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अमृतपाल और अजनाला हिंसा: पंजाब में सियासी सद्भाव को खत्म कर रही बढ़ती कट्टरता

अमृतपाल सिंह का उदय और केंद्र-AAP के बीच की खींचतान पंजाब में सिकुड़ते पॉलिटिकल मिडिल ग्राउंड के संकेत हैं.

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अमृतसर (Amritsar) जिले के अजनाला में 23 फरवरी को पुलिस और अमृतपाल सिंह के समर्थकों के बीच एक लड़ाई हुई, जिसने कई चौंकाने वाले दावों को जन्म दिया. कैप्टन अमरिंदर ने कहा, ''यह न केवल पंजाब में कानून-व्यवस्था की स्थिति का पूरी तरह से चरमरा जाना है, बल्कि इससे कहीं अधिक गंभीर है.'' और कई टेलीविजन समाचार चैनलों ने इसको "खालिस्तानियों की खुली छूट" के तौर पर बताया है.

बिल्कुल, इसमें कोई संदेह नहीं है कि अजनाला में हुई हिंसा एक गंभीर घटना है. हम आगे इस पर आएंगे कि यह क्यों महत्वपूर्ण है.

लेकिन हाल ही में जब दो मुस्लिमों (जुनैद और नासिर) का अपहरण कर लिया गया था और पड़ोसी राज्य हरियाणा में उनके ही वाहन में उन्हें जिंदा जला दिया गया था. तब उस घटना को इस तरह से खतरनाक या गंभीर क्यों नहीं बताया गया? क्या यह कानून और व्यवस्था का पतन नहीं है या क्या यह "कथित गो-रक्षकों को खुली छूट" नहीं है.

इस तरह के लेबल वाकई में पंजाब की स्थिरता को नुकसान पहुंचाते हैं.

पंजाब में वास्तविक कहानी यह है कि इस प्रदेश में राजनीतिक मिडिल ग्राउंड (दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच एक एक मध्यवर्ती स्थिति) तेजी से सिकुड़ रहा है. वारिस पंजाब दे के अमृतपाल सिंह का उदय, अजनाला हिंसा और उस पर होने वाली प्रतिक्रियाएं, ये सब कुछ तेजी से सिकुड़ते मिडिल ग्राउंड के संकेत हैं.

यहां इसके तीन पहलू पर हम चर्चा कर रहे हैं.

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1. हिंदुत्व के दावे को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर उभार 

पंजाब में जो कुछ हो रहा है, वह निर्वात (बिना किसी वजह के) में नहीं हो रहा है, इसे 2014 से राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते दक्षिणपंथी दावे के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. जहां एक ओर खालिस्तान समर्थक गतिविधियों को उजागर करता है उसको दिखाता है. वहीं हिन्दू राष्ट्र का आह्वान या मांग को सामान्य तौर पर लिया जाता है.

कुछ साल पहले तक, खालिस्तान की मांग मुख्य रूप से सोशल मीडिया और विदेश में रहने वाले सिखों के बीच मौजूद थी. पंजाब के भीतर गतिविधि में कुछ वृद्धि के बावजूद, खालिस्तान की मांग अभी भी मामूली है. जिस तरह से सामान्य तौर पर खुले में या मुख्यधारा में हिंदू राष्ट्र का आह्वान किया जा रहा है उसकी तुलना में यह कहीं भी नहीं है. पिछले हफ्ते ही खंडवा से बीजेपी सांसद ज्ञानेश्वर पाटिल और मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह ने हिंदू राष्ट्र की बात कही है.

संगरूर के सांसद सिमरनजीत सिंह मान को छोड़कर किसी भी सांसद या विधायक ने खालिस्तान का जिक्र नहीं किया है.

वहीं मुसलमानों और सिखों के खिलाफ नरसंहार के आह्वान भी किए गए हैं. बिहार के बिस्फी से बीजेपी विधायक हरिभूषण ठाकुर ने कहा है कि 'मुसलमानों को आग के हवाले कर देना चाहिए'. जबकि यूपी के बिठूर से बीजेपी विधायक अभिजीत सांगा ने सिखों को चेतावनी देते हुए ट्वविटर पर लिखा था कि "इंद्रा गांधी समझने की भूल न करना, श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी नाम है, लिखने को कागज और पढ़ने को इतिहास नहीं मिलेगा !!!!"

स्वाभाविक तौर पर, इस तरह की धमकियां उस समुदाय के लिए चिंता पैदा करती हैं, जिसने 1984 में एक नरसंहार और अपने सबसे पवित्र मंदिर के विनाश का अनुभव किया था.

2. पंथिक पॉलिटिकल क्षेत्र के भीतर उथल-पुथल होना

हालांकि, मिडिल ग्राउंड के संकुचन को केवल हिंदुत्व के उदय के लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा.

जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं, 2015 की बरगारी बेअदबी और कोटकपूरा हत्याओं के परिणामस्वरूप शिरोमणि अकाली दल (बादल) अवैध घोषित कर दिया गया था, लेकिन शिरोमणि अकाली दल (बादल) का संघर्ष के बाद की अवधि में सिख राजनीति पर प्रभुत्व था. इसने पंथिक राजनीति में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल मचाई, जिससे 2015 के सरबत खालसा और बरगारी मोर्चा का नेतृत्व हुआ.

कृषि कानूनों ने पंजाब और नई दिल्ली के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया. इसके साथ ही इसने ग्राउंड पर हलचल को तेज कर दिया.

इसी उथल-पुथल या हलचल का परिणाम है कि राजनीतिक में अचानक से सिमरनजीत सिंह मान का तारा चमका, साथ ही दीप सिद्धू और अब अमृतपाल सिंह का उदय हुआ.

यहां तक कि अपनी सभी खामियों के बावजूद 2015 तक बादल इस मिडिल ग्राउंड पर कब्जा करने में सफल रहे थे. बादल ने संघवाद (federalism) और केंद्र के हितों के बीच संतुलन बनाए रखा साथ-साथ एक संवैधानिक ढांचे के भीतर सिखों की चिंताओं को स्पष्ट तौर पर सामने रखा. वहीं व्यक्तिगत रूप से ऊंचे रुतबे के लोग बादलों को नियंत्रण में रख रहे थे, जिसमें अकाली क्षेत्र में गुरचरण सिंह टोहरा और चुनावी क्षेत्र में कैप्टन अमरिंदर सिंह (जो कि उस समय तक नरम-पंथिक राजनेता थे) जैसे नाम शामिल थे.

लेकिन टोहरा के निधन के बाद पैदा हुए खालीपन, नई दिल्ली की ओर कैप्टन का वैचारिक बदलाव और और मुख्यधारा के किसी भी अन्य नेता की इस अवसर पर उठने में असमर्थता की वजह से पंजाब का मिडिल ग्राउंड और भी खराब हो गया था.

आम आदमी पार्टी इसका एक प्रमुख उदाहरण है.

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3. एक निर्वाचित सरकार की वैधता को कम करना और केंद्रीय दखल को बढ़ाना

पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार को काफी मुश्किलों से ज्यादा का सामना करना पड़ा है. खासकर जब कानून और व्यवस्था जैसे मुद्दों की बात आती है तब इसके कुछ फैसलों ने तर्क को खारिज कर दिया है.

उदाहरण के तौर पर, सत्ता में आने के तुरंत बाद आम आदमी पार्टी द्वारा वीआईपी की सुरक्षा कवर में कमी करने की घोषणा की गई थी, यह एक ऐसा कदम था जिसको लेकर कहा जा रहा है कि इससे सिद्धू मोसे का सुरक्षा कवच कमजोर हुआ और हत्याकांड में आरोपियों को आसानी हुई.

अभी हाल ही में हुए अजनाला का मामले को देख लीजिए. यह विरोध इसलिए हुआ क्योंकि पंजाब पुलिस ने अमृतपाल सिंह के सहयोगी लवप्रीत सिंह उर्फ तूफान सिंह को अपहरण के एक मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था. इसके कुछ दिनों बाद, विरोध प्रदर्शन वाले दिन, पुलिस ने एक बयान जारी कर कहा कि लवप्रीत का अपहरण से कोई लेना-देना नहीं है और उसे रिहा कर दिया जाएगा.

अगर ऐसा था, तो पहले उसे क्यों उठा लिया गया? क्या उसे गिरफ्तार करने से पहले पुलिस को और सबूत नहीं जुटा लेने चाहिए थे?

सितंबर-अक्टूबर 2022 में पुलिस ने इसी तरह का यू-टर्न लिया था, जब उसने पहली बार ड्रग तस्करी और जबरन वसूली के मामले में गैंगस्टर से एक्टिविस्ट बने लक्खा सिधाना को गिरफ्तार किया था, लेकिन कुछ सप्ताह बाद ही बठिंडा के पास मेहराज में उसकी रैली की पूर्व संध्या पर उसे उसे निर्दोष घोषित कर दिया गया था.

जहां आम आदमी पार्टी की गलतियों से इनकार नहीं किया जा सकता है, वहीं केंद्र ने भी कई स्तरों पर दखल दिया है.

23 फरवरी, जिस दिन अजनाला की घटना की हुई उसी दिन, पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने सीएम भगवंत मान द्वारा उनके प्रति किए गए कथित रूप से अपमानजनक ट्वीट्स का हवाला देते हुए पंजाब विधानसभा के बजट सत्र को बुलाने के राज्य सरकार के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया.

अब (2016 के नबाम रेबिया मामले में) सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा को बुलाने या उसके एजेंडे को तय करने के लिए राज्यपाल की शक्तियों पर साफ तौर पर सीमाएं लगा दी हैं. इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि पंजाब के राज्यपाल बजट सत्र जैसी बुनियादी चीज पर कैसे रोक लगा सकते हैं.

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केंद्र की ओर हस्तक्षेप करने या दखल देने के कुछ अन्य उदाहरण भी हैं जैसे कि केंद्र सरकार द्वारा आयुष्मान भारत स्वास्थ्य स्वास्थ्य केंद्रों के लिए धन में कटौती की धमकी दी गई है, क्योंकि राज्य सरकार उन्हें मोहल्ला क्लीनिक में बदलना चाहती है.

आम आदमी पार्टी के लिए पंजाब में बड़ी समस्या यह है कि उसे पास नैरेटिव बचे ही नहीं हैं, आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए है, क्योंकि माना जा रहा है कि पंजाब में जो हो रहा है उसका निर्णय पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व (नेशनल लीडरशिप) द्वारा लिया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर केंद्र का नैरेटिव स्पष्ट है. केंद्र की ओर कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा पंजाब में एक गंभीर समस्या है, में एक अयोग्य सरकार का शासन है जिसने खालिस्तान समर्थक तत्वों को नियंत्रण से बाहर कर दिया है. यह एक स्क्यूड नैरेटिव (तोड़ा-मरोड़ा हुआ नैरेटिव) है, जिसे बिना रीढ़ वाले मीडिया द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है.

इस तथ्य के बावजूद कि पंजाब सरकार की एंटी-गैंग टास्क फोर्स ने कुछ सफलताएं हासिल कीं है. सिद्धू मूसेवाला की हत्या के बाद इसी नैरेटिव के तहत, केंद्र ने गैंगस्टरों के खिलाफ चल रहे युद्ध को आतंकवाद से जोड़ कर हाईजैक करने में लगभग कामयाबी हासिल कर ली है.

मिडिल ग्राउंड पर फिर से दावा करना

पंजाब के लिए मिडिल ग्राउंड पर फिर से दावा करना आसान नहीं है, क्योंकि जहां एक ओर केंद्र द्वारा ध्रुवीकरण को प्रोत्साहित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर प्रदेश सरकार में राजनीतिक विचार की कमी है. सिख राजनीतिक क्षेत्र में भी, अमृतपाल सिंह क्रमिक या वृद्धिशील परिवर्तन के बजाय तीखे विमर्श के पक्षधर रहे हैं.

यदि सभी पक्षों में राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो सिख कैदियों के मुद्दे पर शुरुआत की जा सकती है. इस मुद्दे पर लगभग पिछले सात हफ्तों से पंजाब-चंडीगढ़ बॉर्डर पर सिख संगठनों के नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण विरोध प्रदर्शन चल रहा है. कुल मिलाकर अबतक विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहा है.

प्रदर्शनकारियों और सरकार (ज्यादातर मामले केंद्र के पास) के बीच वास्तविक संवाद की गुंजाइश है. यदि इन कैदियों के मामलों की जांच उनके व्यक्तिगत गुण-दोष के आधार पर की जाती है, तो इससे कुछ कैदियों की रिहाई हो सकती है और उनके परिवारों और समर्थकों को राहत मिल सकती है. पंजाब में पॉलिटिकल मिडिल ग्राउंड को मजबूत करने के लिए एक अच्छा कॉन्फिडेंस बिल्डिंग (विश्वास निर्माण) उपाय भी होगा.

हालांकि अगर राजनीतिक कौशल और ध्रुवीकरण में से एक को चुनने का विकल्प दिया गया, तो केंद्र के पास एक स्पष्ट ट्रैक रिकॉर्ड है कि उसने किस विकल्प को चुना है.

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