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महाराष्ट्र में प्लेमेकर के साथ ही हो गया 'खेला'.. इन 5 फैक्टर ने MVA की लुटिया डुबोई

Maharashtra Election 2024 : महाराष्ट्र का 'किंग' कौन? एक बार फिर जवाब है महायुति.

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Maharashtra Election 2024: महाराष्ट्र का 'किंग' कौन, एक बार फिर जवाब है महायुति. शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े प्लेमेकर माने जाते हैं. उद्धव ठाकरे शिवसेना की विरासत का बोझ ढोने का दावा करते हैं. क्रांगेस महाराष्ट्र के इतिहास में सबसे सफल पार्टी रही है... इन सबके बावजूद तीनों का गठबंधन- महाविकास अघाड़ी (MVA) महाराष्ट्र में एकदम चित्त हो गयी है.

​​​​​​बीजेपी, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी की गठबंधन, महायुति को 288 विधानसभा सीटों वाली महाराष्ट्र में 230 सीटें मिलती दिख रही हैं. वहीं विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी (MVA) 50 सीटों पर सिमटती दिख रही है.

सवाल है कि मुश्किल से 6 महीने पहले हुए लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र फतह करने वाली एमवीए इसबार फेल कैसे हो गई? जवाब खोजने की कोशिश करते हैं.

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1. महायुति के चुनावी वादों का काउंटर तो दिया लेकिन प्रचार नहीं

महाराष्ट्र में महायुति के जीत की सबसे बड़ी वजहों में से एक उसकी मौजूदा सरकार की योजनाएं रहीं. 2023 के एमपी चुनावों में बीजेपी सरकार के सामने एंटी-इनकमबैंसी की बड़ी चुनौती थी लेकिन पार्टी ने 230 में से 163 सीट अपने पाले में कर लिए तो क्रेडिट शिवराज सरकार की लाड़ली बहन योजना को दिया गया.

इसबार महाराष्ट्र में महायुति की शानदार जीत के बाद कई पॉलिटिकल पंडित मानते हैं कि महिलाओं के लिए सरकार की लाडकी बहीण योजना ने निर्णायक भूमिका निभाई है.

पिछले साल जून में, महायुति सरकार ने गरीब महिलाओं के लिए मासिक वित्तीय सहायता कार्यक्रम, लाडकी बहीण योजना की घोषणा की थी. महायुति ने अपने घोषणापत्र में ऐलान किया था कि अगर फिर से उनकी सरकार बनती है तो महिलाओं को हर महीने 1500 से बढ़ाकर 2100 रुपए दिए जाएंगे.

एमवीए ने अपने घोषणापत्र में इसका काउंटर करते हुए कहा कि वह महिलाओं को महालक्ष्मी स्कीम के तहर हर महीने 3000 रुपए देगी. लेकिन घोषणापत्र 10 नवंबर को जारी किया यानी चुनाव के सिर्फ 10 दिन पहले. महायुति सरकार की चली आ रही पॉपुलर योजना के काउंटर के लिए और जनता के जेहन में उसे बैठा पाने के लिए यह 10 दिन शायद कम पड़ गए.

2. कोई राज्यव्यापी नैरिटिव सेट नहीं किया

महाराष्ट्र के ये एकतरफा नतीजे बताते हैं कि एमवीए मौजूदा महायुति सरकार के खिलाफ कोई राज्यव्यापी नैरेटिव सेट करने में विफल रही है. वैसे तो पिछले 10 सालों में से साढ़े सात सालों तक सत्ता में रहने के बाद, महायुति के खिलाफ स्पष्ट सत्ता विरोधी भावना यानी एंटी-इनकंबेंसी होनी चाहिए थी. लेकिन चुनाव स्थानीय होने की वजह से महायुति के खिलाफ पूरे राज्य में कोई खास मुद्दे पर नकारात्मक भावना नहीं थी.

3. बीजेपी आक्रामक प्रचार से फ्रंट फुट पर खेलती रही, एमवीए के पास कोई तोड़ नहीं

जो दिखता है, वो बिकता है.. यह सिर्फ कहावत नहीं, बार-बार आजमायी हुई एक सफल रणनीति है. कटेंगे तो बटेंगे, एक हैं तो सेफ हैं जैसे नारों के साथ बीजेपी ने महायुति की तरफ से आक्रामक प्रचार का जिम्मा संभाल रखा था. पार्टनर अजित पवार को भले ये नारे पसंद नहीं आ रहे थे लेकिन पूरा गठबंधन इस नारों के साथ खबरों में था. इन नारों की चाशनी में ध्रुवीकरण भी हुआ और नतीजे बता रहे हैं कि इसका फायदा गठबंधन के सभी साथियों को मिला है.

लेकिन इसके खिलाफ एमवीए का प्रचार आक्रामक नहीं था. संविधान बचाओ और जातिगत जनगणना जैसे जो नारे राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में भुनाए थे, वो एकबार फिर उन्हें ही दोहराते नजर आए. यह नारे उनके लिए वो काठ की हांडी साबित हुई जो बार बार चुल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती.
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4. उद्धव और शरद पवार के लिए अपनी गलतियां भारी पड़ रहीं

2019 के विधानसभा चुनाव के वक्त शिवसेना बंटी नहीं थी और उसने 16.41% वोट शेयर के साथ 56 सीटें जीती थीं. इसबार के विधानसभा चुनाव में पार्टी में दो फाड़ हो चुका था और अकेले एकनाथ शिंदे गुट वाली शिवसेना 55 सीटों पर जीतती दिख रही है, जबकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना 17 सीटों पर ही सिमटती दिख रही है. असली शिवसेना कौन के नैरेटिव में शायद एकनाथ शिंदे गुट ने 'हम हैं' वाला मुहर लगा दी है.

शिवसेना जैसी पार्टी के कैडर के लिए आइडियोलॉजी ही अहम है और सेक्यूलर दिखने की कोशिश करते उद्धव अपने कैडर और पूराने कोर वोटर को शायद नाराज कर सके हैं. सिमपैथी वोट की बदौलत लोकसभा चुनाव में भी 21 में से 9 सीट ही जीत पाने वाले उद्धव इस बार अपनी राजनीतिक स्थिति बहुत कमजोर कर चुके हैं.

दूसरी तरफ महाराष्ट्र में सबसे बड़े प्लेयर कहे जाने वाले शरद यादव चुनावी पिच पर कंफ्यूज खड़े दिख रहे थे. बागी अजित पवार के बाउंसर को पुल शॉट मारने की जगह हर बार डक करते रहे. 2019 के चुनाव में संयुक्त एनसीपी ने 16.71% वोट शेयर के साथ 54 सीटें जीती थीं. लेकिन इस बार शरद पवार वाला गुट केवल 14 सीट पर सिमटता दिख रहा है जबकि अजित पवार गुट 37 सीटों पर बढ़त के साथ 'असली एनसीपी हम हैं' वाला टैग दिखा रहा है.

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5. मराठा मुद्दे को शांत रहने दिया

इस बार के महाराष्ट्र चुनाव के नतीजों पर प्रभाव डालने वाले अहम फैक्टर्स में से एक ओबीसी वोटों के एकीकरण को माना जा रहा है. महायुति गठबंधन के हिस्से के रूप में बीजेपी ने गैर-मराठा वोटों को एकजुट करने के लिए सक्रिय रूप से काम किया, खासकर ओबीसी समुदाय के बीच.

बीजेपी ने 90 के दशक से ही महाराष्ट्र में 'माधव' फॉर्मुले पर काम किया है, यानी माली, धनगर और वंजारी समुदायों को अपने साथ लाना. इस रणनीति का उद्देश्य अपने ओबीसी वोटबैंक को मजबूत करना और मराठा समुदाय के प्रभुत्व का मुकाबला करना था, जो उस समय कांग्रेस का समर्थन कर रहा था.

लगता है ओबीसी वोटों के एकीकरण ने बीजेपी के पक्ष में काम किया है. इसने पार्टी को कई राज्यों और केंद्र में सरकारें बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हाल के हरियाणा चुनावों में भी यह रणनीति सफल साबित हुई. कांग्रेस जाट वोटों पर ध्यान देती रही और बीजेपी ने यहां गैर-जाट वोटों पर ध्यान दिया और गैर-जाट ओबीसी वोट बैंक मजबूत कर लिया.

ऐसा लगता है कि एमवीए ने महायुति के खिलाफ मराठा आरक्षण के मुद्दे को गर्माने का जिम्मा मनोज जारंगे पाटिल के हिस्से ही छोड़ दिया. दूसरी तरफ जारंगे विधानसभा चुनाव के ठीक पहले पीछे हट गए. उनके निर्देश पर कुछ निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरे भी तो उनके ही कहने पर बाद में नाम वापस ले लिया.

60 से कम सीटों पर सिमटने के बाद कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार के लिए सिर्फ सवाल ही सवाल हैं. जवाब खोजने के लिए जनता ने उन्हें 5 साल का वक्त और विपक्ष की सीट दी है.

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