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ममता Vs सुवेंदु: नंदीग्राम के दो लड़ाकों की पर्सनल, पॉलिटिकल कहानी

नंदीग्राम में भिड़ेंगे बंगाल के दो बड़े दिग्गज, किसमें कितना दम?

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पश्चिम बंगाल में 294 सीटों के लिए चुनाव हो रहा है. लेकिन एक सीट, जिसकी सबसे ज्यादा चर्चा है वो नंदीग्राम है. क्योंकि यहां से पश्चिम बंगाल के दो दिग्गज और पुराने साथी, ममता बनर्जी और सुवेंदु अधिकारी चुनावी मैदान में हैं. टीएमसी से बीजेपी में शामिल हुए सुवेंदु अधिकारी की नंदीग्राम में अच्छी पकड़ मानी जाती है, वहीं सीएम ममता ने खुद इस सीट से चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुनौती को स्वीकार किया है.

अब इस सीट पर 1 अप्रैल को वोटिंग हो रही है. ऐसे में हम आपको ममता बनर्जी और सुवेंदु अधिकारी के अब तक के पूरे राजनीतिक सफर के बारे में बता रहे हैं.

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ममता बनर्जी की ताकत

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी देश की जानी-मानी महिला राजनीतिज्ञ हैं. पश्चिम बंगाल में ये "दीदी" (बड़ी बहन) के नाम से मशहूर हैं, और इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, 34 साल पुरानी वाम मोर्चा सरकार को उनके ही गढ़ में शिकस्त देकर सत्ता हासिल करना. आपको बता दें कि पश्चिम बंगाल में दुनिया की सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार थी.

ममता बनर्जी न सिर्फ पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं, बल्कि 2016 विधानसभा चुनावों में जीत के बाद लगातार दो बार जीतने वाली एकमात्र महिला मुख्यमंत्री भी हैं. इन्हें देश की पहली महिला रेलमंत्री होने का गौरव भी हासिल है. इसके अलावा उन्होंने मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री, कोयला मंत्री, महिला एवं बाल विकास मंत्री और युवा मामले एवं खेल मंत्री के तौर पर भी काम किया है. राज्य के साथ-साथ देश की राजनीति में भी उनकी अच्छी-खासी दखल और साख है.
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शुरुआती जीवन

ममता बनर्जी का जन्म 5 जनवरी 1955 को कोलकाता के एक निम्न-मध्यम बंगाली परिवार में हुआ था. इनका बचपन संघर्षमय रहा क्योंकि सिर्फ नौ साल की उम्र में ही उनके सिर से पिता प्रोमिलेश्वर बनर्जी का साया उठ गया. इन्होंने मुश्किल परिस्थितियों में भी पढ़ाई जारी रखी और कोलकाता के जोगोमाया देवी कॉलेज से इतिहास में स्नातक की उपाधि प्राप्त की. बाद में कलकत्ता विश्वविद्यालय से इस्लामी इतिहास में एमए और कानून की डिग्री भी हासिल की. उन्होंने विवाह नहीं किया और सारा जीवन जनसेवा और राजनीति को समर्पित कर दिया.

राजनीतिक सफर

ममता बनर्जी स्कूल के समय से ही राजनीति में प्रवेश कर चुकी थीं. उनकी शुरुआत कांग्रेस (आई) पार्टी से हुई और 1970 के दशक में उन्होंने तेजी से राजनीतिक सीढ़ियां पार कर लीं. 1976 में वो राज्य महिला कांग्रेस की महासचिव बनाई गईं.

नंदीग्राम में भिड़ेंगे बंगाल के दो बड़े दिग्गज, किसमें कितना दम?
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  • 1976 - 1980: पश्चिम बंगाल में महिला कांग्रेस (आई) की महासचिव
  • 1978-1981: कलकत्ता दक्षिण की जिला कांग्रेस कमेटी (इंदिरा) की सचिव
  • 1984: पहली बार लोकसभा का चुनाव जीता, अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की महासचिव बनीं
  • 1987-1988: अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की राष्ट्रीय परिषद की सदस्य
  • 1988: कांग्रेस संसदीय दल की कार्यकारी समिति की सदस्य
  • 1990: पश्चिम बंगाल की युवा कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गईं
  • 1991: लोकसभा के लिए दूसरी बार चुनी गईं और इसके बार लगातार (1996, 1998, 1999, 2004, 2009) जीतती रहीं
  • 1991-1993: युवा मामले और खेल विभाग, मानव संसाधन विकास, महिला एवं बाल विकास की राज्य मंत्री बनीं
  • 1997: अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और इसकी अध्यक्ष बनीं
  • 1999: केन्द्रीय कैबिनेट में स्थान मिला, रेलवे मंत्री बनाई गईं
  • 9 जनवरी 2004-मई 2004: कोयला और खनन विभाग की केंद्रीय मंत्री
  • 31 मई 2009-जुलाई 2011: दूसरी बार रेलवे मंत्रालय का काम संभाला
  • कार्यकाल के दौरान नान-स्टॉप दूरंतो एक्सप्रेस ट्रेनों की शुरुआत की
  • 9 अक्टूबर 2011: 15वीं लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया
  • 20 मई 2011: पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं
  • 19 मई 2016: वह लगातार दूसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनीं
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उपलब्धियां

1997 में कांग्रेस से अलग होने के बाद ममता बनर्जी ने सफलतापूर्वक एक नई पार्टी का गठन किया. कांग्रेस की मौजूदगी के बावजूद टीएमसी जल्द ही पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल बन गई. ममता बनर्जी ने बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुआई वाली वाम मोर्चा सरकार द्वारा जबरन भूमि अधिग्रहण के खिलाफ सफल आंदोलन चलाया और वाम सरकर को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. ममता ने अपने निर्भीक रवैये और जुझारूपन से जनता का विश्वास जीता और वाम कैडर के आतंक के बावजूद जन-संपर्क और जनहित के मुद्दों को लेकर आवाज उठाना जारी रखा.

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2011 में ममता के नेतृत्व में टीएमसी, कांग्रेस और एसयूसीआई के गठबंधन ने पश्चिम बंगाल विधानसभा की 227 सीटों (टीएमसी -184, कांग्रेस -42, एसयूसीआई -1) पर जीत दर्ज की. ममता बनर्जी 20 मई 2011 को बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गईं. ये एक ऐतिहासिक जीत थी, क्योंकि 34 साल पुरानी वाम मोर्चे सरकार को हटाना आसान नहीं था और देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस भी वामपंथ के इस गढ़ को भेद नहीं पाई थी.
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सामाजिक उपलब्धियां

  • महिला सांसद के रूप में रूस में आयोजित वर्ल्ड वूमेन राउंड टेबल कांफ्रेंस में देश का प्रतिनिधित्व किया.
  • लंबे समय से चली आ रही गोरखालैंड की समस्या को हल करने में भी ममता बनर्जी का योगदान रहा है.
  • 2012 में टाइम मैगजीन ने उन्हें दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक के रूप में शामिल किया.
  • मई 2013 में, इंडिया अगेन्स्ट करप्सन संगठन ने ममता बनर्जी को भारत की सबसे ईमानदार राजनेता के तौर पर सम्मानित किया.
  • अपने जीवन में भी उन्होंने हमेशा एक सरल जीवनशैली अपनाई है. इनकी सादगी और व्यक्तिगत ईमानदारी पर कभी सवाल खड़े नहीं हुए.
  • ममता बनर्जी कई मानव और सामाजिक अधिकार संगठनों से भी जुड़ी हैं जो गरीब बच्चों और महिलाओं के कल्याण और विकास के काम में जुटे हैं.
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इन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं. बंगाली में – उपलब्धि, मां-माटी-मानुष, जनतार दरबारे, मातृभूमि, तृणमूल, जागो बांग्ला, गणोतंत्र लज्जा, अशुबो शंकेत आदि और अंग्रेजी में स्लॉटर ऑफ डेमोक्रेसी (लोकतंत्र की हत्या), स्ट्रगल ऑफ एक्सिसटेंस (अस्तित्व का संघर्ष), डार्क हॉरिजोन (गहरा क्षितिज), स्माइल (मुस्कान) आदि प्रकाशित हुई हैं

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सुवेंदु अधिकारी का राजनीति से नाता

नंदीग्राम में भिड़ेंगे बंगाल के दो बड़े दिग्गज, किसमें कितना दम?

आजादी की लड़ाई के समय से ही अधिकारी परिवार की पूर्वी मिदनापुर इलाके में खासी प्रतिष्ठा और राजनीतिक हस्ती रही है. सुवेंदु के दादा केनाराम अधिकारी स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे और अंग्रेजों ने तीन-तीन बार उनके घर को जला दिया था. उनके बाद सुवेंदु के पिता शिशिर अधिकारी ने परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया और 33 सालों तक कांथी म्युनिसिपल कारपोरेशन के चेयरमैन बने रहे. शिशिर अधिकारी 1982 में कांग्रेस के टिकट पर कांथी दक्षिण सीट से विधायक निर्वाचित हुए, लेकिन बाद में ममता बनर्जी के साथ जुड़ गये और तृणमूल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे.

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परिवार का राजनीतिक असर

मनमोहन सिंह सरकार में ग्रामीण विकास राज्य मंत्री रह चुके शिशिर अधिकारी फिलहाल तामलुक लोकसभा सीट से सांसद हैं. शुभेंदु के छोटे भाई दिव्येंदु अधिकारी कांथी लोकसभा सीट से सांसद चुने गए, जबकि दूसरे भाई सौमेंदु कांथी नगर पालिका के अध्यक्ष हैं. पूर्वी मिदनापुर, जिसके अंतर्गत 16 विधानसभा सीटें हैं, के साथ-साथ पड़ोस के पश्चिमी मिदनापुर, बांकुरा और पुरुलिया आदि जिलों की करीब 60 विधानसभा सीटों पर इस परिवार का प्रभाव है.

यूं समझिये कि पूर्वी मिदनापुर इलाका, कई दशकों से अधिकारी परिवार की जन्मभूमि और कर्मभूमि रहा है. इसलिए अगर सुवेंदु को नंदीग्राम का बेटा कहा जाता है, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है.

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राजनीति की शुरुआत

कांथी पीके कॉलेज से स्नातक शुभेंदु अधिकारी ने छात्र जीवन में ही राजनीति में कदम रखा और 1989 में छात्र परिषद के प्रतिनिधि चुने गए. सुवेंदु ने अपनी राजनीतिक यात्रा कांग्रेस से शुरू की और 1995 में कांथी म्युनिसिपल काउंसलर का चुनाव लड़ा. साल 2006 में कांथी (दक्षिण) से विधान सभा का चुनाव जीता और पहली बार विधायक बने. उसी साल कांथी म्युनिसिपल कारपोरेशन के चेयरमैन भी चुने गए.

लेकिन सुवेंदु को राष्ट्रीय राजनीति में नाम कमाने का मौका मिला साल 2007 में, जब उन्होंने नंदीग्राम में इंडोनेशियाई रासायनिक कंपनी के लिए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ ‘भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी’ के बैनर तले आंदोलन खड़ा किया. नंदीग्राम आंदोलन ने सुवेंदु को पूरे बंगाल में लोकप्रिय बना दिया और प्रदेश के एक युवा और जुझारू नेता के तौर पर स्थापित किया. पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर की गई गोलीबारी में कई लोगों की मौत के बाद आंदोलन और उग्र हो गया, जिसकी वजह से तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार को झुकना पड़ा. नंदीग्राम के बाद हुगली जिले के सिंगूर में भी टीएमसी के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन में उन्होंने अहम भूमिका निभाई.

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राज्य स्तर पर आंदोलन का नेतृत्व कर रही ममता बनर्जी ने सुवेंदु की क्षमता और ताकत को पहचाना और जल्द ही सुवेंदु, ममता बनर्जी के सबसे करीबी नेताओं में शामिल हो गये. माना जाता है कि नंदीग्राम आंदोलन में शुभेंदु के रणनीतिक कौशल को देखते हुए ममता बनर्जी ने उन्हें जंगलमहल जिसके अंतर्गत मिदनापुर, बांकुरा और पुरुलिया आदि जिले आते हैं, में तृणमूल के विस्तार का काम सौंपा था.

वाम मोर्चा का गढ़ कहे जाने वाले इन जिलों में शुभेंदु ने पार्टी की पकड़ को मजबूत बनाया. इसके अलावा उन्होंने मुर्शिदाबाद और मालदा में भी तृणमूल को बढ़त दिलाने के काम को अंजाम दिया. संगठन पर बेहतर पकड़ के बूते ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने 2011 के बाद 2016 में भी शानदार प्रदर्शन किया.

2011 में टीएमसी ने वाम दलों की सत्ता उखाड़ फेंकी और ममता बनर्जी बंगाल की मुख्यमंत्री बन गईं. इस दौरान साल 2009 और 2014 में टीएमसी के टिकट पर सुवेंदु ने तुमलुक संसदीय सीट का चुनाव जीता. लेकिन बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी को जल्द ही लगने लगा कि सुवेंदु की जरुरत दिल्ली से ज्यादा बंगाल में है. इसलिए 2016 में उन्होंने सुवेंदु को विधानसभा चुनाव में खड़ा किया और नंदीग्राम से जीत हासिल करने के बाद उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया. धीरे-धीरे सुवेंदु का कद इतना बढ़ा कि वो टीएमसी में ममता के बाद दूसरे नंबर के नेता बन गए. अब इनका प्रभाव सिर्फ नंदीग्राम में ही नहीं, पूरे बंगाल पर था.

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इसी दौरान टीएमसी की राजनीति में ममता के भतीजे अभिषेक और प्रशांत किशोर का पदार्पण हुआ. उनकी दखलअंदाजी की वजह से सुवेंदु को टीएमसी छोड़नी पड़ी और वो बीजेपी में शामिल हो गए.

विवादों से नाता?

शुभेंदु अधिकारी कई बार विवादों में भी घिरे. नंदीग्राम आंदोलन के दौरान हुए खूनी संघर्ष को लेकर उन पर कमेटी के लोगों को हथियार उपलब्ध कराने के आरोप लगे. सारदा घोटाले में भी अधिकारी का नाम आया. दरअसल कंपनी के एक पूर्व कर्मचारी ने आरोप लगाया था कि सारदा के प्रमुख सुदीप्तो सेन ने भागने से पहले अधिकारी से मुलाकात की थी. सीबीआई ने 2014 में सारदा समूह के वित्तीय घोटाले में कथित भूमिका को लेकर अधिकारी से पूछताछ भी की. हालांकि अधिकारी ने इन तमाम आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया.

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