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BJP सहयोगियों की सेहत के लिए हानिकारक-5 तरीकों से क्षेत्रीय दलों को करती है तबाह

Nitish Kumar के डर को समझना है तो बीजेपी के सहयोगी रहे दलों का हश्र जान लीजिए

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नीतीश कुमार का बीजेपी से नाता तोड़ने के साथ ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अपना सबसे बड़ा गैर-बीजेपी पार्टनर जनता दल (यूनाइटेड) खो दिया है, जिसके पास लोकसभा में 16 सीटें हैं. बीजेपी का अभी सबसे बड़ा सहयोगी शिवसेना का एकनाथ शिंदे गुट है, जो 12 सांसदों के समर्थन का दावा करता है. यदि कोई शिंदे धड़ा को अलग रखे –क्योंकि अभी उनके वजूद को मान्यता मिली नहीं है तो लोकसभा की ताकत के मामले में अब बीजेपी का सबसे बड़ा सहयोगी सिर्फ अपना दल है, जिसके पास दो सांसद हैं. बाकी बचे हुए सभी साथियों के पास सिर्फ 0-1 सीट ही लोकसभा में है.

2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद से, लगभग 19 दलों ने एनडीए छोड़ा, हालांकि कुछ वापस भी आए हैं.

हालांकि, कुछ सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी अब बीजेपी के साथ नहीं हैं .तेलुगु देशम पार्टी ने 2018 में एनडीए छोड़ा और उस वक्त उनके पास लोकसभा में 15 सीटें थीं. बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना 2019 में एनडीए से बाहर हो गई. फिर शिरोमणि अकाली दल (बादल) - 2020 में और अब जनता दल (यूनाइटेड).

इनमें से किसी भी मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके दूसरे सबसे मजबूत कमांड अमित शाह ने किसी को रोकने की कोशिश नहीं की.

तो, सहयोगी दलों को बनाए रखने में बीजेपी की ‘अक्षमता’ क्या बताती है? इसका जवाब कुछ हद तक गठबंधन मैनेज करने के मोदी-शाह के तौर तरीकों से मिल जाता है.
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मोदी-शाह की प्लेबुक

पीएम मोदी और अमित शाह छोटे-मोटे बदलावों के साथ अलग अलग राज्यों में अपने सहयोगियों के लिए एक प्लेबुक इस्तेमाल करते रहे हैं. इसमें मोटे तौर पर ये बाते हैं.

  1. ऐसे राज्य में प्रमुख क्षेत्रीय दल के साथ सहयोगी की तरह रहना जहां बीजेपी अपने दम पर पर्याप्त मजबूत नहीं.

  2. नए क्षेत्रों या समुदायों में बीजेपी की पहुंच और असर बढ़ाने में गठबंधन का इस्तेमाल करना. अगर संभव हो तो क्षेत्रीय पार्टी की बुनियाद पर कब्जा करने की रणनीति.

  3. अगर ऐसा करना मुश्किल हो तो पार्टी को छोड़ दें या फिर उसमे बंटवारा करा दें.

  4. ज्यादा छोटे दल और आसानी से साथ लगे रहने वाले पार्टनर के साथ टिके रहें.

  5. बीजेपी के लिए ज्यादा टिकट और सत्ता लेने की कोशिश

अगर सच कहूं तो पहले के दो कदम जो हैं वो मोदी और शाह से पहले भी बीजेपी की पॉलिसी रही है. लेकिन तीसरा, चौथा और पांचवां कदम मोदी-शाह मार्का है.

यह तरीका बहुत हद तक नॉर्थ ईस्ट में कामयाब रहा है. हिमंत बिस्वा सरमा भी इस प्लेबुक में अहम रोल निभाते रहे हैं और इसलिए देखें तो नॉर्थ ईस्ट के लगभग सभी सहयोगियों को बीजेपी ने साफ कर दिया है.

स्नैपशॉट
  • असम बोडोलैंड इलाके में बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट की जगह UPPL ने ले ली.

  • सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट की जगह सिक्किम क्रांति मोर्चा ने ले ली. बाद में पूर्व सीएम पवन कुमार चामलिंग को छोड़कर एसडीएफ के सभी विधायक बीजेपी में शामिल हो गए.

  • नागालैंड में नगा पीपुल्स फ्रंट की जगह एनडीपीपी ने ले ली. बाद में 25 में से 21 विधायक बीजेपी की सहयोगी एनडीपीपी में शामिल हो गए.

  • असम गण परिषद ने तीसरे चरण में पहुंचने से पहले ही अपना अधिकांश आधार बीजेपी को सरेंडर कर दिया.

पूर्वोत्तर के बाहर शिवसेना के साथ ऐसा हुआ है. जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, शिरोमणि अकाली दल (बादल), तेलुगु देशम पार्टी पर भी यही तरीका आजमाया गया लेकिन सीमित सफलता मिली.
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बिहार में मामला और भी पेचीदा है. यहां कहा जाता है कि गठबंधन में रहते हुए भी बीजेपी ने चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का इस्तेमाल जनता दल (यूनाइटेड) को कमजोर करने के लिए किया था. 2020 के विधानसभा चुनावों में जद (यू) को इससे कुछ नुकसान हुआ. हालांकि बाद में, बीजेपी ने चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति पारस में ही बंटवारा करा दिया. पशुपति पारस का बीजेपी ने समर्थन किया. आरोप लगते हैं कि पशुपति पारस को ये बीजेपी ने इनाम के तौर पर दिया जिसने जद(यू) को कमजोर करने में भूमिका निभाई.

इन साजिशों को देखते हुए बीजेपी के सहयोगियों के लिए अब अपने को गठबंधन में रहते हुए बीजेपी से बचाए रखना बहुत मुश्किल हो जाता है. खुद को बचाना थोड़ा बहुत भी तभी संभव हो पाता है जब वो पूरी तरह से AGP, या अपना दल की तरह उनके अधीन हो जाएं. दुर्भाग्य से इन पार्टियों के लिए, एनडीए छोड़ने से भी मदद नहीं मिली, जैसा कि शिवसेना और तेलुगु देशम पार्टी के बंटने से देखा जा सकता है.

मोदी-शाह की प्लेबुक की बैक स्टोरी

अपने पूरे करियर के दौरान - गुजरात में बीजेपी के एक पदाधिकारी से लेकर भारत के प्रधानमंत्री बनने तक मोदी का गैर-कांग्रेसी दलों या क्षेत्रीय दलों के साथ एक अलग तरह का कनेक्शन रहा है.

1990 के दशक के मध्य में हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के बीजेपी प्रभारी के रूप में मोदी ने इनेलो के साथ बीजेपी का गठबंधन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस वजह से जब वो चंडीगढ़ में रहते थे तो शिरोमणि अकाली दल के संरक्षक प्रकाश सिंह बादल के साथ भी अच्छे संबंध बनाए.

बाद के वर्षों में जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने कई क्षेत्रीय नेताओं के साथ अच्छे संबंध बनाने की कोशिश की. UPA का विरोध करते हुए उन्होंने अपनी पहचान संघीय ढांचे के चैंपियन के तौर पर बनाई.

इसमें तमिलनाडु की तत्कालीन सीएम जे जयललिता, नागालैंड के सीएम नीफू रियो, पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक शामिल थे. हालांकि, बीजेपी के सहयोगी होने के बावजूद नीतीश कुमार ने कभी भी उनके साथ गर्मजोशी नहीं दिखाई.

क्षेत्रीय और गैर-कांग्रेसी दलों के प्रति मोदी का नजरिया, गुजरात में बीजेपी के संगठनात्मक पदाधिकारी के तौर पर उनके अनुभवों से ज्यादा बना है, ना कि गुजरात के मुख्यमंत्री या फिर बीजेपी के राष्ट्रीय पदाधिकारी के कार्यकाल से .

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1980 के दशक के अंत में गुजरात में बीजेपी के संगठन सचिव के रूप में और 1995 में गुजरात बीजेपी की जीत के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में, मोदी ने जनता दल, विशेष रूप से गुजरात में इसके चेहरे चिमनभाई पटेल को पसंद नहीं किया. उनके दूसरे सहयोगी कांग्रेस की तुलना में चिमनभाई पटेल को कम बुरा मानते थे लेकिन मोदी हमेशा चिमनभाई को बड़ी बुराई मानते रहे. मोदी इस बात पर अडिग थे कि गुजरात में बीजेपी तभी सत्त में आएगी जब जनता दल का पूर्ण सफाया हो. यही गुजरात में आखिर हुआ भी.

मोदी-शाह की जोड़ी अटल बिहारी वाजपेयी से बिल्कुल उलट है. अटलजी ने सत्ता के लिए विभिन्न दलों को मिलाजुलकर चलने और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर वैचारिक समझौता करने में परहेज नहीं रखा लेकिन मोदी और शाह बीजेपी के राजनीतिक और वैचारिक वर्चस्व को स्थापित करने में ज्यादा दृढ़ हैं.

इसलिए जब वाजपेयी नेशनल कॉन्फ्रेंस, डीएमके या तृणमूल कांग्रेस को मिलाकर रख सकते थे, मोदी-शाह ने बीजेपी के सबसे पुराने और एकमात्र हिंदुत्व सहयोगी शिवसेना को भी नहीं बख्शा.

बेशक, इस रणनीति ने बीजेपी को अभूतपूर्व राजनीतिक शक्ति दी है. उसे वैसा ही दबदबा दिया है जैसा कि कभी कांग्रेस का था.

हालांकि, इससे बीजेपी को अब बीच की जगह नहीं मिलने वाली है .और अब सबकुछ मोदी और शाह की इस काबिलियत पर टिक गया है कि वो कैसे सभी क्षेत्रीय और जातिगत समीकरणों को हटाकर हिंदू वोटों को पूरी तरह से एकजुट रखते हैं.

ऐसी एकजुटता लंबे वक्त तक बनाए रखना मुमकिन नहीं है. ऐसा बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक या राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे में होने की बात पर जोर देकर किया जा सकता है. ऐसे में साल 2024 के लोकसभा चुनावों में मजबूत सहयोगियों की गैरमौजूदगी बीजेपी के लिए अनिश्चितता को बढ़ा सकती है.

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