चढ़ गुंडन की छाती पर,
मुहर लगेगी हाथी पर.
इस नारे में गुंडन का मतलब है समाजवादी पार्टी (एसपी) के लोग. कुछ साल पहले तक बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती इस नारे की दहाड़ के साथ अपनी चुनावी रैलियों की शुरुआत करती थीं. तो आखिर कैसे वही मायावती फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में समाजवादी पार्टी उम्मीदवारों को समर्थन देने पर राजी हो गईं?
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दोस्ती के पीछे की डील
यूपी में बुआ-बबुआ यानी माया-अखिलेश की दोस्ती कितनी मजबूत है और कितनी मजबूर, ये जानने के लिए जरा ये डील समझिए. दरअसल फिलहाल यूपी विधानसभा में खस्ता हालत के चलते बीएसपी किसी उम्मीदवार को राज्यसभा भेजने की हैसियत में नहीं है. लेकिन इसी महीने वाले राज्यसभा चुनाव में मायावती या तो खुद जाना चाहती हैंं या अपने भाई आनंद को भेजना चाहती हैं. मायावती ने कहा है:
राज्यसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी अपने अतिरिक्त वोट बीएसपी प्रत्याशी को देगी. इससे एसपी के साथ बीएसपी का भी एक सदस्य राज्यसभा जा पाएगा. बदले में विधान परिषद चुनाव में बीएसपी अपने वोट समाजवादी उम्मीदवार को देगी.मायावती, अध्यक्ष, बीएसपी
कांग्रेस यूपी से राज्यसभा जाने के लिए मायावती की मदद करेगी, तो बीएसपी मध्य प्रदेश में कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन करेगी.मायावती, अध्यक्ष, बीएसपी
अब इस समझिए यूपी विधानसभा का गणित.
तो अब आपके लिए अंदाजा लगाना आसान होगा कि आखिर क्यों सांप-नेवले का रिश्ता रखने वाले एसपी और बीएसपी एक साथ आ गए. लेकिन ये रिश्ता 2019 चुनावों तक चले, इसके लिए सामने कई चुनौतियां भी हैं.
गठबंधन का नेता कौन?
बड़ा सवाल ये है कि एकसाथ आने के बाद मायावती और अखिलेश में कौन किसे लीडर मानेगा? साल 1993 में बीएसपी ने जब मुलायम को मुख्यमंत्री स्वीकार किया था, तो हालात कुछ और थे. मायावती काफी जूनियर थीं और पार्टी अध्यक्ष कांशीराम कभी मुख्यमंत्री बने नहीं थे.
लेकिन उसके बाद स्टेट गेस्ट हाउस कांड, जिसमें मायावती की हत्या की कोशिश हुई, जैसी घटनाओं के बाद दोनों पार्टियों में कड़वाहट नफरत की हद तक पहुंच गई. ऐसे में मायावती के लिए अखिलेश का नेतृत्व स्वीकार करना आसान नहीं दिखता. यही स्थिति अखिलेश के लिए भी है.
सपा सीनियर्स का ईगो
मायावती को बुआजी कहने वाले अखिलेश हालात से समझौता कर भी लें, लेकिन मुलायम और शिवपाल जैसे सीनियर कैसे करेंगे. आखिर 23 साल की दुश्मनी है और इस दौरान दोनों ही पक्ष एक-दूसरे को लेकर क्या-क्या नहीं कह चुके हैं.
बात सिर्फ नेताओं की नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं की भी है. दोनों पार्टियों के जमीनी सिपाही हमेशा एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें ताने रहे हैं. ऐसे में अखिलेश को घर से लेकर ग्राउंड तक सहमति बनाने में खासी मशक्कत करनी पड़ेगी.
अगड़ों का मोह
किसी जमाने में खांटी दलित राजनीति करने वाली मायावती की रैलियों में नारा लगता था:
तिलक, तराजू और तलवार
इनको मारो जूते चार.
यानी ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर समुदायों को सीधे चुनौती. लेकिन बाद के बदले हालात में मायावती ने दलितों के साथ ब्राह्म्णों का समीकरण बिठाया और सतीश चंद्र मिश्रा जैसे नेताओं का बीएसपी में कद बढ़ा.
अखिलेश के साथ दोस्ती पिछड़ों (ओबीसी) और दलितों (एससी) का मजबूत गठबंधन तो दिखती है, लेकिन सवर्णों का मोह छोड़ना भी आसान नहीं. यूपी के करीब 23 फीसदी सवर्ण (ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य) सूबे की सियासत को सीधे प्रभावित करते हैं.
दलितों पर बीजेपी के डोरे
पीएम नरेंद्र मोदी देशभर में दलित और पिछड़ों को अगड़ों के साथ मिलाने की रणनीति पर पिछले कई महीनों से जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं. मकसद हिंदुत्व की छतरी के नीचे सभी हिंदुओं को लाकर चुनावी लड़ाई को 85 Vs 15 यानी हिंदू बनाम मुस्लिम बनाना है. ऐसे में मायावती और अखिलेश के लिए दलित व पिछड़ों के सहारे नैया पार लगानी की योजना आसान नहीं लगती.
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