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शिवसेना की ‘गरम’ राजनीति का नरम चेहरा उद्धव के सिर सजेगा ताज 

उद्धव ठाकरे बनेंगे महाराष्ट्र के अगले मुख्यमंत्री

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महाराष्ट्र में आखिरी बार 1995 से 1999 तक शिवसेना का मुख्यमंत्री था. पहले मनोहर जोशी और फिर कुछ महीनों के लिए नारायण राणे राज्य के मुखिया रहे. लेकिन 1999 में हाथ से सत्ता ऐसी फिसली, कि पार्टी का जनाधार (सीटों के मुताबिक) धीरे-धीरे घटता गया और यहां तक कि गठबंधन में भी वो दूसरे नंबर की पार्टी बन गई.

अब 20 साल बाद एक बार फिर हालात बदले हैं और शिवसेना के उद्धव ठाकरे सीएम पद की शपथ लेने जा रहे हैं.

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उद्धव ठाकरे बनेंगे महाराष्ट्र के अगले मुख्यमंत्री

शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी ने सरकार गठन को लेकर एक साथ बैठक की. इस बैठक में 'महा विकास अघाड़ी' के सभी विधायकों ने मुख्यमंत्री पद के लिए उद्धव ठाकरे के नाम पर प्रस्ताव सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दिया. महाराष्ट्र के अगले मुख्यमंत्री शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे होंगे.

बता दें, मुख्यमंत्री पद की मांग को लेकर ही शिवसेना ने अपनी सहयोगी बीजेपी से नाता तोड़ा था. इसलिए ये तो तय था कि अगर नए गठबंधन की सरकार बनी, तो मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा.

पिता बाल ठाकरे से उद्धव ने किया था ये वादा

महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाने में है, जिसका सबसे बड़ा योगदान है, वो हैं पार्टी के सबसे बड़ा नेता उद्धव ठाकरे, जो अपने एक वचन को निभाने के लिए प्रतिबद्ध है.

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने सबसे बड़े शिवसैनिक यानी पार्टी के संस्थापक और अपने पिता दिवंगत बाला साहेब ठाकरे को वचन दिया था कि वो एक शिवसैनिक को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाएंगे.

अपने उस वचन को निभाने के लिए उद्धव ने शिवसेना के सबसे पुराने साझीदार बीजेपी से भी गठबंधन तोड़ लिया. उद्धव के इस रुख ने बीजेपी को हैरान जरूर किया, लेकिन उद्धव अपने वादे को लेकर पूरी तरह मुखर रहे.

फोटोग्राफी का शौक रखने वाले उद्धव ने जो तस्वीर मौजूदा राजनीतिक माहौल में खींची है, उसको समझने के लिए उनके राजनीतिक जीवन की एलबम को समझना जरूरी है.

गरम राजनीति का कुछ नरम चेहरा

राजनीति में थोड़ी भी रुचि रखने वालों को पता ही होगा कि 2005 में जब बाला साहेब ठाकरे ने उद्धव को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, तो शिवसेना समेत महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा बदलाव आया था.

शिवसेना के प्रभावी नेता राज ठाकरे और नारायण राणे अलग हो गए. राज ने शिवसेना की ही राजनीतिक किताब के ककहरों को अपनाया और ज्यादा एग्रेसिव रुख वाली महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की शुरुआत की. बाला साहेब की राजनीति का ज्यादा उग्र स्वरूप राज और उनकी पार्टी ने दिखाया.

ये वो दौर था जब शिवसेना की पकड़ जनता पर ढीली पड़ रही थी और चुनावी नतीजे भी पार्टी के मुताबिक नहीं आ रहे थे. उद्धव अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही पिता और भाई की मुकाबले कम आक्रामक थे और पर्दे के पीछे काम करते रहे.

यही कारण था कि 2008 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव से लेकर 2014 के बीच ये तक कहा गया कि शिवसेना खत्म हो रही है. यहां तक कि उद्धव की भाषण शैली को भी इसकी एक वजह माना जाता रहा और बाल ठाकरे से तुलना होती रही. महाराष्ट्र की राजनीति के विश्लेषकों के मुताबिक उद्धव के भाषण में काडर को सम्मोहित करने वाली क्षमता नहीं थी.

विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उद्धव ने उस पहलू पर फोकस किया, जो उनकी मजबूती थी. उन्होंने संगठन पर ध्यान दिया. उद्धव के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने राजनीति में शुरुआत पर्दे के पीछे रहकर की और संगठन से जुड़कर काम करते रहे. इसलिए उद्धव को संगठन का आदमी और मजबूत संगठन क्षमता वाला नेता माना जाता है. उद्धव ने इस पर ही काम किया और काडर का भरोसा पार्टी में वापस बनाते रहे.

यही कारण है कि 2012 में भी शिवसेना और बीजेपी गठबंधन ने बीएमसी में जीत दर्ज की और अपना दबदबा बरकरार रखा.

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पार्टी की ‘विस्फोटक’ राजनीति में बदलाव

1991 में पाकिस्तान और भारत के मैच को रोकने के लिए मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम की पिच खोद देने वाली शिवसेना पिछले कुछ सालों में अपनी हिंसक छवि से अलग रुख अख्तियार कर चुकी है. इसका बड़ा श्रेय उद्धव ठाकरे को ही जाता है.

MNS की उग्र राजनीति से कुछ सालों तक पिछड़ने के बावजूद उद्धव ने पार्टी को ज्यादा संगठित और अनुशासित बनाने की ओर काम किया. इसका ही नतीजा है कि बाल ठाकरे के निधन के बाद भी पार्टी ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को लेकर अपनी विचारधारा में बदलाव किए बिना ही अपनी कार्यशैली को बदला.

पार्टी की इसी रणनीति और छवि को आगे बढ़ाने और सुधारने का काम उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे ने किया और एक बदली हुई शिवसेना का जनाधार फिर बढ़ने लगा.

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2014 की चुनौती और उसका असर

2014 का दौर ऐसा था, जब देशभर में बीजेपी अपना प्रभाव फैला रही थी. लोकसभा चुनाव के शानदार नतीजों ने बीजेपी को देश की सत्ता के शीर्ष पर ला दिया था. मोदी लहर पर चढ़कर बीजेपी राज्यों की सत्ता अपने पक्ष में करने की मुहिम में जुट चुकी थी. उसी दौरान आए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव.

लोकसभा चुनावों में दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन था और शिवसेना केंद्र में NDA सरकार का हिस्सा थी. इसके बावजूद विधानसभा के लिए गठबंधन का समझौता टेढ़ी खीर साबित हो रहा था. बीजेपी बड़ा हिस्सा चाहती थी, लेकिन राज्य में गठबंधन के बड़े भाई का रोल निभाने वाली शिवसेना पीछे हटने को तैयार नहीं थी.

ऐसे में उद्धव के एक फैसले ने न सिर्फ सबकों चौंका दिया, बल्कि गठबंधन के समीकरणों को पूरी तरह बदल दिया. उद्धव ने गठबंधन की चर्चा के लिए बीजेपी के महाराष्ट्र प्रभारी रहे ओम माथुर और पार्टी नेता देवेंद्र फडणवीस के साथ बैठक के लिए अपने बेटे और तब सिर्फ 24 साल के आदित्य ठाकरे को भेजा. इतने युवा और अनुभवहीन आदित्य को चर्चा पर भेजना भी बीजेपी नेताओं को नागवार गुजरा.

गठबंधन यहां टूटा और दोनों पार्टियों ने अलग-अलग लड़ने का फैसला किया. नतीजा शिवसेना को सिर्फ 63 सीटें मिली और बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. चुनाव के बाद उद्धव ने आखिर अमित शाह से मुलाकात के बाद गठबंधन किया.

लेकिन उद्धव ने मोदी लहर के सामने खुद को मजबूती से खड़ा कर दिखाया कि पार्टी के काडर पर उन्हें और काडर को उन पर कितना भरोसा है. इसे समझने के लिए मौजूदा नतीजों पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि बीजेपी के साथ गठबंधन के बाद उनकी सीटें घट गईं. इस नतीजे ने भी चुनाव के बाद बीजेपी के सामने ऐसा रुख अपनाने को जोर दिया.

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कार्टूनिस्ट पिता का फोटोग्राफर बेटा

महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना के जन्म से 6 साल पहले बाल ठाकरे के घर में उद्धव ठाकरे का जन्म हुआ था. मराठी मानुष की राजनीति शुरू करने वाले बाल ठाकरे की तीसरी संतान उद्धव के लिए सियासत सीखना और समझना कोई मुश्किल काम नहीं था. इसके बावजूद उन्होंने इसे नहीं चुना.

उद्धव ने अपने पिता की बनाई राह पर चलने के बजाए कुछ अलग करने की सोची थी, इसलिए उन्होंने बाला साहेब की तरह कार्टूनिस्ट बनने के बजाय अपने चाचा श्रीकांत ठाकरे की तरह फोटोग्राफी को चुना. खास बात ये है कि श्रीकांत के बेटे और उद्धव के चचेरे भाई राज ने अपने ताऊ बाल ठाकरे की राह चुनी- कार्टून बनाना भी और राजनीति चलाना भी.

हालांकि, उद्धव ने अपने पिता के एक रूप को खुद भी अपनाया. बाल ठाकरे की तरह उद्धव भी निजी तौर पर चुनावी राजनीति से दूर रहे और कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा. हालांकि, आदित्य ठाकरे के चुनाव लड़ने की इच्छा को आखिरी सहमति भी उद्धव ने ही दी.

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पहली बड़ी जिम्मेदारी से सबसे बड़ी भूमिका तक

बाल ठाकरे ने 2002 में उद्धव को बृहन्मुम्बई नगर निगम यानी बीएमसी के चुनाव में प्रचार की जिम्मेदारी दी. ये उद्धव की पहली बड़ी भूमिका थी. उद्धव के नेतृत्व में शिवसेना ने चुनावों में सफाया किया और निगम में पार्टी का दबदबा बना रहा.

इसके बाद आया वो दौर जिसने शिवसेना को ही बांट दिया और उसके केंद्र में थे उद्धव ठाकरे. पार्टी के प्रमुख बाला साहेब ने राजनीति में ज्यादा सक्रिय रहे अपने भतीजे राज ठाकरे को किनारे करते हुए उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया. इसने पार्टी से लेकर महाराष्ट्र की राजनीति तक को पूरी तरह बदल दिया.

पार्टी के बड़े नेता और आखिरी शिवसैनिक मुख्यमंत्री नारायण राणे ने पार्टी छोड़ दी. राज ठाकरे भी खफा होकर पार्टी से अलग हो गए और बना दी मराठी अस्मिता का नया प्रतीक महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS).

2013 में बाल ठाकरे के निधन के बाद उद्धव ठाकरे स्वाभाविक तौर पर पार्टी के अध्यक्ष नियुक्त किए गए और उसके बाद से पार्टी को उन्होंने पुराने मुकाम पर पहुंचाने की मुहिम शुरू की, जिसमें उन्होंने कुछ बदलाव, कुछ बलिदान और कुछ समझौते भी किए.

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