होली के रंगों का खुमार अभी ठीक से उतरा भी नहीं कि उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारे से बड़ी खबर की फुहार आनी शुरू हो गई. बीजेपी को घेरने के लिए हाथी, साइकिल की सवारी के लिए राजी हो गया है. इस खबर ने लोगों को चौंका भी दिया और ये भी सोचने पर मजबूर किया कि राजनीति की गाड़ी कभी सीधी पटरी नहीं चलती, ये तो अपने हिसाब से पटरी बदलती रहती है और फायदे को देख कर अपनी ट्रेन में धुर विरोधी को भी चढ़ा और उतार देती है.
एसपी और बीएसपी में गठबंधन
अब तक सियासी पंडित यही मानते थे कि एसपी और बीएसपी के बीच खाई इतनी गहरी है जो कभी पट ही नहीं सकती. और अगर पट सकती तो उत्तर प्रदेश के राजनीतिक मैदान में दूसरा कोई बाजी मार ही नहीं सकता है. यही वजह है कि राजनीति के जानकार अब तक कांग्रेस और एसपी की नहीं बल्कि एसपी और बीएसपी के गठबंधन की बात करते थे. क्योंकि बीजेपी के जीत के अश्वमेघ घोड़े का लगाम थामने की ताकत बिना उसके एसपी-बीएसपी के साथ के संभव नहीं दिखता.
केर-बेर की दोस्ती नहीं : योगी
उपचुनाव को लेकर एसपी और बीएसपी के हाथ मिलाने की खबर जैसे ही खास से आम हुई वैसे ही बीजेपी हरकत में आ गई. इस गठबंधन की हवा निकालने की कमान खुद योगी थामते नजर आये. सबसे पहले इस 'दोस्ती' पर तंज कसते हुए योगी आदित्यनाथ ने कहा- केर बेर का साथ कैसा? वहीं दूसरी तरफ दलितों को 'स्टेट गेस्ट हाउस काण्ड' और बहुजन के प्रतीकों के स्मारकों को ध्वस्त करने की चेतावनी किसने दी इसकी भी याद भी दिलाई. योगी ने इस बात को यूं ही नहीं कहा, उन्हें पता है कि दलित वोट की क्या अहमियत है.
इसका अंदाजा उस वक्त भी लगा था जब 1995 में गेस्ट हाउस काण्ड के समय लखनऊ में तत्कालीन एसएसपी रहे ओ पी सिंह का उत्तर प्रदेश के नए डीजीपी के तौर पर नाम का एलान तो हो गया फिर भी ये पद 20 दिनों से ज्यादा खाली रहा. क्योंकि बीजेपी को इस बात की आशंका थी कि डीजीपी ओ पी सिंह के नाम से दलित कहीं बिदक न जाए.
उपचुनाव में गठबंधन नहीं समर्थन : मायावती
इस दिनों सियासी मजबूरी ऐसी है कि न उगलते बन रहा है न निगलते बन रहा है. मायावती ने कहा कि हम गठबंधन करेंगे तो खुलकर करेंगे. उन्होंने कहा है कि उपचुनाव में एसपी को सिर्फ समर्थन किया है मकसद बीजेपी को हराना है. मायावाती ने साफ किया है कि 2019 के चुनाव के लिये गठबंधन का फैसला अभी नहीं लिया.
क्यों हुआ था 22 साल पहले एसपी-बीएसपी में ‘तलाक’
मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया था. इसके एक साल बाद हुए चुनाव से पहले बीएसपी के साथ एसपी ने रणनीतिक गठबंधन किया. उस वक्त बीएसपी की कमान कांशीराम के पास थी. तत्कालीन जरूरतों को देखते हुए एसपी और बीएसपी के बीच समझौता हुआ. समझौते के तहत एसपी 256 सीटों पर चुनाव लड़ी और बीएसपी 164 सीटों पर. इसका परिणाम ये हुआ कि एसपी को 109 और बीएसपी को 67 सीटें मिलीं.
लेकिन 1995 में कांशीराम और मुलायम के रिश्ते कड़वे हो गए. मई 1995 में ये दोस्ती टूट भी गई. 2 जून 1995 को ‘मीराबाई गेस्ट हाउस कांड’ भी हो गया और ये रिश्ता हमेशा के लिए बिगड़ गया था.
इस दोस्ती को कार्यकर्ता पचा पाएंगे ?
2 जून 1995 को 'मीराबाई गेस्ट हाउस कांड' सिर्फ मायावती और कांशीराम को ही नहीं बल्कि उनके कार्यकर्ताओं को भी अंदर तक हिला गया था. क्योंकि उसके पहले नई-नई दोस्ती हुई थी और कार्यकर्ताओं ने इस दोस्ती को जमीन पर उतारने के लिये जीतोड़ मेहनत की थी लेकिन इसी दोस्ती में जब इतनी बड़ी बेवफाई मिली तो बीएसपी के कार्यकर्ताओं ने उतनी ही बड़ी ताकत के साथ जमीन पर दोहरा काम करना शुरू किया. एक तो अपनी पार्टी को खड़ा करने का और दूसरे एसपी को पटकनी देने का मकसद कार्यकर्ताओं ने बना लिया था.
एसपी और बीएसपी के कार्यकर्ताओं का ये विरोध जमीन पर भी रहा है. एसपी के मूल वोटर यादव और बीएसपी के मूल वोटर दलितों में झड़पों की खबर आम रही है. इसी वजह से बीएसपी के कार्यकर्ता कांग्रेस के गठबंधन से तो परहेज नहीं करते थे लेकिन एसपी के गठबंधन से उन्हें परहेज रहा.
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