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प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण है लालू की जमीन में नीतीश की धमक?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण का मुद्दा छेड़ दिया है.

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2019 का लोकसभा चुनाव अभी दूर है लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दांव चलना शुरु कर दिया है. नीतीश का निशाना लालू प्रसाद यादव हैं. इसके लिए नीतीश उनकी ही जाति आधारित ट्रेड मार्क राजनीति को अपने नाम से रजिस्टर्ड करना चाह रहे हैं. आरक्षण के मुद्दे को नए नाम और नई ब्रांडिंग के साथ बेचने की कोशिश हो रही है. नीतीश कुमार ने प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण की मांग उठा दी है.

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नीतीश को मालूम है प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण पर सिर्फ चर्चा का मतलब है भारी विवाद. फिर भी उन्होंने मुद्दा उछाल ही दिया

मैं निजी तौर पर प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण चाहता हूं. मेरी पार्टी भी यही चाहती है. और इस पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस होनी चाहिए. यह आसान नहीं है. इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा.

नीतीश कुमार की मांग पर चर्चा गरमा गई है क्योंकि वो अब केंद्र की एनडीए सरकार का हिस्सा हैं. उन्हें भी मालूम है केंद्र सरकार की मदद के बिना प्राइवेट सेक्टर को लागू करना पाना मुमकिन नहीं है. हालांकि नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से पूरी तैयारी कर ली है. बिहार सरकार ने कुछ दिन पहले ही प्राइवेट कंपनियों को दिए जाने वाले राज्य सरकार के काम में आरक्षण लागू करने का फैसला लिया है.

नीतीश कुमार की मांग की टाइमिंग अहम है, आखिर उन्होंने ये दांव अभी क्यों चला?

लालू की जमीन पर कब्जे की कोशिश

बिहार में पिछड़ा वर्ग मतलब ओबीसी और ईबीसी अब राजनीतिक तौर पर बहुत जागरूक और ताकतवर है. लालू यादव इसी वर्ग की राजनीति कर रहे हैं. नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड भी इसी वर्ग की राजनीति करता है. बिहार में ज्यादातर लोकसभा या विधानसभा सीट पर उनकी निर्णायक भूमिका है. नीतीश कुमार प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण की मांग करके लालू यादव केे वोट बैंक की काट तैयार करना चाहते हैं.

आरजेडी के साथ महागठबंधन तोड़ने के बाद अब नीतीश कुमार प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण के तीर से  लालू यादव को बैकफुट पर लाना चाहते हैं.
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दलित और पिछड़े साथियों के वोट पर नजर

नीतीश कुमार ने कुछ साल पहले खुद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर दलित नेता जीतन राम मांझी को बिहार का सीएम बनाकर पिछड़े वर्गों की सहानुभूति हासिल की थी. हालांकि बाद में विवाद की वजह से मांझी को पार्टी से बाहर निकाल दिया गया.

नीतीश कुमार का लालू यादव से साथ छूटा तो बीजेपी की सहयोगी होने के नाते मांझी की पार्टी भी उनके साथ आ गई है.

जेडीयू की खिचड़ी में नमक है बीजेपी

बिहार में गली मोहल्ले में अक्सर लोग ये कहते हैं कि जेडीयू एक खिचड़ी है. जिसमें नमक का काम कभी बीजेपी तो कभी महागठबंधन करती है. वो भी स्वादानुसार.

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नीतीश कुमार को भी मालूम है कि उनके पास लालू यादव की तरह मजबूत स्थायी वोट बैंक नहीं है. साथ ही जेडीयू के पास बीजेपी जैसा कैडर भी नहीं है. ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री को बीजेपी के सामने रुतबा दिखाने के लिए कोई अनोखा पैंतरा चलना पड़ेगा. प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण की मांग एक बड़ा मुद्दा हो सकता है.

नीतीश जानते हैं कि बीजेपी इस मुद्दे पर ना ही खुल कर विरोध कर सकती है ना ही समर्थन. बीजेपी अगर समर्थन करती है तो अपने वोट बैंक की नाराजगी झेलेगी. बीजेपी ये जोखिम नहीं उठा सकती. 2015 में भी विधानसभा चुनाव के ऐन पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत के आरक्षण पर  दोबारा विचार करने के जरूरत का बयान देकर बीजेपी को मुश्किल में डाल दिया था.

पार्टी के अंदरूनी विरोध को दबाने की कोशिश

जेडीयू के अंदर भी दलित और पिछड़े वर्ग से आने वाले कुछ नेता भी नीतीश से नाराज चल रहे हैं. उदय नारायण चौधरी, श्याम रजक की नाराजगी तो खुल कर दिखने भी लगी है. ऐसे में पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह ही ऐसे आरक्षण का मुद्दा उठा कर नीतीश कुमार नाराज साथियों को विरोध का मौका नहीं देना चाहता.

नीतीश कुमार को भी मालूम है प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण का मामला बहुत जटिल है. इसके लिए संविधान में बदलाव करने होंगे. इसके अलावा प्राइवेट सेक्टर भी सरकार के ऐसे किसी भी कदम का खुलकर विरोध करेगा. मतलब साफ है नीतीशकुमार राजनीतिक चर्चा छेड़ कर माहौल टेस्ट करना चाहते हैं और अपने खिलाफ नाराजगी को शांत करना चाहते हैं.

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