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‘नेहरू ने भी छात्रसंघ अध्यक्ष पर देशद्रोह का आरोप नहीं लगाया होता’

कांग्रेसी सांसद शशि थरूर का कहना है कि देशद्रोह के कानून के दुरुपयोग की छूट देना लोकतंत्र को खोखला करने जैसा होगा.

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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की देशद्रोह के आरोप में विवादास्पद गिरफ्तारी ने अंतरराष्ट्रीय बहस को जन्म दिया है.

जेएनयू के हजारों छात्र और शिक्षक कन्हैया कुमार और उसके साथियों की गिरफ्तारी के विरोध में सड़कों पर उतर आए, क्योंकि इन पर एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान देश-विरोधी नारे लगाने का आरोप है. उस प्रदर्शन के दौरान कुछ प्रदर्शनकारियों पर भड़काऊ भाषा के इस्तेमाल का आरोप भी है.

यह गिरफ्तारी सरकार और विपक्ष के बीच एक राजनीतिक विवाद का विषय भी बन गया है. बीजेपी के कार्यकर्ता कन्हैया के पक्ष में बोलने वालों को देशद्रोही बता रहे हैं. विपक्ष के नेता जेएनयू की घटना को बीजेपी की लगातार चल रही असहिष्णु नीतियों और अपने सियासी विरोधियों के राजनीतिक उत्पीड़न की एक और मिसाल करार दे रहे हैं.

बड़ी विडंबना है कि खुद जवाहरलाल नेहरू, जिनके नाम पर यह विश्वविद्यालय है, कन्हैया के खिलाफ लगे देशद्रोह के आरोपों से असहमत होते. वह देशद्रोह के कानून को ‘आपत्तिजनक और जहरीला’ मानते थे.

कांग्रेसी सांसद  शशि थरूर का कहना है कि देशद्रोह के कानून  के दुरुपयोग की छूट देना लोकतंत्र को खोखला करने जैसा होगा.
जेएनयू के शिक्षक और छात्रों ने जेएनयूएसयू अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के विरोध में परिसर में रविवार को एक मानव श्रृंखला बनाई. (फोटोः पीटीआई)
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एक जर्जर हो चुका कानून

वकील देशद्रोह के कानून को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के सेक्शन 124-ए के नाम से जानते हैं. सेक्शन 124-ए ब्रिटेन के 19वीं सदी के उपनिवेशवादी दमन के दौर से निकला है. इसे शाही तख्त के खिलाफ असंतोष का दमन करने के लिए साम्राज्य को ताकतवर बनाने के लिए लिखा गया था.

सेक्शन 124-ए ऐसे हर किसी काम को रोकता है, जिससे सरकार के खिलाफ “असंतोष” या “अवमानना” का प्रदर्शन होता हो. इसको भारतीय राष्ट्रवादियों की आलोचना से ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों की रक्षा के लिए तैयार किया गया था.

भारतीय राष्ट्रवादी अपनी आजादी के अधिकार की मांग करने लगे थे. 124-ए के शुरुआती शिकार भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नायक रहे थेः बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, और महात्मा गांधी.

दूसरे लोकतंत्रों में न्यायिक व्यवस्थाओं ने अभिव्यक्ति की आजादी के मूल अधिकार की रक्षा के लिए प्रायः इस 19वीं सदी के देशद्रोह कानून को खत्म कर दिया है. वैश्विक रूप से ज्यादातर लोकतंत्र देशद्रोह के कानून को उन कृत्यों तक सीमित कर दिया है, जिनमें आरोपी गंभीर हिंसात्मक घटनाओं को अंजाम देता है.

संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने ब्रेंडनबरा बनाम ओहियो (1969) के एक अहम मुकदमे में यह फैसला दिया कि सरकार अभिव्यक्ति के खिलाफ कानूनी झिड़की का इस्तेमाल तब तक नहीं कर सकती, जब तक कि यह ‘बेहद तत्काल और गैरकानूनी कार्य’ न हो. तत्काल और गैरकानूनी काम का यह स्तर दुनिया भर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मानक बन गया.
कांग्रेसी सांसद  शशि थरूर का कहना है कि देशद्रोह के कानून  के दुरुपयोग की छूट देना लोकतंत्र को खोखला करने जैसा होगा.
14 फरवरी, 2016 को जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की रिहाई की मांग को लेकर आईसा आंदोलनकारियों ने नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया. (फोटोः आईएएनएस)

ब्रिटिश सरकार, जिसने भारत के देशद्रोह कानून का मसौदा तैयार किया, उसने भी इस कानून को पूरी तरह 2009 में खत्म कर दिया.

राजद्रोह, विद्रोहात्मक और मानहानि परिवाद बीते युग के रहस्यमय अपराध रहे हैं, जब अभिव्यक्ति की आजादी को आज की तरह अधिकार नहीं माना जाता था. अभिव्यक्ति की आजादी को आज लोकतंत्र का आधार स्तंभ माना जाता है. निजी राय से राज्य की आलोचना की योग्यता को ही इस आजादी को बनाए रखने में अहम माना जाता है.
क्लेयर वार्ड, साल 2009 में यूके के न्याय मंत्री

वास्तव में, वार्ड ने यह माना, “इस देश में इन अप्रचलित अपराधों को दूसरे देशों ने ऐसे ही कानूनों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बहाने की तरह इस्तेमाल किया है, जिनके जरिए सक्रिय रूप से राजनीतिक असंतोष को दबाने और प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जाता है.” जेएनयू की घटना के संदर्भ में, उनके शब्द आज भी प्रासंगिक लगते हैं.

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एक आदिम कानून का बोझ

  • देशद्रोह कानून—19वीं सदी से अस्तित्व में है, जब इसका इस्तेमाल साम्राज्य द्वारा राज सिंहासन के खिलाफ आवाजों को खामोश करन में किया जाता था.
  • ज्यादातर लोकतंत्रों ने देशद्रोह के आरोपो को सिर्फ हिंसात्मक कृत्यों तक सीमित कर दिया है.
  • जेएनयू में देशद्रोह कानून का बमुश्किल एक अलहदा मामला है, राज्य सरकारें इसका बड़े खतरनाक तरीके से इस्तेमाल किया करती हैं.
  • बुनियादी बात है कि हम ऐसे औपनिवेशिक कानूनों से पंगु न हो जाएं, जिनपर बढ़ती हुई असहिष्णुता का असर दिखता है.

देशद्रोह कानून का दुरुपयोग

हालांकि भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बाहर निकल आया, लेकिन अभी भी इस पर औपनिवेशिक कानूनों का भारी बोझ है. इनमें सेक्शन 377 से लेकर 124-ए तक शामिल हैं.

आजादी के करीब 70 साल बाद भी भारत में देशद्रोह कानून के दुरुपयोग की आशंकाएं हैं. सेक्शन 124-ए में स्पष्टता नहीं है और यह देशद्रोह को एक तत्काल और गैरकानूनी कृत्य के रूप में पारिभाषित करता है.

इसकी वजह से 124-ए के तहत देशद्रोह के आरोपों का पत्रकारों, आंदोलनकारियों और राजनेताओं के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 124-ए के इस्तेमाल को ब्रेंडनबरा बनाम ओहियो के संदर्भ तक सीमित रखा है, लेकिन निचली अदालतें ऐसे फैसलों को प्रायः नजरअंदाज कर देती हैं.

नतीजतन, देशद्रोह कानून का राजनीतिक वजहों से दुरुपयोग जारी रहा है. जेएनयू में देशद्रोह का इस्तेमाल बमुश्किल अलहदा मामला है, क्योंकि राज्य सरकारें इसका खुलकर इस्तेमाल किया करती हैं.

हालिया बरसों में इसके शिकारों में कश्मीर पर अपनी टिप्पणियों की वजह से लेखिका अरुंधती रॉय, भ्रष्टाचार पर व्यंग्यात्मक कार्टून बनाने के लिए कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, एक क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तान की हौसलाअफजाई करने के लिए कश्मीरी छात्रों का एक समूह और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री पर मजाक बनाने वाले तमिल लोकगायक जैसे लोग रहे हैं.

इन सब मामलों में हिंसा की तत्काल आशंकाओं की बात कही गई. यह वास्तव में लोकतांत्रिक असहमति का औपनिवेशिक रूप से अराजक अस्वीकृति थी.

कांग्रेसी सांसद  शशि थरूर का कहना है कि देशद्रोह के कानून  के दुरुपयोग की छूट देना लोकतंत्र को खोखला करने जैसा होगा.
जेएनयू के छात्रों पर देशद्रोह और आपराधिक षड्यंत्र का मामला बनाने के खिलाफ आइसा के प्रदर्शनकारियों ने 14 फरवरी 2016 को पटना में प्रदर्शन किया. (फोटोः आईएएनएस)
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124-ए को संशोधित करने की जरूरत

मैंने निजी विधेयक के तौर पर लोकसभा में सेक्शन 124-ए के संशोधन का विधेयक पेश किया था. इसके खारिज होने तक को मीडिया में कोई जगह नहीं मिली, जबकि इसके साथ ही सेक्शन 377 की खबर उछल गई थी. लेकिन सच तो यह है कि इस विधेयक को बिना किसी विरोध के पेश किया गया था.

मेरे संशोधन के मुताबिक, 124-ए के पुराने पड़ चुके कानून में देशद्रोह को फिर से पारिभाषित करना था, जिसमें सिर्फ उन शब्दों और कृत्यों को इसके तहत लाया जाता, जिनसे सीधे हिंसा होती. इससे सेक्शन 124-ए वैश्विक न्यायिक मानकों के बराबर आ जाता और वह अस्पष्टता खत्म हो जाती, जिसकी वजह से इसके दुरुपयोग होने की आशंका है.

यह संशोधन सुनिश्चित कर रहा था कि भारतीय दंड संहिता अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान भी करे, साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन रही हिंसात्मक कार्रवाईयों को दंडित भी.

मेरा संशोधन लोकतंत्र की रक्षा के लिए था, न कि पक्षपातपूर्ण राजनीति के लिए. इससे किसी भी राजनीतिक विचारधारा की सरकार हो, उसके द्वारा देशद्रोह के आरोपों के दुरुपयोग को रोका जा सकता था.

देशद्रोह के मामलों के शिकार ही पीड़ित नहीं होते, बल्कि बल्कि इसका दुरुपयोग भारतीय लोकतंत्र की उस गरिमा को कम करता है, जिसका आधार ही देश के प्रशासन में विभिन्न प्रकार की आवाजों को एक साथ बनाए रखना है.

असहमति का दमन सार्वजनिक तर्क और विवेचना के उलट है, जिसके बारे में अमर्त्य सेन कहते हैं कि जो भारत के स्वस्थ लोकतंत्र की कामयाबी और बने रहने के लिए बुनियादी जरूरत है.

कांग्रेसी सांसद  शशि थरूर का कहना है कि देशद्रोह के कानून  के दुरुपयोग की छूट देना लोकतंत्र को खोखला करने जैसा होगा.
जेएनयू छात्र संघ की कथित देशद्रोह संबंधी गतिविधियों के विरोध में भोपाल के छात्रो की रविवार को हुई रैली. (फोटोः पीटीआई)  

औपनिवेशिक कानूनों को खत्म करना

भारत में प्रशासन चलाना असल में विभिन्न जातियों, नस्लों और धारणाओं को इकट्ठा करने सरीखा है. लेकिन बुनियादी बात है कि हम ऐसे औपनिवेशिक कानूनों से बंधे न रहें, जो असहिष्णुता को बढ़ाने पर असर डाले और विचारधाराओं का विरोध करे.

मुझे उम्मीद है कि राष्ट्रहित में लोकसभा जल्दी ही मेरे संशोधन पर विचार करेगी. संसद की महान जिम्मेदारी है कि वह भारतीय स्वतंत्रता के वास्तुकारों की विरासत को आगे बढ़ाए, जिन्होंने देशद्रोह कानून को उनकी आवाज दबाने के रूप में देखा था और उसे सिरे से अलोकतांत्रिक मानते थे. सेक्शन 124-ए मेरे संशोधनों को पास किया जाना इस दिशा में बड़ा कदम होगा.

सेक्शन 124-ए के दुरुपयोग को जारी रखना भारतीय लोकतंत्र को पीछे धकेलने सरीखा होगा. भारतीय औपनिवेशिक अन्यायपूर्ण इतिहास से एक और निशान को मिटाना, हो सकता है जेएनयू के कन्हैया जैसों के लिए काफी देर हो. लेकिन भारत के लिए और लोकतंत्र के लिए, यही वक्त है कि देशद्रोह कानून को संशोधित करके बदला जाए.

(भूतपूर्व यूएन अंडर सेक्रेटरी जनरल रहे शशि थरूर कांग्रेस के सांसद और लेखक हैं. लेखक यह लेख लिखे जाने में बेशकीमती सहयोग के लिए एडम जोसेफ और सोनाक्षी कपूर का हार्दिक शुक्रिया अदा करते हैं.)

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