दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों
बशीर बद्र का ये शेर आज की सियासत में भी एकदम मौजूं हैं. सत्ता का खेल ही कुछ ऐसा है, जहां दोस्त को दुश्मन बनते और दुश्मन को दोस्त बनते देर नहीं लगती. इसलिए जब संबंध बदले, तो भी रिश्तों में गरमाहट बनी रहे, इसके लिए जुबां पर संयम रखना बहुत जरूरी है. बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने यह सियासी तकाजा अनुभव से सीखा है. ठोकरें खाने के बाद सीखा है. इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जय प्रकाश सिंह को पद से बर्खास्त कर दिया है.
जय प्रकाश सिंह की जुबां बहक गई थी. उन्होंने पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर राहुल गांधी को 'विदेशी खून' बताया था और कहा था कि राहुल कितनी भी कोशिश कर लें, प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, क्योंकि पीएम का फैसला पेट (वंश) से नहीं, बल्कि पेटी (वोट) से तय होगा.
मायावती का कहना है कि उनकी पार्टी का कोई नेता किसी विरोधी पार्टी के राष्ट्रीय नेता के बारे में ऐसी हल्की बात कहे, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं. इसलिए उन्होंने जय प्रकाश सिंह को हटा दिया है. इस एक कदम से मायावती ने पार्टी के भीतर और बाहर, एकसाथ कई संदेश दिये हैं.
BSP में व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की जगह नहीं
उत्तर प्रदेश चुनाव में बड़ी हार के बाद मायावती ने बीएसपी में कई परिवर्तन किए हैं. सबसे पहला परिवर्तन तो यही किया कि उन्होंने व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को किनारे रख दिया. जिस समाजवादी पार्टी के नाम से उन्हें चिढ़ थी, उसी समाजवादी पार्टी के साथ अब वो समझौते की बात कर रही हैं.
दूसरा काम यह किया कि अपने भाई आनंद कुमार को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से हटा दिया और उनकी जगह जय प्रकाश सिंह को उपाध्यक्ष बनाया. इस फैसले के साथ उन्होंने यह वादा किया कि बीएसपी में परिवारवाद नहीं चलेगा.
ये दोनों बदलाव उनकी सोच में हुए विस्तार को जाहिर करते हैं. राहुल गांधी पर ओछी टिप्पणी के बाद जय प्रकाश सिंह को पार्टी पदों से हटाते हुए मायावती ने बीएसपी के नेताओं-कार्यकर्ताओं को यही संदेश दिया कि उन सभी को सियासी मर्यादा का पालन करना होगा. व्यक्तिगत टिप्पणियों से बचना होगा.
बीएसपी का कैडर हमेशा से ही अनुशासित रहा है. मायावती खुद भी बेवजह की बयानबाजी से बचती रही हैं. जो कहना होता है, वो कहती हैं और चली जाती हैं. उन्होंने यही संदेश पार्टी के बाकी नेताओं को दिया है कि बात उतनी ही हो जितनी जरूरी है.
समझौते की पहली शर्त एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा
देश की राजनीति में मायावती खुद को और अपनी पार्टी को बड़ी भूमिका के लिए तैयार कर रही हैं. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में गठजोड़ के लिए कांग्रेस की पहली पसंद बहुजन समाज पार्टी थी. तब मायावती तैयार नहीं हुईं. लेकिन अब कांग्रेस से मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में गठबंधन की बात हो रही है.
मायावती का कहना है कि समझौता सम्मानजनक होना चाहिए. इसका अर्थ यह है कि सीटों का बंटवारा ऐसा हो, जिससे बहनजी और उनकी पार्टी को मजबूती मिले. उनका सम्मान बढ़े. जय प्रकाश को हटाकर बहनजी ने कांग्रेस को भी एक बड़ा संदेश दिया है. बताया है कि उन्हें कांग्रेस के सम्मान की फिक्र है, लिहाजा कांग्रेस को भी उनके सम्मान की रक्षा करनी होगी.
व्यापक जमीन तैयार करने की कोशिश
जय प्रकाश सिंह को पद से हटाते वक्त बहनजी ने कांग्रेस को 'विरोधी पार्टी' कहा. यह राजनीति की अनिश्चितता को बयां करता है. मतलब कांग्रेस से गठबंधन हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है. समझौता हुआ, तो यह बीएसपी और कांग्रेस दोनों के लिए अच्छी बात होगी. अगर नहीं हुआ, तो भी चुनाव तो लड़ना ही है. और तब तो तीनों राज्यों में बीएसपी को बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस के खिलाफ भी मैदान में उतरना होगा.
अकेले चुनाव लड़ने के लिए खुद को इतना मजबूत करना होगा कि वजूद बना रहे. यही वजह है कि मायावती ने कांग्रेस के लिए 'विरोधी पार्टी' का इस्तेमाल किया.
उन्होंने बीएसपी नेताओं को हिदायत देते हुए कहा कि वो सभी दलित और अन्य पिछड़े वर्ग में जन्मे अपने महान संतों, गुरुओं और महापुरुषों व अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के बारे में भी केवल उनके जीवन संघर्ष और सिद्धांतों की चर्चा करें. ऐसा करते वक्त दूसरों के संतों, गुरुओं और महापुरुषों के बारे में अभद्र और अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल कतई न करें.
इसका मतलब साफ है. वो बीएसपी को सिर्फ दलितों की पार्टी के टैग से बाहर निकालकर एक ऐसी पार्टी के तौर पर स्थापित करना चाहती हैं, जिसकी नीतियां मानवतावादी हैं. मायावती के मुताबिक ऐसा तभी होगा, जब उनकी पार्टी के नेता-कार्यकर्ता दूसरे दलों के बिछाए ट्रैप में नहीं फंसेंगे और बहस आम आदमी की जरूरतों से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित रखेंगे.
अब गेंद कांग्रेस के पाले में
मायावती के इस फैसले के बाद अब सारा ध्यान कांग्रेस पर केंद्रित हो गया है. जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस मध्य प्रदेश में तो बीएसपी के साथ समझौता करना चाहती है, लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वह अकेले दम पर चुनाव लड़ना चाहती है, जबकि बीएसपी तीनों राज्यों में हिस्सा मांग रही है. पिछले तीन विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें, तो राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी बीएसपी का 4-8 प्रतिशत वोट शेयर रहा है.
अगर हम पूरे राज्य को छोड़ कर सिर्फ उन सीटों की बात करें, जिन सीटों पर बीएसपी ने अपने उम्मीदवार उतारे थे, तो यह हिस्सेदारी और अधिक बढ़ जाती है. ऐसे में अगर कांग्रेस मायावती को मोदी विरोधी राजनीति में मुख्य सहयोगी के तौर पर देखती है, तो उसे बीएसपी के साथ सम्मानजनक समझौता करना ही चाहिए और वह भी तीनों राज्यों में करना चाहिए.
लिहाजा गेंद अब कांग्रेस के पाले में है और उसके फैसले पर सबकी नजरें टिकी हैं. इस फैसले से 2019 के आम चुनाव की भी दशा और दिशा तय होगी.
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