देश में कोरोना महामारी के बीच एक बार फिर चुनावी मौसम शुरू हो चुका है. सबसे पहले बिहार में चुनाव होना है, लेकिन राजनीतिक दलों ने बाकी राज्यों की भी तैयारियां शुरू कर दी हैं. दिल्ली की सत्ता में काबिज आम आदमी पार्टी ने अब उत्तराखंड की सभी 70 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. यूपी की राजनीति में एक्टिव हुई आम आदमी पार्टी अब पहाड़ों में भी चढ़ने की कोशिश में है. लेकिन महज ऐलान कर देने से कुछ नहीं होने वाला है, राज्य में इस नई पार्टी के लिए राह इतनी भी आसान नजर नहीं आती है.
सीएम अरविंद केजरीवाल भले ही उम्मीदों पर चुनावों लड़ने की बात कर रहे हों, लेकिन राज्य में पार्टी को अभी जमीनी स्तर पर खुद को तैयार करना है. इतना ही नहीं इस पहाड़ी राज्य की परिस्थितियों और राजनीति को दिल्ली से नहीं समझा जा सकता है.
सबसे पहले आपको ये बताते हैं कि उत्तराखंड में चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने क्या कहा. केजरीवाल का सीधा कहना है कि वो दिल्ली मॉडल को पहाड़ में लेकर जाना चाहते हैं. उन्होंने कहा,
“दिल्ली में पहाड़ों से आए बहुत लोग रहते हैं, उनमें से कई लोगों ने मुझे आकर कहा कि आप उत्तराखंड में आकर चुनाव लड़िए. हमने इसके लिए उत्तराखंड में सर्वे कराया. जिसमें उत्तराखंड के 62 फीसदी लोगों ने कहा कि पार्टी को वहां चुनाव लड़ना चाहिए. उत्तराखंड में तीन मुद्दे हैं- रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा, जिसकी वजह से पलायन हो रहा है. उत्तराखंड में दिल्ली मॉडल की काफी चर्चा है. इसीलिए हम दिल्ली मॉडल को पहाड़ में लेकर जाएंगे.”अरविंद केजरीवाल
पार्टी का राज्य में नहीं है कोई बेस
अब सबसे पहली बात तो ये कि उत्तराखंड में साल 2022 की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं. यानी करीब डेढ़ साल का वक्त बचा है. आम आदमी पार्टी के पास राज्य में न तो कोई पॉलिटिकल बेस है और न ही कोई बड़ा चेहरा अब तक सामने आया है. इसीलिए पार्टी के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती होगी. जिला स्तर से लेकर ब्लॉक स्तर तक पार्टी को अपना संगठन तैयार करना होगा.
इसे लेकर जब सीएम अरविंद केजरीवाल से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि चुनाव संगठन से नहीं बल्कि लोगों की उम्मीदों पर लड़ा जाता है. उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में बीजेपी और कांग्रेस से लोगों की उम्मीद खत्म हो चुकी है. अब भले ही सीएम केजरीवाल उम्मीदों पर चुनाव लड़ने की बात कर रहे हों, लेकिन अगर समय रहते जमीनी स्तर पर काम नहीं किया गया तो बीजेपी और कांग्रेस के मजबूत संगठन के सामने आम आदमी पार्टी की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है.
हालांकि आम आदमी पार्टी के इस फैसले को देखकर कहीं न कहीं ये भी लगता है कि फैसला काफी बेमन से लिया गया है, पार्टी इसे एक प्रयोग की तरह देख रही है. क्योंकि अगर पार्टी का राज्य में चुनाव लड़ने का मन था तो तैयारी कई महीने या एक साल पहले से होनी चाहिए थी. क्योंकि राज्य में पार्टी की अभी तक भी कोई खास तैयारी नजर नहीं आ रही है.
पार्टी नेतृत्व की होगी बड़ी भूमिका
उत्तराखंड में चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद आम आदमी पार्टी ने ये अब तक साफ नहीं किया कि स्थानीय तौर पर कौन पार्टी का चेहरा होगा. क्योंकि उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जहां पर लोगों को ऐसा नेता चाहिए होता है, जो उनसे किसी न किसी तरह से जुड़ा हो. बीजेपी-कांग्रेस भी विधानसभा चुनावों में ऐसी ही चेहरों को मैदान में उतारते हैं, जो किसी न किसी तरीके से खुद को उस क्षेत्र की जनता के साथ जोड़ते हैं.
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के संगम विहार से विधायक दिनेश मोहनिया को उत्तराखंड का प्रभारी नियुक्त किया है. जो इस वक्त उत्तराखंड में काफी एक्टिव हो चुके हैं. पार्टी के ऐलान के बाद उन्होंने भी देहरादून में पत्रकारों को पार्टी का पूरा एजेंडा बताया. लेकिन दिनेश मोहनिया कोई ऐसा नाम नहीं हैं, जिनके नाम से पार्टी उत्तराखंड में अपना संगठन खड़ा कर सकती है. हालांकि ये भी हो सकता है कि जैसे बीजेपी ने दिल्ली में पीएम मोदी के ही चेहरे पर चुनाव लड़ा था, वैसे ही आम आदमी पार्टी भी अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही चुनावी मैदान में उतरे.
बीजेपी-कांग्रेस का कोर वोटर
आम आदमी पार्टी भले ही राज्य में तीसरे विकल्प के तौर पर अपना दावा ठोक रही हो, लेकिन उत्तराखंड में पिछले 20 सालों से बीजेपी और कांग्रेस का दबदबा है. इन दोनों पार्टियों ने कभी किसी तीसरी पार्टी को विकल्प नहीं बनने दिया. इसका बड़ा कारण ये है कि दोनों पार्टियों का राज्य में अपना कोर वोटर है. राज्य के ग्रामीण इलाकों में आज भी चेहरा देखकर नहीं बल्कि कमल और हाथ का निशान देखकर वोट दिया जाता है. जिन्हें इन पार्टियों के पुश्तैनी वोटर्स कहा जा सकता है. इन दो निशानों के अलावा पहाड़ी इलाकों के ज्यादातर लोग किसी तीसरी निशान का बटन नहीं दबाते हैं. यही वजह है कि पिछले 20 सालों में कई कोशिशों के बावजूद तीसरी पार्टी उत्तराखंड में अपनी जमीन तैयार नहीं कर पाई.
पिछले चुनाव का क्या रहा हाल?
उत्तराखंड में अगर पिछले चुनाव यानी 2017 विधानसभा चुनाव को देखें तो इससे साफ पता चलता है कि कैसे बीजेपी और कांग्रेस के अलावा किसी और पार्टी की तरफ वोटर्स का रुझान लगभग ना के बराबर रहा है. मायावती की पार्टी ने कई बार कोशिश तो जरूर की, लेकिन उनका हाथी पहाड़ नहीं चढ़ पाया. वहीं सीपीआई, एनसीपी और सीपीएम जैसी पार्टियों ने भी सिर्फ नाम के लिए ही उम्मीदवार उतारे. उधर राज्य की स्थानीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) अपने पतन की ओर है. हालांकि ये वही पार्टी है, जिसने उत्तराखंड आंदोलन में एक अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन आज राज्य में इसका अस्तित्व ना के बराबर है.
ठाकुर-ब्राह्मण राजनीति
जैसा कि हम बता चुके हैं कि उत्तराखंड में चेहरा काफी मायने रखता है. इसके पीछे एक और कारण है कि यहां चुनावी गर्मी शुरू होते ही ठाकुर बनाम ब्राह्मण पॉलिटिक्स भी शुरू हो जाती है. ऐसे में बीजेपी और कांग्रेस दोनों के बीच बैलेंस बनाकर चलती हैं. उत्तराखंड में करीब 60 फीसदी वोट ठाकुर और ब्राह्मणों के हैं. जिनमें से करीब 35 फीसदी वोटर्स ठाकुर हैं और 25 फीसदी वोटर ब्राह्मण समुदाय से आते हैं. इसीलिए AAP को इस बात का भी कहीं न कहीं खयाल जरूर रखना होगा.
AAP की चुनौतियां और तीसरा विकल्प बनने का मौका
- अब आखिर में बात करते हैं आम आदमी पार्टी की उत्तराखंड में क्या चुनौतियां होंगी और किन मुद्दों से वो बीजेपी और कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे सकती है.
- पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती संगठन को खड़ा करना और जमीनी स्तर पर इसे मजबूत करना होगी
- आम आदमी पार्टी के सामने एक चुनौती ये भी होगी कि वो किन स्थानीय चेहरों को अपने पक्ष में लान में कामयाब होते हैं
- उत्तराखंड में सबसे बड़ी समस्या पलायन है, जिसका बड़ा कारण खराब स्वास्थ्य व्यवस्था, बदहाल शिक्षा व्यवस्था और रोजगार की कमी है. इसका सही इलाज लोगों को बता पाना और ब्लू प्रिंट देना AAP के लिए एक बड़ी चुनौती
- जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए भी उम्मीदवारों का चुनाव जरूरी
- आम आदमी पार्टी उत्तराखंड में खुद को तीसरे विकल्प के तौर पर खड़ा कर सकती है
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