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हरियाणा: जाटों का आरक्षण विवाद खेती संकट की देन है

कम उपज, कम होती राजनीतिक साख जैसे मुद्दे जाट आरक्षण बवाल के जन्मदाता हैं

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सोशल मीडिया के जमाने से कई साल पहले, सीधे कहा जाए तो 1988 में अच्छी खासी ताकत वाले एक जाट और किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने दिल्ली के बोट क्लब में एक रैली आयोजित की जिसने उस वक्त की सरकार के माथे पर बल डाल दिए थे. देश के जनमानस पर प्रभाव की बात की जाए तो शायद उस समय की भारतीय किसान यूनियन हाल के अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से कम सफल नहीं थी.

उस समय के प्रदर्शनों के बारे में पढ़ने के बाद मैं हमेश उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले में टिकैत के गांव जाकर उनके उस जादू को समझने के बारे में सोचता रहा. और फिर 2014 में मुझे ऐसा करने का मौका मिला. आज टिकैत दुनिया में नहीं हैं, और उनकी बनाई संस्था बीकेयू, आज उनके बेटे नरेश टिकैत के नेतृत्व में वक्त के साथ चलने की जद्दोजहद कर रही है.

किसान समुदाय की घटती ताकत

नरेश टिकैत से दो घंटे की बातचीत के बाद, मुझे उनकी मायूसी समझ आने लगी थी. वहां, ताकत और प्रभाव के कम हो जाने का अहसास था. आज भी राजनीतिक पार्टियां बीकेयू जैसी संस्थाओं से हाथ मिलाती हैं, लेकिन ये सब रस्मी तौर पर होता है, सिर्फ चुनावों से पहले. यहां किसानों से जुड़ाव की, उनकी समस्याओं को सामने ले जाने की, और उनके हिसाब से नीतियों में बदलाव करने की कोई कोशिश नहीं की जाती.

आर्थिक रूप से संपन्न हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में भी किसानों को राजनीतिक हाशिए पर छोड़ दिए जाना, किसानों की घटती ताकत का नतीजा है.

आज जब सरकारी नौकरियों और कॉलेजों में आरक्षण के लिए पिछड़ी जातियों में शामिल किए जाने की जाटों की मांग, हिंसक रूप लेती जा रही है, मुझे नरेश टिकैत से की गई बातें याद आ रही हैं.

स्नैपशॉट

बदलते समीकरण

  • हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कम होती किसानों की ताकत ने उन्हें राजनीति के हाशिए पर पहुंचा दिया है.
  • अधिकतर जाट युवाओं के खेती में लगे होने के कारण उनका प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में प्रतिनिधित्व काफी कम है.
  • जमीन की घटती जोत, और बढ़ती लागत ने खेती के संकट में और इजाफा किया है.
  • खेती के व्यवसाय की इस अनिश्चितता में, किसान सरकारी नौकरियों में आय का एक निश्चित साधन तलाश रहे हैं.
कम उपज, कम होती राजनीतिक साख जैसे मुद्दे जाट आरक्षण बवाल के जन्मदाता हैं
सिरसा में 20 फरवरी 2016 को आरक्षण के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग 9 पर घेराबंदी करते जाट आंदोलनकारी. (फोटो: पीटीआई)
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सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व, शिक्षा में पिछड़ापन

हरियाणा की जनसंख्या में 25 फीसदी का हिस्सा रखने वाले जाट भले ही हरियाणा में बड़ा प्रभुत्व रखते हैं, लेकिन खेती में घटते फायदे के कारण वे अपना राजनीतिक प्रभाव खोते जा रहे हैं.

एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 87 फीसदी जाट खेती से जुड़े हुए हैं. हालांकि क्लास I और क्लास II की सरकारी नौकरियों में जाट 21 फीसदी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कि उनकी जनसंख्या के प्रतिशत के लगभग बराबर है. लेकिन ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन, दोनों ही स्तरों पर जाट अन्य समुदायों से पीछे हैं.

शिक्षा के पिछड़े स्तर के कारण ही शायद प्राइवेट नौकरियों में जाटों का प्रतिनिधित्व काफी कम है. लखनऊ के गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज के अजित कुमार की पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 5 जिलों में की गई स्टडी बताती है कि प्राइवेट नौकरियों में यादवों और गुर्जरों का प्रतिनिधित्व जाटों से ज्यादा है.

स्टडी के मुताबिक, सरकारी नौकरियों में यादवों का अनुपात जहां 2.32 प्रतिशत और गुर्जरों का 1.7 प्रतिशत है, वहीं जाटों का अनुपात 1.3 फीसदी ही है. हरियाणा में भी स्थिति कुछ अलग नहीं है.

कम उपज, कम होती राजनीतिक साख जैसे मुद्दे जाट आरक्षण बवाल के जन्मदाता हैं
स्पेशल बैकवार्ड क्लास का दर्जा मांगते जाट, 19 फरवरी 2016 को गुड़गांव में प्रदर्शन करते हुए. (फोटो: आईएनएस)

कृषि संकट का असर सभी जाटों पर

खेती का संकट सभी की नजर में है. 1970-1971 में औसत जोत जहां 2.28 हेक्टेयर हुआ करती थी, 2010-2011 में घटकर यह 1.16 हेक्टेयर रह गई है. इससे भी बुरा यह है कि देश में जितनी कृषि योग्य भूमि पर हो रही खेती का 67 फीसदी हिस्सा बेहद छोटी जोत के किसानों के हिस्से आता है, जिनकी औसत जोत 0.68 हेक्टेयर ही है. उसके बाद अगला 18 फीसदी किसान छोटी जोत का किसान है जिसके हिस्से आने वाली औसत जोत 1.42 हेक्टेयर की है.

घटती जोत के अलावा जो कारण खेती के संकट के लिए जिम्मेदार हैं, वे हैं बढ़ती लागत और बढ़ती मंहगाई के बावजूद खाद्यान्नों की स्थिर कीमत. डेटा की मानें तो पिछले दो दशक में खाने की वस्तुओं की कीमत में हुआ इजाफा, इनसे पिछले दशक के इजाफे से काफी कम है.

इन परिस्थितियों को देखते हुए, छोटी और बेहद छोटी जोत के किसानों को, चाहे वे किसी भी समुदाय के हों, खेती के अलावा आय के अन्य साधनों की भी जरूरत है, इसीलिए सरकारी नौकरी में आरक्षण को लेकर बवाल बढ़ता जा रहा है.

हरियाणा में, जाटों के साथ एक बड़ी जनसंख्या है. राजनीतिक रूप से भी वे प्रभावशाली रहे हैं. और अब वे इस प्रभाव को अन्य क्षेत्रों में भी इस्तेमाल करना चाहते हैं. उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि उनके समुदाय के सदस्य सामाजिक पिछड़ेपन की परिभाषा में आते भी हैं या नहीं.

(लेखक, बिजनेस स्टेंडर्ड के कंसल्टिंग एडिटर हैं.)

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