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पिछड़ा तो नहीं बिहार, 30 साल पहले लड़ी गई पीरियड लीव की लड़ाई

बिहारी महिलाओं का दम, 30 साल पहले जीती पीरियड लीव की जंग

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वीडियो एडिटर: संदीप सुमन

“पीरियड लीव मिलना आसान नहीं था. लगातार लंबी हड़ताल थी. 2-3 महीने की हड़ताल थी. उसी दौरान इसे सामने लाया गया. लालू यादव से हमने ये ‘छीनकर’ लिया, जो जल्दी महिलाओं के बारे में सोचते नहीं थे. बिहार में 90 के दशक में कई अत्याचार महिलाओं के खिलाफ हुए, रेप जैसी घटनाएं हुईं. हम लगातार इसके खिलाफ लड़ते रहे लेकिन ये भी साथ में चल रहा था. उस समय लालू यादव ने ये दे दिया, हमारे लिए तो ये वरदान की तरह हो गया.”

ये कहना है पटना यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ हिस्ट्री की पूर्व हेड- भारती एस कुमार का.

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पीरियड, ये ऐसा शब्द है जो लड़कियां आज भी नहीं बोल पातीं और बोलती हैं तो आसपास देखती हैं कि उन्हें कौन सुन रहा है. साल 2020 में ये चर्चा में रहा क्योंकि फूड डिलीवरी कंपनी जोमैटो ने महिला, ट्रांसजेंडर कर्मचारियों को 10 दिनों की लीव देने की घोषणा की.

वाकई यकीन करना मुश्किल है कि पिछड़ा समझे जाने वाले बिहार में महिलाओं ने 30 साल पहले पीरियड लीव की लड़ाई कामयाबी से लड़ी थी. 1992 में बिहार की सरकारी महिला कर्मचारियों को 45 साल की उम्र तक महीने में 2 दिन के पीरियड लीव की मंजूरी मिली. हालांकि इसे ‘आकस्मिक अवकाश’ या नेचुरल लीव कहा गया.

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1990-91 के दौर में बिहार में कई हड़तालें हो रही थीं. 5-6 लाख कर्मचारी कई मांगों को लेकर सड़कों पर थे. अलग-अलग संगठनों की कई मांगे थीं. महिला कर्मचारियों ने हॉस्टल, टॉयलेट, क्रेश की सुविधाओं की मांग की. इन मांगों में 3 दिनों के पीरियड लीव की मांग भी शामिल हुई. लेकिन तत्कालीन सीएम लालू यादव ने 2 दिन की छुट्टी मंजूर की.

उन हड़तालों का हिस्सा रहीं भारती एस कुमार की उम्र उस वक्त करीब 42 साल होगी. वहीं ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेंस एसोसिएशन(AIPWA) की राष्ट्रीय महासचिव मीना तिवारी उस वक्त 22 साल की थीं. इन दोनों ने हड़तालों में हिस्सा लिया था.

मीना तिवारी बताती हैं,

“जब हड़तालें होती थीं तो कुछ महिलाओं को पुरुष कहते थे- तुम्हारे जाने की क्या जरूरत है, मैं चला जाता हूं, तुम थोड़ा घर संभालो. लेकिन जब महिलाओं के बीच बैठकों में हमने ये बात करनी शुरू की कि आप कर्मचारी हैं, अधिकार आपको लेना है तो लड़ाई भी आपको लड़नी होगी. बगैर लड़े हक हासिल नहीं होता है, इसलिए अगर आपको अपना हक चाहिए तो आंदोलन में आपको बराबर की भूमिका निभानी होगी और हम लोगों ने देखा कर्मचारी महिलाओं की उन लंबी हड़तालों में भी दिनभर बैठकें चलती रहती थीं, सभा चलती रहती थी, माइक से नेता लोग भाषण दे रहे हैं और वो पूरे दिन हड़ताल, आंदोलनों में शामिल रहती थीं.”

भारती एस कुमार कहती हैं कि महिलाओं की ये जीत हाइलाईट नहीं हो सकी थी क्योंकि उस दौर में राम मंदिर, मंडल कमीशन जैसे मुद्दे गर्म थे. महिलाएं अपने इस हक का इस्तेमाल कर रही हैं या नहीं, इस बारे में सरकार कितनी जागरुक है वो इस पर अब भी सवाल खड़े करती हैं.

हालांकि, ये लड़ाई अभी भी बाकी है. क्विंट ने कई युवा कामकाजी महिलाओं से भी बातचीत की. उनका मानना है कि पीरियड को लेकर सियासी पार्टियां आज भी जागरूक नहीं हैं. इस मुद्दे पर खुलकर बातचीत होनी चाहिए और जागरुकता फैलाई जानी चाहिए.

महिलाओं ने कैसे लड़ी थी ये लड़ाई देखिए पूरी वीडियो स्टोरी.

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