उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन की मुलाकात सारी दुनिया के लिए बड़ी खबर बनी हुई है. आइए जानते हैं कि दोनों नेताओं की इस मुलाकात और बातचीत के मायने क्या हैं?
65 साल बाद हुआ ऐसा...
1953 में दोनों कोरिया के बीच युद्ध रुकने के बाद ये पहला वाकया है, जब उत्तर कोरिया के किसी शासक ने दक्षिण कोरिया की धरती पर कदम रखा है. इन साढ़े छह दशकों के दौरान दोनों देशों के बीच लगातार तनाव बना रहा.
उत्तर कोरिया में 1950 के दशक से अब तक किम जोंग उन के दादा, फिर उनके पिता और अब खुद उनकी निरंकुश सत्ता है. इस दौरान उत्तर और दक्षिण कोरिया के संबंध कभी सामान्य नहीं हो सके. इस मुलाकात से दोनों देशों के बीच सामान्य रिश्ते बहाल होने की उम्मीद की जा रही है.
किम जोंग से आशंकित रही है दुनिया
उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन का विनाशकारी हथियारों से लगाव जगजाहिर रहा है. इनमें परमाणु हथियार और खतरनाक मिसाइलें शामिल हैं. किम के सनकी तानाशाह होने की छवि और उनके पास मौजूद खतरनाक हथियारों के जखीरे को सिर्फ दक्षिण कोरिया ही नहीं, सारी दुनिया के लिए खतरा माना जाता है.
ऐसे में किम जोंग अगर दक्षिण कोरिया के साथ शांति वार्ता करके अपने रुख में नरमी के संकेत दे रहे हैं, तो सबके लिए राहत की बात है.
किम जोंग का परमाणु परीक्षण बंद करने का ऐलान
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून के साथ मुलाकात से कुछ ही दिनों पहले किम जोंग उन ने ऐलान किया कि उत्तर कोरिया 21 अप्रैल से सभी परमाणु परीक्षण और मिसाइल टेस्ट बंद कर देगा. अमेरिका और चीन समेत दुनिया के तमाम देशों ने किम के इस ऐलान का स्वागत किया. ये उम्मीद भी बंधी कि उत्तर कोरिया परमाणु हथियारों को पूरी तरह खत्म करने के लिए तैयार हो सकता है. इस ऐलान के कारण किम और मून की मुलाकात पर सारी दुनिया की नजरें टिक गईं.
किम के रुख में नरमी क्यों दिख रही है?
किम जोंग उन के रुख में नरमी के लिए कई जानकार उत्तर कोरियाई अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को जिम्मेदार मानते हैं. इस खस्ता हालत की वजह है दशकों से जारी सैन्यवादी तानाशाही, जिसने कभी कम्युनिज्म, तो कभी आत्म-निर्भरता के नाम पर गलत आर्थिक नीतियां चलाईं.
इन गलत नीतियों के चलते ही 1994 से 1998 के दौरान अकाल पड़ने पर उत्तर कोरिया में भयानक तबाही मच गई. एक अनुमान के मुताबिक इस दौरान वहां 35 लाख लोगों की भूख से मौत हो गई थी. अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में ये बात बार-बार सामने आती रही है कि उत्तर कोरिया की अधिकांश जनता को आज भी भरपेट भोजन नसीब नहीं है.
देश के करीब आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. किम जोंग उन अपनी 'आर्मी फर्स्ट' की नीति के तहत सीमित साधनों का ज्यादातर हिस्सा हथियारों या सेना पर खर्च करता है. हथियारों की इस होड़ के बोझ और परमाणु परीक्षणों के कारण लागू अंतरराष्ट्रीय आर्थिक पाबंदियों ने उत्तर कोरिया की माली हालत और खराब कर दी है.
किम को असंतोष का डर सता रहा है?
किम को अपना तानाशाही राज कायम रखने के लिए भी लगातार संसाधनों की जरूरत पड़ती है. ये संसाधन, उत्तर कोरिया की पहले से गरीब जनता के लगातार शोषण से और कितने वर्षों तक जुटाए जा सकते हैं? सिर्फ चीन के भरोसे भी इसे लंबे समय तक चलाना मुमकिन नहीं है. ऐसे में अगर अंतराष्ट्रीय प्रतिबंध नहीं हटे और दक्षिण कोरिया समेत दुनिया के दूसरे विकसित देशों के साथ आर्थिक रिश्ते नहीं सुधरे, तो उत्तर कोरिया की भूखों मरने को मजबूर जनता किम की तानाशाही को और कितने दिन बर्दाश्त करेगी?
वैसे तो, उत्तर कोरिया में मानवाधिकारों के लिए कोई जगह नहीं है. बगावत या असंतोष की हल्की सी आहट को भी क्रूरता से कुचल दिया जाता है. इसके बावजूद कुछ जानकारों की राय में किम को ये डर हो सकता है कि हालात और बिगड़ने पर मजबूर जनता कहीं जान की फिक्र किए बिना बगावत पर न उतर आए. शायद ये डर भी उसे अपने रुख में बदलाव के लिए मजबूर कर रहा है.
क्या किम जोंग उन पर भरोसा किया जा सकता है ?
उत्तर कोरिया के तानाशाह पर बारीकी से नजर रखने वाले ज्यादातर जानकारों का मानना है कि किम जोंग उन के रुख में फिलहाल भले ही बदलाव नजर आ रहा हो, लेकिन उनके इरादों पर पूरी तरह यकीन नहीं किया जा सकता.
मसलन, उन्होंने आइंदा परमाणु और मिसाइल परीक्षण नहीं करने का ऐलान भले ही कर दिया है, लेकिन पहले से तैयार विनाशकारी हथियार उसके पास अब भी मौजूद हैं. ऐसे में दक्षिण कोरिया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को किम जोंग उन के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में बेहद फूंक-फूंककर कदम रखने होंगे.
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