संसद का करीब-करीब पूरा शीतसत्र पक्ष-विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोपों के बीच शोर-शराबे में गुजर गया. सबसे ज्यादा हंगामा नोटबंदी के मुद्दे पर हुआ. विपक्ष इस मुद्दे पर सदन में चर्चा के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी के बयान की मांग पर अड़ा रहा. हर बार यह चर्चा अधूरी रही और पीएम मोदी एक ऐसे गंभीर मुद्दे पर संसद में बयान देने से बचते नजर आए, जिससे पूरा देश अब तक परेशान है.
सत्तापक्ष की नीतियों पर संसद में सवाल उठाना और राजनीतिक फायदे के लिए उसे गलत ठहराना विपक्ष की रणनीति का हिस्सा हो सकता है. पर यह सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने नीतिगत फैसले को स्वस्थ बहस के जरिए सही ठहराए. इस बहस को आगे न बढ़ने देने के लिए चाहे विपक्ष जिम्मेदार हो या सत्तापक्ष, पर कुल जमा नतीजा तो यही निकला कि सदन में नोटबंदी पर प्रधानमंत्री का बयान न आ सका.
शीतसत्र के समापन से एक दिन पहले दो दिग्गज नेताओं के बयानों ने सबका ध्यान खींचा. बीजेपी के 'लौहपुरुष' लालकृष्ण आडवाणी सदन की कार्यवाही बार-बार बाधित होने से दुखी हो चुके थे. वे पहले ही कह चुके थे कि सदन की कार्यवाही चल सके, ऐसा न तो विपक्ष चाहता है, न ही सत्तापक्ष. इस बार उन्होंने आजिज आकर कह दिया, 'मन करता है कि इस्तीफा (संसद की सदस्यता से) दे दूं.'
एक और सियासी दिग्गज आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद ने ट्वीट कर बेहद दिलचस्प अंदाज में जनता का दर्द बयां किया:
लालकृष्ण आडवाणी तपे-तपाए, बुजुर्ग नेता हैं. जब उनके सब्र का बांध टूट गया, तो उन्होंने अपनी ही पार्टी को खरी-खरी सुनाई. पर ऐसे लोगों की अगर पार्टी में कोई सुनने वाला होता, तो वे 'मार्गदर्शक मंडल' में रखे ही क्यों जाते?
लालू प्रसाद की टिप्पणी भी गौर करने लायक है. उनके ट्वीट से देशवासियों को वैसे महापुरुषों की याद ताजा हो गई होगी, जिन्होंने देश-प्रदेश में लंबे वक्त तक राज तो किया, लेकिन लूट-खसोट के दौर में भी बेदाग रहे और पब्लिक को गलती से भी एक भी 'किक' न मारी!
जनता के सामने बात रखने का बेहतर मंच कौन-सा?
8 नवंबर की नोटबंदी के बाद आम जनता भी ऐसी उम्मीद कर रही थी कि सदन में पीएम मोदी नोटबंदी के पक्ष में कुछ शानदार तर्क पेश करेंगे. ऐसी उम्मीद थी कि बैंकों और एटीएम की लाइनों में लग-लगकर नाउम्मीद होती जा रहे लोगों को ढाढस बंधाएंगे. यह बताएंगे कि नोटबंदी ने असर दिखाना शुरू किया है या नहीं. कालधन और जाली नोट वालों के दिन लद रहे हैं या नहीं. आतंकियों और नक्सलियों की फंडिंग अब रुक रही है या नहीं.
ऐसा भी नहीं कि पीएम नोटबंदी पर आम लोगों तक अपनी बात नहीं पहुंचा रहे हैं. वे राजनीतिक रैलियों के साथ-साथ हर मंच से नोटबंदी, इस स्कीम को पटरी से उतारने में जुटे बैंकबाबुओं और ई-बटुआ पर खूब बोल रहे हैं. ऐसे में संसद के भीतर इन मुद्दों पर उनका मौन रहना या सदन की कार्यवाही से दूरी बनाना और ज्यादा अखरता है.
केवल ढाई साल पहले की बात हैं. नरेंद्र मोदी पहली बार लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद पहुंच रहे थे. मीडिया के सारे कैमरे एक-एक पल की तस्वीरें बड़ी सावधानी से उतारने में लगे हुए थे. तभी एक बेहद नाटकीय सीन टीवी स्क्रीन पर उभरा. मोदी जी ने संसद भवन के भीतर जाने से पहले सीढ़ियों को माथे से लगाकर नमन किया.
नोटबंदी की कामयाबी और नाकामी के बीच की पहेली को सुलझाने में देश के बड़े-बड़े अर्थशास्त्री जुटे हुए हैं. पर देश की भोली-भाली जनता तो अपने आप से यही सवाल कर रही होगी कि जो सीन उसने ढाई साल पहले देखा था, वह सच था या महज नजरों का धोखा था?
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