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नीतीश कुमार इतना पाला क्यों बदलते हैं, मास्टरस्ट्रोक या विश्वासघात?

Nitish Kumar ने पिछले एक दशक में जितना यू-टर्न लिया है उतना शायद किसी और नेता ने नहीं लिया

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नीतीश कुमार ने एक बार फिर बीजेपी का साथ छोड़ दिया है. देश में कम ही ऐसे नेता हैं जिन्होंने पिछले एक दशक में इतने ज्यादा यू-टर्न लिए हैं. 2013 में उन्होंने नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाए जाने का विरोध करते हुए एनडीए से एक दशक पुराना संबंध तोड़ दिया.

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यू-टर्न के उस्ताद नीतीश

2014 में लगे झटके के बाद नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को बिहार सीएम की कुर्सी सौंप दी लेकिन कुछ ही दिन में बाद उनसे छीन भी ली. 2015 में उन्होंने आरजेडी और कांग्रेस के साथ महागठबंधन के सीएम चेहरे के तौर पर चुनाव लड़ा, लेकिन दो साल बाद ही उनका साथ छोड़ दिया. उन्होंने फिर से एनडीए को ज्वाइन किया और नरेंद्र मोदी को नेता मान लिया. अब उन्होंने एनडीए को छोड़ दिया है और महागठबंधन में शामिल हो गए हैं.

अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड और समता पार्टी में भी नीतीश की अपने साथियों जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव और अभी हाल ही में आरसीपी सिंह से नहीं बनी.

इतने सारे यू-टर्न के बावजूद नीतीश कुमार ने कमोबेश अपनी छवि और जनाधार बनाए रखा है. ये कमाल उन्होंने कैसे किया, ये अपने आप में एक कहानी है.

इसके तीन कारण हमें समझ में आते हैं.

सामाजिक आधार

2005 से अब तक 17 में से 16 सालों में नीतीश कुमार बिहार के सीएम रहे हैं, लेकिन इस बात के पीछे ये बात छिप जाती है कि उनकी हालत बिहार में पतली हो रही है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में वोट शेयर के मामले में जेडीयू नंबर तीन पार्टी रही है. इस वक्त वो सीटों के मामले में भी नंबर तीन है.

लेकिन जेडीयू की ताकत कुर्मियों, कोइरी, अति पिछड़ा वर्ग और महादलितों में है. नीतीश कुमार ने कोटे के अंदर कोटा देकर इन जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया है.

इन वर्गों के लोग नीतीश में एक ज्यादा उदार नेता देखते हैं, बनिस्बत के यादवों की धमक वाली आरजेडी और ताकतवर सर्वणों वाली बीजेपी के. गैर यादव ओबीसी और गैर पासवान दलित नीतीश कुमार में एक ऐसा नेता देखते हैं जो बाकी जातियों से मुकाबले में उनके हितों की रक्षा कर सकते हैं.

पिछले कुछ सालों में बीजेपी से गठबंधन के कारण नीतीश ने सर्वणों और मुसलमानों में अपना समर्थन खोया है लेकिन ये समुदाय आज भी नीतीश को दुश्मन नहीं मानते.

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वैचारिक अस्पष्टता

नीतीश कुमार ने वैचारिक अस्पष्टता बनाए रखी है. जिसे उनके समर्थक राजनीतिक रूप से आईडियोलॉजिकल मिडिल ग्राउंड कहते हैं. नीतीश कुमार ने खुद को सामाजिक न्याय करने वाले राजनेता के रूप में स्थापित किया है जो उच्च जातियों या हिंदुत्व के विरोधी नहीं हैं.

यहां तक कि मुसलमानों के सामने भी उन्होंने खुद को बीजेपी के सहयोगी के रूप में ही पेश किया, लेकिन कभी खुद की पहचान बीजेपी जैसी नहीं बनने दी. इतना ही नहीं, उन्होंने हिंदुत्ववादी संगठनों को बढ़ने तो दिया, लेकिन उन्हें यूपी, मध्य प्रदेश, गुजरात या कर्नाटक की तरह फ्री तरीके से नहीं छोड़ा. कट्रोल रखा.

अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए स्टेट मशीनरी का इस्तेमाल भी बीजेपी शासित राज्यों की तुलना में बिहार में बहुत कम हुआ है. बिहार, नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ सबसे बड़े विरोध का भी गवाह रहा. नीतीश कुमार ने खुद की इमेज विभिन्न वर्गों के बीच दुश्मन वाली बनने से बचाए रखी.

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व्यक्तिगत समीकरण

एक और महत्वपूर्ण तरीका है जिससे नीतीश कुमार कई यू-टर्न के बावजूद अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने में कामयाब रहे हैं, वो है राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध.

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच कड़वी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बावजूद, दोनों ने व्यक्तिगत स्तर पर हमेशा सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे. जब नीतीश कुमार महागठबंधन के खेमे में थे, तो उन्होंने सुशील कुमार मोदी और अरुण जेटली जैसे अपने दोस्तों को बीजेपी में सुरक्षित रखा.

यही नीतीश कुमार का व्यवहार अपने कई उन सहयोगियों के साथ भी रहा जो उनसे अलग हो गए. 2015 में नीतीश कुमार जीतनराम मांझी को सीएम बनाने के बाद उन्हें पद से हटाने के पीछे थे. जीतनराम मांझी ने जेडीयू से अलग होकर हिंदुस्तान अवाम मोर्चा का गठन किया. और अब नए यू-टर्न के बाद मांझी नीतीश कुमार के लिए बिना शर्त समर्थन देने वाले पहले व्यक्ति थे.

एक और उपेंद्र कुशवाहा हैं, जिन्हें एनडीए 2013 में गठबंधन टूटने के बाद नीतीश के खिलाफ एक और ओबीसी काउंटरवेट के रूप में प्रचारति कर रहा था. कुशवाहा और नीतीश 2015 और 2020 में भी विरोधी खेमों में थे. लेकिन अब कुशवाहा पार्टी में वापस आ गए हैं और जेडीयू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हैं.

बीजेपी के खेमे में होने के बावजूद नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों के साथ भी लगातार अच्छे संबंध बनाए रखे हैं.

तो ये कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे नीतीश कुमार कई यू-टर्न के बावजूद अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाब रहे हैं.

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नीतीश कुमार इतना पाला क्यों बदलते हैं?

लेकिन, एक और सवाल है जिसे पूछना जरूरी है. इनका पाला बदलना मास्टरस्ट्रोक है या विश्वासघात, ये देखने वाले के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है.

इन्हें देखने का शायद सबसे कारगर तरीका यह है कि वो एक कठिन राजनीतिक माहौल में भी अपने आप को जीवित रखते हैं.

नीतीश कुमार कई मायनों में एक ऐसे राजनेता हैं जो भारत में गठबंधन की राजनीति 1989-2014 के दौर में भी स्थिर रहे. ये एक ऐसा दौर था जिसमें क्षेत्रीय पार्टियां मन मुताबिक समझौते के साथ UPA, NDA या तीसरे मोर्चे के साथ जाने के लिए तैयार हो जाती थीं.

यह 2014 के बाद बदल गया

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पिछले 9 सालों में नीतीश कुमार ने कई बार पाला बदला है. ये एक ऐसा दौर है जिसने राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के प्रभुत्व को भी देखा है.

ये एक ऐसा दौर है जिसमें बीजेपी के उदय ने न केवल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल जैसे अपने प्रतिद्वंद्वियों को बल्कि शिवसेना, असम गण परिषद और शिरोमणि अकाली जैसे सहयोगियों को भी कमजोर कर दिया है.

उत्तर और पश्चिम भारत और पूर्व और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों मेंहिंदू मतदाताओं के एकसाथ आने से भी बीजेपी का उदय संभव हुआ है. अगर बात करें केरल, तमिलनाडु और आंधप्रदेश की, तो यह राज्य मोदी के प्रभाव से अपेक्षाकृत अछूते रहे हैं. बिहार इनके मुकाबले उल्टा रहा.बिहार में 2014 में बीजेपी को 31 और 2019 में 39 सीटें मिलीं.

हालांकि, यूपी में बीजेपी जहां गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोट बैंक पर कब्जा करने में सफल रही, बिहार में उसे नीतीश कुमार और छोटी पार्टियों पर निर्भर रहना पड़ा है.

इसलिए, अस्तित्‍व में बने रहने और स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए नीतीश कुमार ने विपक्ष और बीजेपी के साथ गठबंधन के बीच बारी-बारी से काम किया, क्योंकि सहयोगी होने के साथ-साथ बीजेपी का दुश्मन होने के नाते ज्यादातर पार्टियों को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.

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