ADVERTISEMENTREMOVE AD

महाराष्ट्र की राजनीति के मोहरों पर फिट बैठते हैं ये मुहावरे

हरेक मुहावरा दंगल के अलग-अलग खिलाड़ियों बीजेपी, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की मार्कशीट बनकर उभरता है

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर अचानक कई मुहावरे दिमाग में कौंधने लगे. मसलन, ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’, ‘वीर भोग्य वसुन्धरा’, ‘घर का भेदी लंका ढाए’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘सैय्यां भये कोतवाल अब डर काहे का’, ‘जैसी करनी वैसी भरनी’, ‘अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत’, ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाये’… वगैरह-वगैरह. 24 अक्टूबर से महाराष्ट्र में जारी सियासी दंगल को देखें तो इनमें से अलग-अलग मुहावरे, अलग-अलग पार्टियों पर बिल्कुल सटीक ढंग से फिट बैठते हैं. हरेक मुहावरा दंगल के अलग-अलग खिलाड़ियों बीजेपी, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की मार्कशीट बनकर उभरता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’

शिवसेना के गच्चा देने के बाद बीजेपी ने बीते महीने भर में जिस तरह की हरकत दिखाई, वो सोचने पर मजबूर करने वाली है. पार्टी ने कथित तौर पर राज्यपाल से मनमानी-भरे फैसले कराए, शिवसेना और उसकी वादा-खिलाफी को ‘पापी’ और ‘पाप’ की उपमा दी, लेकिन जिन अजित पवार को वो भ्रष्ट बता रही थी उन्हें अब पुण्यात्मा बना दिया. बीजेपी ने आखिर में इतना ही साबित किया कि शायद सत्ता की भूख कुछ भी करा देती है.

बीजेपी और इसके हुक्मरान बेवकूफ तो हो नहीं सकते. उनके पास हरेक ‘पाप’ को ‘पुण्य’ बना देने का वरदान है. दिल्ली में उसकी प्रचंड बहुमत वाली सरकार है. ऐसा लगता है कि पार्टी को किसी तरह की नैतिकता का डर नहीं सताता. क्योंकि वो आज इतनी समर्थ या मजबूत है कि अपने किसी भी सियासी विरोधी को डरा-धमका सकती है. कानून और जनादेश से बीजेपी को फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता. आज वो सत्ता में है, समर्थ है, इसीलिए उसका आचरण ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’ वाला है.
0

‘वीर भोग्य वसुन्धरा’

बीजेपी ने ऐसा ही सार्मथ्य जम्मू-कश्मीर, गोवा और कर्नाटक में भी दिखाया है. सबने देखा कि बीजेपी ने कितनी तपस्या करके अभी-अभी हरियाणा में सरकार बनायी है. ऐसी ही तपस्याएं पार्टी ने गोवा, कर्नाटक, अरूणाचल और बिहार जैसे राज्यों में की थीं. जिन्हें बेहद आदर के साथ बीजेपी के चाणक्य की उपाधि मिली हुई है उन्होंने हर बार अपने सामर्थ्य को साबित करके दिखाया है.

जो कुछ हुआ वो डंके की चोट पर हुआ, ताल ठोंककर हुआ. चंद घंटों में नये ‘दोस्त’ का बनना और फिर उसे टिकाऊ और नैतिक जीवन-साथी बना देना, किसी चमत्कार से कम नहीं है. इसीलिए सक्षम और सामर्थ्यवान बीजेपी में कोई दोष नहीं ढूंढा जा सकता है. पार्टी को अगर शिवसेना मझधार में छोड़कर जा सकती है तो अजित पवार उसके पास क्यों नहीं आ सकते?

जब साजिशें करके सरकार को समर्थन दिया जा सकता है तो विधायकों के दस्तखत वाले खत को राज्यपाल के सामने पेश करना कौन सी बड़ी बात है. वो खत, जिस पर शायद विधायक दल के नेता अजित पवार ने ये कहकर साइन करवा लिए कि इनका इस्तेमाल शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की साझा सरकार के लिए होगा. पार्टी आलाकमान शरद पवार के मुताबिक, दस्तखत पाते ही विधायक दल के नेता ने जो ‘कवर लेटर’ तैयार किया उसमें बीजेपी को समर्थन की बात लिख दी, और कुछेक घंटों के भीतर ही डिप्टी सीएम पद की शपथ भी ले ली. 

सारी साजिश को आनन-फानन और गुपचुप तरीके से अंजाम दिया गया. पता ही नहीं चला कि कैसे चुटकियों में फडणवीस के दावों की जांच हो गयी और केन्द्रीय कैबिनेट की मंजूरी के बगैर राष्ट्रपति शासन को भी हटा दिया गया. महीनों के काम को चुटकियों में कर दिखाना ही तो परमवीर चक्र पाने लायक वीरता है. इसी वीरता और पराक्रम को तो बीजेपी ने साबित कर दिखाया है. लिहाजा, इस बीजेपी रूपी वीर को महाराष्ट्र रूपी वसुन्धरा को भोगने का अधिकार मिलना स्वाभाविक था.

कर्नाटक और गोवा में जिन विधायकों ने येदुरप्पा को विश्वास मत नहीं जीतने दिया, उन्हें ही बीजेपी ने अलग-अलग ‘सेटिंग्स’ से जीतकर दिखा दिया. कांग्रेस और जेडीएस में बैठे लोगों पर बीजेपी जो आरोप लगाती थी, उसे भूल गई और उन्हें धो-पोंछकर उन्हें पार्टी में लाया गया. विधायकी गई तो क्या हुआ, फिर से टिकट देकर चुनावी मैदान में तो उतार दिया गया है ना! क्या बीजेपी और दलबदलुओं का कुछ बिगड़ा? ऐसी ही विजय पताका हरियाणा, गोवा और जम्मू-कश्मीर में भी फहरायी गयी तो किसी भी बीजेपी पर कोई आंच आई? ऐसी ही मिसालों से, ऐसे ही स्वर्ण पदकों से बीजेपी का पिटारा भरा पड़ा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘घर का भेदी लंका ढाए’

ये मुहावरा उस विभीषण के लिए बना था, जिसने राम को बताया था कि रावण की नाभि में अमृत है. तब राम ने रावण की नाभि पर ऐसा बाण मारा कि वो अमरत्व के गुण वाले अमृत के जल जाने का चमत्कार हो गया. ऐसा लगता है कि विभीषण जैसा काम ही अजित पवार ने किया है और पुरस्कार स्वरूप उन्हें उपमुख्यमंत्री के पद के साथ शायद भ्रष्टाचार के मामलों से भी मुक्ति मिल जाए.

शिवसेना और अजित पवार के लिए नैतिकता और राजनीतिक शुचिता के लिए अलग-अलग पैमाना कैसे हो सकता है? ‘तुम करो तो रासलीला हम करें तो करेक्टर ढीला’, ये कैसे चलेगा? अरे! ज़्यादा पुरानी बात थोड़े ही है कि कर्नाटक में कांग्रेस के खिलाफ लड़ी जेडीएस ने चुनाव के बाद उसी के साथ मिलकर सरकार बनायी थी. तो फिर अगर वहां विधायकों की खरीद-फरोख्त हुई तो गुनाह कैसे हो गया? इसलिए अजित पवार ‘घर का भेदी लंका ढाए’ वाले लगते हैं. कभी उनके गुरु चाचा ने भी तो ऐसी ही मिसालें कायम की थीं.

‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’

एक बाद एक अब राज्यपालों पर केंद्र सरकार की कठपुतली होने के आरोप लगने लगे हैं. कांग्रेस और गैर-कांग्रेसी सत्ताओं में भी राज्यपाल की भूमिका हमेशा ऐसी ही समझी गई है. तो भगत सिंह कोश्यारी को क्यों कोसा जाए? अगर कांग्रेस कहे कि राज्यपाल कोश्यारी का बीजेपी को सरकार बनाने के लिए न्योता देना इतिहास में काला पन्ना है तो कांग्रेस के इतिहास में क्या काले पन्नों की भरमार नहीं रही है?

लिहाजा, जब तक राज्यपालों पर संविधान के मौजूदा प्रावधान ही लागू होते रहेंगे, तब तक वो केंद्र की ‘कठपुतली’ की तरह ही देखा जाएगा. विपक्ष चाहे तो हिम्मत करके ऐलान करे कि वो जब भी सत्ता की सत्ता में आएगा, तो राज्यपाल की शक्तियों को तय करने वाले अनुच्छेद 164 और राज्य सरकार भंग करके राष्ट्रपति शासन लगाने वाले अनुच्छेद 356 को खत्म करके दिखाएगा. ठीक वैसी ही जैसे बीजेपी हमेशा कहती रही है कि वो सत्ता में आएगी तो 370 खत्म करेगी और वक्त आने पर उसने करके दिखा भी दिया. 
ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘सैय्यां भये कोतवाल अब डर काहे का’

बीजेपी को शायद इस बात का इत्मिनान है कि लोकतंत्र के सैय्यां यानी संसद उसकी मुट्ठी में है. उसकी अकाट्य दलीलें और 'शानदार' वकील उसे सुप्रीम कोर्ट में भी जीता देते हैं. विपक्षी आरोप लगाते हैं कि चुनाव आयोग भी वैसी ही भाषा बोलता है, जैसी बीजेपी बोलने को कहती है. इस लिहाज से, जब सारे कोतवाल अपने हों, तो फिर डर का सवाल ही क्यों उठना चाहिए. जो करना है खुलकर करो, बिन्दास करो.

आरोप लग रहे हैं कि बीजेपी ने महाराष्ट्र में यही किया है. क्या देवेन्द्र फडणवीस ये रट नहीं लगाये हुए थे कि सरकार तो बीजेपी की ही बनेगी और वही मुख्यमंत्री बनेंगे? क्या वो सच्चे साबित नहीं हुए? बाकी कांग्रेस या और पार्टियों ने क्या कभी विपक्ष को सन्तुष्ट करके राजनीति की थी जो अब बीजेपी भी वैसा करने के लिए अभिशप्त हो? महाराष्ट्र में सरकार बन चुकी है. शायद अब विकास होगा, बेरोजगारी पर भी सर्जिकल स्ट्राइक होगी और आर्थिक मंदी के खौफनाक बादल फडणवीस को देख अपना रास्ता बदल लेंगे.

‘जैसी करनी वैसी भरनी’

शरद पवार को अपनी राजनीति पर बड़ा गुमान था. अब भी है. उन्हें लगता है कि भतीजे ने तो साथ छोड़ दिया लेकिन जिन्हें उन्होंने कार्यकर्ताओं से उठाकर नेता और विधायक बनवा दिया वो शायद अहसान-फरामोशी नहीं करेंगे. ईश्वर उनकी मुराद पूरी करे तो हमें क्या ऐतराज हो सकता है लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जैसे पैंतरे वो कांग्रेस, शिवसेना के साथ खेल रहे थे, उसका अंजाम तो कुछ ऐसा हो ही सकता था. इस जन्म के कर्मों का फल तो सबको इसी जन्म में भोगना पड़ता है. होनी को अनहोनी बताने से कर्मों का फल छिपने वाला नहीं है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’

कांग्रेस कितने झटके खाकर संभलेगी? इस सवाल का जवाब तो शायद विधाता के पास भी ना हो. कहने को तो उसके पास राजनीति के एक से एक चाणक्य हैं. लेकिन सभी एक जमाने से ‘आउट ऑफ फॉर्म’ ही चल रहे हैं. बेचारे बार-बार रन-आउट ही हो रहे हैं. राहुल से पहले भी और राहुल के बाद भी. रोजाना, तरह-तरह की बयानबाजी की झड़ी लगाने की क्या जरूरत थी? उसे ये गुण बीजेपी से सीखना चाहिए.

अजित पवार कब बीजेपी के साथ जाने को तैयार हो गए, एनसीपी और कांग्रेस के रणनीतिकारों को इसकी हवा तक नहीं लगी. हरियाणा में भी बीजेपी ने बाजी मार ली. हरियाणा पर हुड्डा की पकड़ के बारे में कांग्रेस को तब समझ में आया, जब दुष्यंत जनादेश का ‘चीर हरण’ कर चुके थे. इससे पहले गोवा में भी कांग्रेस जब नींद से जागकर अंगड़ाई लेते हुए अखाड़े में पहुंची, तब तक ‘चिड़िया चुग गयी खेत’ हो चुका था. उत्तराखंड में भी विजय बहुगुणा कब कांग्रेस के हाथ से जा फिसले, इसकी पार्टी आलाकमान को भनक तक नहीं लगी थी. यही हाल अरूणाचल में भी हुआ. लेकिन कभी लगा नहीं कि पार्टी अपने अनुभवों से कुछ नया सीखने को तैयार है. जाहिर है, पार्टी को ‘अब पछताये होत क्या’ वाली दशा से बाहर निकलकर दिखाना होगा.

‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाए’

शिवसेना कभी ये सबूत नहीं पेश कर सकी कि बीजेपी ने 50-50 का वादा किया था. अगर ये मान भी लें कि शिवसेना सच बोल रही है तो ये कैसे माने हैं कि वो सच ही है. कोई सबूत, गवाह या चश्मदीद है क्या? कोई ऑडियो है क्या? क्या शिवसेना जानती नहीं थी कि बीजेपी सत्ता के लिए हर संभव कोशिश करती है? उसके पास कई ब्रह्मास्त्र मौजूद हैं. ये कैसे मुमकिन है कि बीजेपी के सामने परोसी गई जनादेश की थाली को ऐन-वक्त पर पीछे खींच लेंगे और वो चोट खायी नागिन जैसा व्यवहार नहीं करेगी?

अगर ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाए’ वाली बात पहले कभी नहीं हुई तो अब भला कैसे हो जाएगी? शिवसेना ये कैसे भूल गयी कि बीजेपी ने कैसे सत्ता की खातिर उस नीतीश से यारी कर ली, जिससे खिलाफ वो चुनाव लड़कर हार चुकी थी? इतना ही नहीं, जब महबूबा को बीच में छोड़ा गया, तब क्या शिवसेना उसके साथ नहीं खड़ी थी. अब अगर बीजेपी की किस्मत ने साथ दिया और वो विश्वास मत जीत लेती है तो शायद शिवसेना की राजनीति खत्म करने की कोशिश करेगी.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×