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कौन कहता है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है?

उर्दू और हिंदी भाषा के इतिहास पर गहराई से पड़ताल करता आलेख.

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भारत
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बदतमीज़, वक़्त, इंतज़ार, ज़िंदगी, कोशिश, किताब और यहां तक कि खुद हिन्दी, उर्दू के कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल करते वक्त हम बात से पूरी तरह अनजान होते हैं कि जिस भाषा का इस्तेमाल हम कर रहे हैं, वह उर्दू और हिन्दी का मिला-जुला रूप है. दो सौ साल पहले इसी संकर भाषा को हिन्दुस्तानी कहा जाता था.

बड़ी निराशाजनक बात है, लेकिन चलती हमेशा स्टीरियोटाइप की है. हमारे पॉप्युलर और अमूमन गलत मतलब निकाले गए तहज़ीब में, उर्दू और हिंदी अब नमाज़ी टोपी और टीके का भाषाई पर्याय बन गए हैं. लेकिन भाषाएं पहले कभी धर्म का हिस्सा नहीं रही थीं.

18वीं सदी के आखिरी सालों में जब निरक्षरता तकरीबन 97 फीसदी थी, तब देश में प्रशासन, कचहरी और बाकी के सभी सरकारी कामकाज की भाषा उर्दू थी. शायद इसकी वजह वह घटिया साक्षरता दर रही हो. उस वक्त उर्दू को शिक्षित कुलीन वर्ग की जागीर समझा जाता था, जिनको ब्रिटिशों का वफादार माना जाता था.

अपेक्षाकृत नई भाषा को प्रगतिशील और मुख्यधारा की माना जाने लगा था, क्योंकि देश में बमुश्किल 3 फीसदी आबादी ही पढ़-लिख सकती थी.

उर्दू और हिंदी भाषा के इतिहास पर गहराई से पड़ताल करता आलेख.
सन 1926 में प्रकाशित उर्दू महाभारत की 6000 प्रतियां बिकी थीं, जबकि उस वक्त इसकी कीमत बहुत अधिक, 8 रुपये थी. (फोटो: इतिहास इंडिया)
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तो उर्दू और हिंदी को धार्मिक रंग कब दिया गया?

इसकी शुरुआत शब्दों के बंटवारे के साथ हुई थी. हिन्दुस्तानी के व्युत्पत्ति विज्ञान (शब्दों के जन्म का विज्ञान) की पहचान ब्रिटिश भाषाशास्त्री जॉन गिलक्रिस्ट ने की थी. यह एक बहुत महत्वाकांक्षी कसरत साबित हुई, क्योंकि उर्दू और हिंदी आपस में बहुत नजदीक से जुड़ी हैं.

इन दोनों भाषाओं के व्याकरण और बोलने के तरीके तकरीबन एक जैसे हैं.

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जॉन गिलक्रिस्ट ने ईस्ट इंडिया कंपनी के नए कर्मचारियों के लिए कलकत्ते में फोर्ट विलियम कॉलेज में लैंग्वेज ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट शुरू किया. मकसद था, ब्रिटिश प्रशासकों को एक जटिल उपनिवेश में मदद करना, ताकि वह साम्राज्य का विस्तार कर सकें. (फोटो: पुरानो कोलकाता)

हिन्दुस्तानी का विघटन

बाकी चीजों के साथ गिलक्रिस्ट ने हिन्दुस्तानी को दो मोटे वर्ग में बांट दिया- ऐसे शब्द, जो अरबी और फ़ारसी से आए हैं, उनको उर्दू के वर्ग में रखा गया. ऐसे शब्द जो संस्कृत और प्राकृत से आए थे, उनको हिंदी कहा गया.

शायद, अनजाने में गिलक्रिस्ट की कोशिश ने हिंदी और उर्दू, दोनों को अर्ध-धार्मिक पहचान दे दी.

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राजा शिव प्रसाद 1875 में लिखी व्याकरण की किताब में इसे बार-बार दोहराया कि हिंदी और उर्दू में स्थानीय भाषा के स्तर पर कोई फर्क़ नहीं है. 
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सन 1857 का गदर

व्याकरण बंट गया, लेकिन सन 1857 के गदर के दौरान प्रतिरोध की भाषा हिन्दुस्तानी ही रही. जब इसे दबा दिया गया, तो ब्रिटिशों ने अपने अमूमन वफादार रहे शिक्षित मुसलमानों को, जो सरकारी नौकरियों में थे, अलग नजरिए से देखना शुरू किया. उन्हें लगा कि इन लोगों ने उनके साथ विश्वासघात किया है. इसलिए संतुलन लाने की खातिर उपनिवेशवादी शासकों ने हिन्दू लेखकों और देवनागरी लिपि को शह देना शुरू किया. यहां तक कि उन लोगो ने बनारस और इलाहाबाद में विश्वविद्यालय तक स्थापित किए.

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सन 1857 के गदर ने अंग्रेजों को सिखाया कि भारतीयों के लिए धर्म एक भावुक मसला है और इसके बाद से ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई गई. इसका पहला शिकार भाषा बनी. (फोटो: इंडिया ऑनलाइन)

हिन्दी विप्लव

ब्रिटिश सरकार से मिले इस बढ़ावे ने उन लोगों को शह दिया, जो सरकारी कामकाज में देवनागरी लिपि के इस्तेमाल को लेकर गोलबंदी में लगे थे और वह ज्यादा सक्रिय हो गए.

सन 1873 और सन 1882 में दिए गए दो अलग ज्ञापनों में, हिंदी के प्रचारकों ने तर्क दिया कि उर्दू लिपि में अस्पष्टता है, यह ज्यादा अपठनीय है और इसमें किरानियों के लिए धोखेबाजी की गुंजाइश ज्यादा है.

उर्दू और हिंदी भाषा के इतिहास पर गहराई से पड़ताल करता आलेख.

इसमें उर्दू पर कृत्रिम पारसी तहज़ीब तैयार करने का आरोप लगाया गया था और दावा किया गया कि हिन्दी को इस्तेमाल करने वालों की संख्या उन चंद कुलीन लोगों से काफी ज्यादा है, जिनको सत्ताधारी तंत्र अपना संरक्षण देता आया है.

आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक माने जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद ने उर्दू को ‘मुजरा करने वालियों और वेश्याओं की भाषा’ कहा था.

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1990 का ‘मैकडॉनल क्षण’ (या 1890?)

पिछले तर्क में एक नाज़ुक फर्क था जिसकी वजह से कांग्रेस नेता मदन मोहन मालवीय ने जब भारतीय प्रशासन में देवनागरी लिपि को अपनाए जाने का ज्ञापन दिया, तो एक ज्यादा रणनीतिक नजरिया अपनाया.

तीन साल बाद, पश्चिमोत्तर प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर मैकडॉनेल ने हिन्दी और उर्दू, दोनों को आधिकारिका मान्यता दी. अपनी गहन शोध के बाद लिखी किताब, गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ अ हिन्दू इंडिया, में अक्षय मुकुल इसे मैकडॉनेल क्षण कहते हैं.

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फारसी के साथ देवनागरी के अदालतो में इस्तेमाल के फैसले ने भाषाई बहस में निर्णायक भूमिका निभाई. (फोटोः गीता प्रेस किताब का कवर)

मालवीय जी दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड और बिहार में हिन्दी को मजबूती से कदम जमाने में निर्णायक भूमिका निभाई.

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मुस्लिम लीग का गठन

सर मैकडॉनेल द्वारा हिन्दी को, भले ही प्रतीकात्मक, बराबरी का दर्जा दिए जाने के बाद उर्दू के प्रचारकों ने तिरस्कार और दहशत भरी प्रतिक्रिया दी. इसलिए जब ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का गठन ‘मुसलमानों के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आकांक्षाओं को बढ़ावा देने,’ के लिए हुआ तो इसके लीडरान ने अपने ऊपर उर्दू को फौरन से पेश्तर बढ़ावा देने की जिम्मेदारी ओढ़ ली.

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हिन्दुस्तानी विभिन्न संस्कृतियों को सटीक संश्लेषण का प्रतिनिधित्व करता था, लेकिन जब समाज का तानाबाना कमजोर हो गया, तो इसके दो तत्वों, हिंदी और उर्दू को धर्म की पहचान मिलने लगी.

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बंटवारा

सन 1947 में संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) और बिहार का उर्दू बोलने वाला मुस्लिम मध्यवर्ग पाकिस्तान चला गया. उनको वहां मुहाजिर कहा जाने लगा और वे लोग पाकिस्तान में छोटे अल्पसंख्यक वर्ग में तब्दील हो गए. लेकिन नए-नवेले देश में उनका राजनीतिक रसूख काफी ज्यादा था.

देश के क़ायदे-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना ने उर्दू को देश की राजभाषा बनाने पर ज़ोर दिया- यह एक फ़ैसला था जिसे कई इतिहासकार पूर्वी पाकिस्तान के बांगलाभाषी लोगों को बगावत के लिए उकसाया.

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उर्दू का थोपा जाना पाकिस्तान में विवादास्पद फैसला था. (फोटो: डॉन अखबार)

दूसरी तरफ भारत ने राजभाषा चुनने का फैसला लेने में आजादी के बाद के दो वर्ष लिए. सन 1950 में भारत ने उर्दू को हटाकर अंग्रेजी वह जगह दी. यह एक ऐसा फ़ैसला था जिस पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का असर दिखा जो धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ाने के पैरोकार थे. उर्दू देश की बीस आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाओं में बनी रही.

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भारत ने हालांकि दो साल लिए, लेकिन इसने उर्दू की जगह पर राजभाषा की जगह अंग्रेजी को दी. ( फोटो: द अटलांटिक)

हाल ही में, सितंबर 2015 में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया है कि वह अंग्रेजी की जगह उर्दू को दे, ‘क्योंकि अधिकतर जनता नहीं समझती है.’

दिलचस्प है कि पाकिस्तान की 19.9 करोड़ की आबादी के 48 फीसदी लोग पंजाबी बोलते हैं. सिर्फ 8 फीसदी लोग ही उर्दू बोलते हैं.

भारतीय स्कूलों में उर्दू का स्थान धीरे-धीरे क्षेत्रीय भाषाओं ने ले लिया और हाल में इसकी जगह संस्कृत ने ली है. गौरतलब है कि साल 2001 की जनगणना के मुताबिक, संस्कृत 1.2 अरब लोगों में से महज 14000 लोगों की मातृभाषा है.

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