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डियर दिल्ली हाईकोर्ट, ये रहा केजरीवाल जी के ‘ठुल्ला’ का मतलब!

पांडु, ठुल्ला, मामा ये शब्द तो काफी दिनों से चलन में है तो क्यों हर कोई आज इसके बारे में बात कर रहा है?

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लगभग एक साल होने को है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का पीछा ‘ठुल्ला’ शब्द छोड़ ही नहीं रहा है. एक राजनेता के रूप में पुलिस अधिकारियों को ‘ठुल्ला’ बोलना कुछ लोगों को आहत कर गया, और उन्हें गुस्सा आ गया.

दिल्ली पुलिस पर केंद्रीय सरकार के नियंत्रण के बारे में बोलते हुए केजरीवाल ने कहा था, “भले ही एक ‘ठुल्ला’ सड़क के वेंडरों से पैसे वसूल रहा हो पर हम उसे पकड़ने की कोशिश नहीं कर सकते.” अब, मामला दायर होने के सालभर बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने केजरीवाल से कहा है कि वो ‘ठुल्ला’ शब्द का मतलब समझाएं.

लेकिन क्या यह सच में मानहानि है?

ऐसे कई लोग होंगे जिन्होंने ‘ठुल्ला’ शब्द के बारे में कभी नहीं सुना होगा, तो आइए हम आपको समझाते हैं इसका मतलब!

हिंदी का ठुल्ला शब्द दरअसल अंग्रेजी के Thoolah से आया है. ‘ठुल्ल-आह’-’Thool-lah’,यहां ‘टी’ शब्द मूल रूप से एक जूट बोरी का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया गया है. जी हां! आपने बिल्कुल सही पढ़ा.. एक जूट की बोरी.

कई पुलिस, विशेष रूप से उत्तर भारत में, खाकी वर्दी पहनते हैं जिसका रंग जूट की बोरी की तरह होता है. उन्हें वहां अक्सर इसलिए ‘ठुल्ला’ कहा जाता है. क्या अब भी आप इस शब्द को आक्रामकता और मानहानि से जोड़ेंगे?

भारत में पुलिस को और क्या-क्या बुलाते हैं?

पश्चिमी शहरों में लोग पुलिस अधिकारियों को ‘पांडु’ बुलाना पसंद करते हैं. उच्चारण ‘पान-डू’-’paan-doo’. पश्चिमी ग्रामीण इलाकों में इन्हें ‘पांडु हवलदार’ बुलाते हैं. यहां ‘पी’ शब्द का कुछ भी मतलब नहीं है, ‘ठुल्ला’ के विपरीत ‘पांडु’ महज एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है.

अगर आप पूरब की क्षेत्रों की ओर रूख करेंगे तो वहां के लोगों को कानून और व्यवस्था से जुड़े इन अधिकारियों को बोलचाल की भाषा में ‘मामा’ कहते पाऐंगे. यहां तक कि दक्षिण भारत में भी यह शब्द लोकप्रिय है. इस शब्द का सीधा मतलब मां का भाई या चाचा होता है.

जैसा कि शेक्सपियर ने कहा है, “नाम में क्या रखा है?”. सही बात है, वैसे भी नामकरण कोई मुद्दा है क्या? पांडु, ठुल्ला, मामा ये शब्द तो काफी दिनों से चलन में है तो क्यों हर कोई आज इसके बारे में बात कर रहा है?

केजरीवाल ने पुलिस के लिए जिस ‘असंसदीय’ शब्द का इस्तेमाल किया है वो हम हर दूसरे दिल्लीवासी के मुंह से दिन में कई बार सुनते हैं. तो हम अब क्यों इस उलझन में हैं? क्या हमारे पास चिंता करने के लिए और कोई बड़ा मुद्दा नहीं है?

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