के दौरान गावस्कर ने मुस्लिम परिवार को हिंसक भीड़ से बचाया था. ये दोनों घटनाएं दो अलग-अलग दुनिया को बयां करती है.
गुस्से में दीदी, गुस्से में दुनिया
शोभा डे द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखती हैं कि दुनिया में इन दिनों हर जगह गुस्सा ही गुस्सा देखने को मिल रहा है. दीदी को गुस्सा, मेगन को गुस्सा, हैरी को गुस्सा, क्वीन को गस्सा... हर जगह गुस्सा ही गुस्सा. हर जगह मानो ज्वालामुखी फटने को तैयार है.
दीदी तो जैसे हमेशा गुस्से में ही रहती हैं. कुछ लोग कहते हैं कि वह शुरुआत से ही गुस्से में रहती हैं. कई लोग कहते हैं कि उन्होंने ममता को कभी मुस्कुराते नहीं देखा. यह भी अजीब बात है कि कड़ी सुरक्षा के बीच भी कुछ लोग दीदी से धक्का-मुक्की करने में कामयाब रहे.
आपको दीदा का विश्वास क्यों नहीं हो रहा! क्या आपको प्लास्टर चढ़े पैर नहीं दिख रहे? दीदी के फैंस बीमार हैं. उन्हें उम्मीद है कि दीदी बाहर आएंगी और जैसा कि वह कह रही थीं, अब खेला होबे! निश्चॉय होबे, लेकिन कब?
शोभा डे लिखती हैं कि गुस्सा बुरी चीज नहीं होती. इन दिनों राहुल गांधी भी गुस्से में हैं. कई बार इसका इजहार कर चुके हैं. कोई उन्हें रोकने वाला भी नहीं. महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस युद्ध के रास्ते पर हैं. अजित पवार के लिए भी इतना गुस्सा ठीक नहीं है. बंगाल में दीदी का गला फंसा हुआ है और चेहरा गुस्से में है. बंगाली वोटर मूर्ख नहीं हैं. जब बंगाली गुस्से में होते हैं और अपनी लाल-लाल आंखें दिखाते हैं तो वह अलग ही नजारा होता है.
मगर, अभी वह स्थिति नहीं आई है. मगर, भद्रलोक की चुप्पी का भी ख्याल करें. बंगाल टाइगर भी तैयार खड़े हैं. पश्चिम बंगाल में चुनाव पर सबका ध्यान है, लेकिन बाकी राज्यों के चुनाव पर किसी का ध्यान नहीं. क्या वहां चुनावों के कोई मायने नहीं हैं?
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