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''स्टोर कीपर का काम कर रहे रांची RIMS के डॉक्टर, लंच के बाद गायब स्टाफ''

रांची हाई कोर्ट की फटकार के बाद RIMS डायरेक्टर ने क्विंट को बताया कितना बुरा है अस्पताल का हाल

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राज्य
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ेकोरोना (Covid-19) की दूसरी लहर के धीमे होने के बाद आम राय यह है कि हालात अब 'नियंत्रण' में हैं.केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक सबका दावा है कि हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत कर लिया गया है और लोगों का इलाज हो रहा है.लेकिन अब भी जमीन पर हालत जस की तस है.मौजूदा पैंडेमिक के दौरान झारखंड (Jharkhand) में बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने की नीयत किस हद तक लचर है, इसकी जीती जागती उदाहरण ब्लैक फंगस से ग्रसित ऊषा देवी हैं.

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मंत्री को एयर एंबुलेंस,जनता को इंकार 

गिरीडीह की ऊषा देवी 17 मई से ही ब्लैक फंगस के संक्रमण के कारण रांची स्थित रिम्स में भर्ती हैं.जून के अंतिम सप्ताह में रिम्स के डॉक्टरों ने ऊषा देवी के बेटे से मां को तमिलनाडु ले जाने के लिए कहा. गरीब ऊषा देवी के पास यह रकम थी नहीं कि वह तमिलनाडु जा सकें. लेकिन उनके पुत्र गैरव कुमार गुप्ता को उम्मीद थी कि उनकी सरकार कुछ इंतजाम करेगी.

हो भी क्यों नहीं, जब झारखंड के एक मंत्री को एयर एंबुलेंस की सुविधा मिल सकती है तो प्रजातंत्र में प्रजा को क्यों नहीं. लेकिन मुख्यमन्त्री के पी.ए. ने गौरव से साफ शब्दों में कह दिया कि झारखंड सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं कि उनकी मां को एयरलिफ्ट कर तमिलनाडु भेजा जाए.इस इंकार के बाद गौरव ने 3 जुलाई को ही मुख्यमन्त्री को एक पत्र लिखा कि यदि मां को एयर एंबुलेंस की सुविधा नहीं मिली और इस दौरान मां की जान इलाज के अभाव में चली गई तो ज़िम्मेदार झारखंड सरकार होगी और हम बच्चे रिम्स अस्पताल में फांसी लगा लेंगे.
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गौरव कुमार ने क्विंट से बताया कि "डॉक्टर विनोद सिंह ने कहा कि ब्लैक फंगस का संक्रमण ब्रेन तक पहुंच गया है इस लिए अपनी माता को तमिलनाडु के प्राइवेट अस्पताल ले जाओ. वह अस्पताल डॉक्टर साहब के परिचित का था. मैंने खर्च पूछा तो डॉक्टर द्वारा लगभग बीस लाख रुपये बताया गया. अब हम इतना बड़ा खर्च कहां से पूरा करते. हम पहले ही कर्ज़दार हो चुके थे".

डॉक्टर साहब बाहर से दवा मंगवाते थे. जो कभी कभी रांची में भी नहीं मिलती थीं. तब टाटा या धनबाद जाकर दवाई लानी पड़ी. इस तरह डेढ़ लाख रुपए की दवा हम कर्ज़ लेकर बाहर से खरीद चुके थे. इधर रांची में रहने के खर्च के अलावा खाना खुराक का खर्च अलग. तब हमने मुख्यमन्त्री जी के कार्यालय में सम्पर्क किया, लिखित आवेदन भी दिया. मुख्यमन्त्री जी के पी.ए. सर ने कहा कि आपकी मांग नहीं पूरी हो सकती. ज़्यादा से ज़्यादा पचास हज़ार से एक लाख की मदद हो सकती है. मैंने उनसे रिक्वेस्ट की कि पैसा नहीं चाहिए, आप सिर्फ इलाज करा दीजिए. लेकिन वह बोले कि जो पैसे सरकार देगी उससे इलाज नहीं होगा तो तुम्हारे खाने का खर्च पूरा हो जाएगा.
गौरव कुमार
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गौरव ने आगे कहा कि "जब मुख्यमन्त्री जी के कार्यालय से मदद नहीं मिली तब हम एक दिन अस्पताल के इमरजेंसी गेट के पास धरना भी दिये और मांग की कि 'बेहतर इलाज दो या इच्छा मृत्यु दो' लेकिन रिम्स के किसी डॉक्टर ने हमारी खबर नहीं ली."

ऊषा देवी के इस मामले की जानकारी सामाजिक कार्यकर्ता अंकित राजगड़िया को हुई. अंकित ने रांची हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र लिखा. जिसे पढ़ कर मुख्य न्यायधीश ने स्वयं संज्ञान लेते हुए 7 जुलाई को मामले की सुनवाई तय कर दी.

अंकित बताते हैं कि "माननीय हाईकोर्ट में हमने दोनो बातें सामने रखीं कि कोरोना का मामला जब राज्य सरकार द्वारा पैंडेमिक घोषित है तो फिर मरीज़ बाहर से महंगी दवाएं क्यों खरीदने को मजबूर हैं. दूसरा मैटर यह था कि मरीज़ को जब रिम्स के डॉक्टर तमिलनाडु के प्राइवेट अस्पताल रेफर कर रहे हैं तो गम्भीर हालत में मरीज़ कैसे बाई-रोड भेजा जा सकता है. इसलिए सरकार एयर एंबुलेंस की सुविधा दे".

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बाहर से दवा खरीदने के मामले पर महाअधिवक्ता ने कहा कि दवा बाहर से नहीं खरीदनी पड़ी. इस पर माननीय जज ने सुनवाई के दौरान उपस्थित रिम्स डायरेक्टर से पूछा कि क्या आप शपथपत्र दायर कर यह जानकारी दे सकते हैं कि ब्लैक फंगस से जूझ रहे मरीज बाहर से दवा नहीं खरीद रहे? इसपर रिम्स के डायरेक्टर ने कहा कि दवाइयों की सप्लाई पूरी नहीं है, इसलिए हम शपथपत्र दायर नहीं कर सकते.

अंकित बताते हैं कि "हाईकोर्ट ने कहा है कि चीफ मिनिस्टर के पीए कहते हैं कि हमारे पास पैसा नहीं है तो क्या हमारे नागरिक अपनी जगह और ज़मीन बेचकर अपना इलाज कराएं. अगर मेरे पास पैसा होता तो मैं उस पीड़ित को पैसे देकर मदद करता. अत: राज्य सरकार बताए कि पीड़ित महिला के इलाज की क्या व्यवस्था की गई है".

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झारखंड के स्वास्थ्य सिस्टम के नीयत में खराबी ?

दरअसल चीफ जस्टिस डॉ रविरंजन की सख्त टिप्पणी के बाद झारखंड सरकार का स्वास्थ्य सिस्टम सुस्ती से जाग उठा और टीम गठित कर आननफानन ऊषा देवी का सफल ऑपरेशन कर दिया. सोचने की बात यह है कि जिस मरीज़ को ऑपरेशन के लिए रिम्स के डॉक्टर तमिलनाडु भेज रहे थे उसी मरीज़ का एक दिन बाद कैसे सफल ऑपरेशन हो गया.

जानकारी के अनुसार रिम्स में कई मरीज़ इस वक्त ब्लैक फंगस से पीड़ित हैं. क्या उनको भी बेहतर इलाज के लिए हाईकोर्ट जाना पड़ेगा? यदि ऐसा है तो क्या झारखंड के स्वास्थ्य विभाग को अब हाईकोर्ट के द्वारा ही संचालित होना पड़ेगा? सवाल यह भी उठता है कि झारखंड का स्वास्थ्य सिस्टम इतना लचर क्यों है?

दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक के अनुसार डॉक्टर एवं आबादी का अनुपात 1:1000 होना चाहिए. लेकिन झारखंड में इससे लगभग तीन गुना आबादी पर 1 डॉक्टर है. इस समय राज्य की 3.25 करोड़ आबादी पर लगभग 10,000 डॉक्टर हैं. अत: डॉक्टरों की अनुमानित कमी 22,500 से अधिक है.जबकि झारखंड में मौजूद तीन मेडिकल कॉलेज से प्रति वर्ष 300 डॉक्टर ही उत्तीर्ण होते हैं. तो झारखंड के लचर स्वास्थ्य सिस्टम का सबसे बड़ा कारण राज्य में क्लिनिकल वर्कफोर्स की कमी है.

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रिम्स की छवि संतोषजनक क्यों नहीं ?

रिम्स के डायरेक्टर डॉक्टर कामेश्वर प्रसाद का मानना है कि रिम्स की छवी नेशनल लेवेल पर बहुत ऊपर नहीं है. अब नए डॉक्टर रिम्स आना नहीं चाहते, वह नामी जगह ही काम करना चाहते हैं. ऐसे में रिम्स में वही डॉक्टर आते हैं जिनका रांची या झारखंड से पहले से ही सम्बंध है. इस वजह से हर डिपार्टमेंट की आपूर्ति नहीं हो पाती. यही हालत नॉन क्लिनिकल डिपार्टमेंट की है.

रिम्स की छवि क्यों संतोषजनक नहीं है, तो इसका कारण यह है कि नाम के लिए रिम्स अस्पताल को इंस्टीट्यूट तो बना दिया गया. इंस्टीट्यूट का मतलब है रिसर्च सेंटर, लेकिन रिसर्च नदारद है. इस लिए विशेषज्ञ डॉक्टर यहां आना नहीं चाहते. मैं चाहता हूं कि यहां सिस्टम लागू हो कि किसी का प्रमोशन तभी होगा जब वह रिसर्च करेगा. यहां हालत यह है कि 370 ट्रेंड नर्स चाहिए जिसकी बहाली कोरोना के कारण हो नहीं पाई. जबकि डॉक्टर की तादाद 800 है. लेकिन कई ऐसे डिपार्टमेंट हैं जिनमें डॉक्टर हैं ही नहीं जैसे हीमैटोलॉजी.
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डॉक्टर कामेश्वर प्रसाद ने आगे कहा कि मैं यहां 1972 में MBBS कर रहा था तब एक एकाउंट ऑफिसर थे आज भी एक ही हैं, जबकि आज कई गुना डिपार्टमेंट बढ़ गए, बजट बढ़ गया, बेड बढ़ गए. ज़रूरत तो एकाउंट कैडर की है. दवा या इक्विपमेंट की खरीद फरोख्त के लिए स्टोर ऑफिसर होते हैं, जो मैटेरियल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर के आते हैं, यहां एक भी ऐसा स्किल बंदा नहीं है. स्टोर कीपर की भी भारी कमी है. ऐसे में सारा काम डॉक्टर के ज़िम्मे मढ़ दिया जाता है.

मैं यहां नवम्बर में आया, 3 मार्च को मैंने सरकार को इन पोस्ट पर बहाली के लिए सूचित किया. लेकिन पोस्ट क्रिएशन नहीं हुई. सीधे शब्दों में कहूं तो यहां सारी प्रक्रिया काम चलाऊ है, यहां इंस्टीट्यूट चलाने वाली व्यवस्था नहीं. हालत यह है कि लोग अपने काम को ज़िम्मेदारी से नहीं निभा रहे. लोग आधा दिन काम करते हैं और लंच के बाद गायब हो जाते हैं. मैंने राउंड पर पाया कि कई डिपार्टमेंट में न तो हेड हैं, न जूनियर हैं. ऐसे इंस्टीट्यूट नहीं चल सकता. यह लोग जस्टिफाई नहीं करते कि इनको सैलरी मिले.
डॉ. कामेश्वर प्रसाद. रिम्स के डायरेक्टर
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रिम्स डॉक्टर ने ऊषा देवी के मामले में कहा कि मैंने वहां के एक्सपर्ट से रिम्स के डॉक्टर का सम्पर्क करवाया. उन्होंने बताया कि मरीज़ के आंख का ऑपरेशन हो सकता है बाकी ब्रेन नहीं खोला जा सकता. इसी आधार पर डॉक्टर को कॉन्फिडेंस हुआ कि जैसे एम्स में किया जा सकता है हम वही यहां कर सकते हैं. रही बात दवा की तो उस समय अस्पताल में दवा उपलब्ध नहीं थी.

झारखंड के सक्रीय हेल्थ एक्टिविस्ट अतुल गेरा ने बताया कि प्रैक्टिकली देखा जाए तो राज्य में स्वास्थ्य सिस्टम खड़ा करने का मतलब सिर्फ ईट, बालू, सिमेंट की मदद से भवन तैयार करना मात्र है. राज्य में नए मेडिकल कॉलेज को तैयार करने में आठ सौ करोड़ लग गए. मेरा कहना यह है कि यदि इनमें एक भवन कम बनाते और उस पैसे से किसी अस्पताल में डॉक्टर बढ़ाए जाते तो आज उस क्षेत्र में डॉक्टर की कुछ कमी दूर होती.

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आखिर भवन बनाने के पीछे क्यों पड़े हैं, वर्क फोर्स बढ़ाने पर काम क्यों नहीं होता. झारखंड की बदकिस्ती यह है कि विधायक, सांसद और ब्यूरोक्रेट्स प्राइवेट अस्पतालों में इलाज के लिए जाते हैं. जिसका बिल सरकार अदा करती है. आखिर सरकार क्यों सिस्टम नहीं तैयार करती कि प्राइवेट अस्पतालों में हुए इलाज में लगने वाले इस पैसे का स्थायी इस्तेमाल कर के रिम्स जैसे अस्पताल को मज़बूत किया जाए.
अतुल गेरा

अतुल गेरा के अनुसार CCL के पास बेइंतेहा CSR का पैसा है, बावजूद इसके वह स्टैंडर्ड अस्पताल नहीं तैयर कर पाए. जबकि मजबूरन लोगों को प्राइवेट अस्पताल में इलाज के लिए रेफर होना पड़ता है. रिम्स में व्यवस्था डेवलप करने की ज़रूरत है, अच्छे डॉक्टर यहां मौजूद हैं ही. हाईकोर्ट की एक फटकार के बाद कैसे ऊषा देवी का इलाज हो गया यह एक उदाहरण है. तो सवाल उठता है कि रिम्स में व्यवस्था पहले क्यों नहीं की गई, और यह व्यवस्था परमानेंट क्यों नहीं की गई. यदि व्यवस्था ठीक हो जाए तो किसी मरीज़ को बाहर रेफर करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

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