कोरोना (Corona) के कहर से पहले ही सहमी हुई ग्लोबल इकोनॉमी (Global Economy) के आगे रूस-यूक्रेन वॉर (Russia Ukraine war) के रूप में एक ऐसा खतरा खड़ा हो गया है जो दुनिया भर की वित्तीय व्यवस्था को हिलाकर रख देने वाला है. पहले तो इस बारे में सिर्फ आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं, पर अब वे सच साबित होती दिखाई देने लगी हैं. रूस के हमलों का असर कमोडिटी, इक्विटी और मुद्रा बाजारों में महसूस किया जाने लगा है.
युद्ध से पहले यूक्रेन को दुनिया में कोई भी अपनी सप्लाई चेन का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं मान रहा था, पर अचानक जैसे ही पता चला कि सप्लाई चेन का यह छोटा सा हिस्सा गायब है, तो अधिकांश देशों के और बड़े बड़े आर्थिक जानकारों के हाथों के तोते उड़े हुए हैं. यहां समझिए कि किस तरह से यह वॉर ग्लोबल इकोनॉमी पर असर डाल रहा है.
परिवहन की महंगाई आसमान की ओर
अमेरिकन सप्लाई चेन कंसल्टेंसी, फोरकाइट्स के महाप्रबंधक ग्लेन कोएप्के ने इस बारे में चिंताएं जाहिर की हैं. उनके अनुसार समुद्र और वायुमार्ग के जरिए होने वाले परिवहन की महंगाई आसमान छूने की ओर जा सकती है. समुद्र की मार्ग से जाने वाले प्रति कंटेनर पर दरें 10,000 डॉलर से 30,000 डॉलर तक बढ़ सकती हैं. ये अभी की तुलना में दोगुनी या तिगुनी तक हो सकती हैं. हवाई माल ढुलाई की लागत तो और भी अधिक बढ़ने की आशंका है. इसका कारण है कि रूस ने अपने हवाई क्षेत्र को 36 देशों के लिए बंद कर दिया है. इस वजह से शिपिंग विमानों को गोल चक्कर लगाकर बहुत बड़े मार्गों से उड़ना होगा. इससे वे ईंधन पर अधिक खर्च करेंगे और इससे माल को ढोने की दरें बहुत अधिक बढ़ जाएंगी. हवाई मार्ग के बारे में तो कहना होगा कि यूरोपियन देशों ने रूस के विमानों के अपने यहां से गुजरने पर रोक लगाकर पुतिन के देश को उतना नुकसान नहीं पहुंचाया जितना रूस ने उनके विमानों को बैन करके उन्हें पहुंचाया है.
रेल भाड़ा के भी बहुत प्रभावित होने की संभावना है. हालांकि रेल एशिया और यूरोप के बीच कुल माल ढुलाई का केवल एक छोटा हिस्सा है, पर इसने हाल के परिवहन व्यवधानों के दौरान सामान लाने ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. लिथुआनिया जैसे देशों का रेल ढांचा तो रूस के हमले से बुरी तरह प्रभावित होंगा. ये छोटे देश रूस के खिलाफ प्रतिबंधों लगाने की स्थिति में नहीं थे, पर विश्व बिरादरी में शामिल होने के कारण उन्हें यह करना पड़ा. इससे उनके यहां का रेल यातायात चौपट हो जाएगा.
देशों के बजट की प्राथमिकताएं बदलेंगी
यह मौजूदा संघर्ष कई देशों के बजट पर भी कुछ अलग तरह से प्रभाव डाल सकता है. इस बारे में डॉयचे बैंक के प्रबंध निदेशक जिम रीड ने 28 फरवरी को अमेरिका के प्रेस को जारी एक नोट में चिंता व्यक्त की कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया के देश में रक्षा खर्च में लगातार कटौती करके विकास की परियोजनाओं पर ज्यादा फोकस करते रहे हैं. अब इस युद्ध के साथ प्राथमिकताएं बदल रही हैं, और रक्षा खर्च के स्तरों के बढ़ने की संभावना है. इससे विकास के अन्य क्षेत्रों के बजट में कटौती होना निश्चित है.
जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़ ने तो घोषणा भी कर दी है कि वह सैन्य खर्च को अपने आर्थिक उत्पादन के 2 प्रतिशत तक बढ़ा देंगे. अब इस तरह की दौड़ पूरी दुनिया में चलेगी जिससे ग्लोबल इकोनॉमी प्रभावित होना तय है. हाई फ्रीक्वेंसी इकोनॉमिक्स के मुख्य अर्थशास्त्री कार्ल वेनबर्ग ने कहा है कि अभी के परिदृश्य में हम हमारे ग्रह की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक के विघटन को देख रहे हैं.
मुद्रास्फीति का बढ़ना रेड अलर्ट
वॉल स्ट्रीट के कई विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों ने अपने बयान जारी कर इस बात को स्वीकारा है कि उन्होंने यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के परिणामों को पहले कम करके आंका था. घटनाओं के तेजी से बढ़ने के साथ, संभावित आर्थिक नतीजों का आकलन अब बहुत अधिक गंभीर हो चला है. मुद्रास्फीति पहले से ही चिंता का विषय थी. संयुक्त राज्य अमेरिका में 1980 के दशक के बाद से यह उच्चतम स्तर पर चल रही है. अब सवाल यह है कि मुद्रास्फीति कितनी और अधिक बढ़ सकती है और फेडरल रिजर्व और अन्य केंद्रीय बैंक इसे कंट्रोल करने कैसी प्रतिक्रिया देते हैं. ये केंद्रीय बैंक पिछले दो सालों से कोरोना के कारण अर्थव्यवस्था में पैसा डाल रहे हैं. अधिकांश अब धीरे-धीरे इस ग्रांट को वापस लेने की प्लानिंग पर चल रहे थे. मुद्रास्फीति पर कंट्रोल के लिए ब्याज दरों में वृद्धि कर रहे हैं.
अगर मुद्रास्फीति में तेजी ऐसे ही जारी रही और केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरों में आश्चर्यजनक बढोतरी कर दी तो अर्थव्यवस्था का डगमगाना तय है. इससे पब्लिक सर्विस के स्तर को भी कम करना पड़ेगा. इससे पब्लिक सेक्टर के कर्मचारियों के वेतन को कम किया जा सकता है. अगर कंपनियों को लगता है कि वे इससे भी भरपाई नहीं कर पाएंगे तो वे अपने कर्मचारियों की संख्या में कटौती करेंगे, जिससे बेरोजगारी बढ़ जाएगी.
भोजन व खाद्य तेल कर देगा जेबें खाली
अकेला यूक्रेन सूरजमुखी तेल के निर्यात का लगभग आधा हिस्सा बनाता है. युद्धग्रस्त यूक्रेन में कटाई, प्रसंस्करण व निर्यात प्रभावित होना तय है. इससे खाने के तेल आयातक सप्लाई पाने के लिए संघर्ष करेंगे. भारत में तो कई कंपनियों के पास विकल्प ही नहीं हैं, चंद हफ्तों के भीतर खाने के तेलों की कीमतों में बढ़ोतरी तय है. देश के प्रमुख खाद्य तेल निर्माताओं के अनुसार भारत में कच्चे खाद्य तेल की 70 प्रतिशत से अधिक मांग आयात के माध्यम से पूरी की जाती है. सूरजमुखी के तेल के मामले में यह प्रतिशत और भी अधिक है.
यूक्रेन और रूस मिलकर दुनिया के गेहूं के निर्यात का 30 प्रतिशत, मकई का 19 प्रतिशत और सूरजमुखी के तेल का 80 प्रतिशत निर्यात करते हैं, जिसका उपयोग पूरी दुनिया में फूड प्रोसेसिंग में किया जाता है. एसोसिएटेड प्रेस की रिपोर्ट के अनुसार रूस और यूक्रेन का अधिकांश कृषि उत्पादन यमन और लीबिया जैसे अपेक्षाकृत कम अमीर और अस्थिर देशों में जाता है. आज के समय में जब कीमतें 2011 के बाद से अपने उच्चतम स्तर पर हैं और कई देश भोजन की कमी से पीड़ित हैं ,तो सोचा जा सकता है कि इन देशेां का क्या हाल हो सकता है.
तेल तो कमर ही तोड़ देगा
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी में संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य प्रमुख सरकारों द्वारा आपूर्ति को स्थिर करने के लिए रणनीतिक भंडार से 60 मिलियन बैरल जारी करने के समझौते के बावजूद बुधवार को तेल की कीमतें बढ़ीं. न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग में यूएस क्रूड 5.01 डॉलर बढ़कर 108.42 डॉलर प्रति बैरल हो गया. मंगलवार को यह 7.69 डॉलर बढ़कर 103.41 डॉलर हो गया था. अंतरराष्ट्रीय तेल के मूल्य का आधार ब्रेंट क्रूड लंदन में 5.05 डॉलर बढ़कर 110.02 डॉलर प्रति बैरल हो गया. यह पिछले सत्र में 7 डॉलर बढ़कर 104.97 पर था. तेल की कीमतों में यह उबाल देख दुनिया भर के नीति निर्माताओं को पसीने आ रहे. जरा विचार करिए भारत जैसे उन देशों की अर्थव्यवस्था का इससे कैसा हाल होगा जहां के सालाना बजट कच्चे तेल की कीमतें 75 डॉलर प्रति बैरल को ध्यान में रखकर पेश भी किए जा चुके हैं.
रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल निर्यातक और तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. वहां से हर रोज 50 लाख बैरल कच्चा तेल दुनिया को निर्यात होता है. यूरोप की 48 प्रतिशत और एशियाई देशों की 42 फीसद निर्भरता रूस पर ही है. इस सबके बावजूद रूस पर प्रतिबंध लगाने का सोचा जा रहा है. दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक सऊदी भी रूस के साथ खड़ा दिख रहा. तो ऐसे में तेल के इन बाजीगरों से टकराकर ग्लोबल डूबे बिना बच सकेगी क्या.
ऑटो सेक्टर: बंद होने लगे संयंत्र
युद्ध से ऑटोमोबाइल सेक्टर को भारी नुकसान होने की आशंका है. तेल की कीमतों में वृद्धि, सेमीकंडक्टर्स, चिप्स और अन्य दुर्लभ धातुओं की निरंतर कमी से इस सेेक्टर के संकट में इजाफा होगा. यूक्रेन में ऐसी कई कंपनियां हैं जो वाहन निर्माताओं के लिए कलपुर्जों का निर्माण करती हैं. द वॉल स्ट्रीट जर्नल की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोपीय ऑटो कंपनियों को यूक्रेन में बने वायर सिस्टम की आपूर्ति करने वाली एक कंपनी ने अपने दो कारखाने बंद कर दिए हैं. वोक्सवैगन एजी को जर्मनी में अपना एक संयंत्र बंद करना पड़ा है.
शेयर लगातार लुढ़क रहे
तीसरे विश्व युद्ध की आशंका से दुनिया भर के बाजार सहमे हुए हैं और सभी एशियाई बाजार भी गिरावट का लाल निशान ही बुधवार को दिखाते नजर आए. शंघाई, टोक्यो, हांगकांग और दक्षिण पूर्व एशियाई बाजारों में ऐसा ही हाल रहा. टोक्यो में निक्केई 225 इंडेक्स 1.7% गिरकर 26,386.69 पर और शंघाई कंपोजिट इंडेक्स 0.4% गिरकर 3,474.45 पर बंद हुआ. हांगकांग में हैंग सेंग 1.1% गिरकर 22,518.18 पर आ गया. भारत का सेंसेक्स 1.6% गिरकर 55,330.77 पर खुला. न्यूजीलैंड और दक्षिण पूर्व एशियाई बाजारों में गिरावट आई. उधर वॉल स्ट्रीट का बेंचमार्क एसएंडपी इंडेक्स मंगलवार को 1.5% टूट गया.
केवल आस्ट्रेलिया के आंकड़े अलग थे, जहां सिडनी काका एसएंडपी-एएसएक्स 0.1% बढ़कर 7,106.40 हो गया.पर वहां के सरकारी आंकड़ों से पता चला कि ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था में 2021 के अंतिम तीन महीनों में पिछली तिमाही की तुलना में 3.4% की वृद्धि हुई और उपभोक्ता खर्च मजबूत था. तो कुल मिलाकर बाजार का यह संकेत ग्लोबल इकॉनोमी की चिंताओं को ही व्यक्त करता है. मिजुहो बैंक के टैन बून हेंग ने एक रिपोर्ट में कहा कि, यह वर्तमान की भू-राजनीतिक अनिश्चितता और मुद्रास्फीति जनित मंदी का घालमेल हमारे लिए एक क्रूर झटका बनने जा रहा है.
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