ADVERTISEMENTREMOVE AD

अखिलेश यादव से क्या सीख सकते हैं राहुल गांधी?

हैप्पी न्यू ईयर तो अखिलेश ने मनाया है. 2016 के साथ उन्होंने एंटी इनकंबेंसी, पार्टी के दुर्गुणों को पीछे छोड़ दिया

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female
हैप्पी न्यू ईयर तो अखिलेश ने मनाया है. 2016 के साथ उन्होंने एंटी इनकंबेंसी, पार्टी के दुर्गुणों को पीछे छोड़ दिया

राष्ट्रीय राजनीति हमारा इतना माइंड स्पेस घेर लेती है कि कई बार राज्यों में घटित बड़ी राजनीति की पूरी अहमियत हमारी नजर से चूक जाती है. अखिलेश ने स्टेट क्राफ्ट का एक दिलचस्प चैप्टर लिखा है. ये सीखने लायक है. सबसे बड़ी सीख कांग्रेस के लिए है.

किसी ने हैप्पी न्यू इयर मनाया है तो वो अखिलेश हैं. 2016 के साथ-साथ उन्होंने एंटी इनकंबेंसी का बोझ, समाजवादी पार्टी का दुर्गुणों से भरा बैगेज पीछे छोड़ दिया है. परिवार के अड़ियल बुज़ुर्गों से उत्तराधिकार छीन कर लिया है. बेहद कामचलाऊ परफॉर्मेंस के बावजूद अच्छी इमेज के साथ 2017 में नाटकीय एंट्री मारी है.

कम से कम पार्टी पर नियंत्रण पक्का

इसका मतलब अभी ये नहीं निकालना चाहिए कि सपा चुनाव जीत रही है. लेकिन इतना जरूर है कि खुद के भविष्य के लिए बैगेज जितना हल्का किया जा सकता था, वो उन्होंने कर लिया है. चुनाव हार भी गए तो ये तो साफ हो गया है कि पार्टी पर उनका नियंत्रण पक्का हो चुका है. जो सपा के समर्थक हैं, उनमें अपनी छवि उन्होंने और चमका ली है, रौबदाब बढ़ा लिया है और दिखा दिया है कि वो बड़े और कड़े फैसले कर सकते हैं. पिता की हुक्म उदूली भी हमें भा रही है.

पार्टी बड़ी होगी और राज करेगी तो गलतियां भी होंगी. अतीत का बोझ भी होगा. उस बोझ में भ्रष्टाचार के किस्से भी होंगे और लोकतंत्र और संस्थाओं से खिलवाड़ की दास्तानें भी होंगी. एक परिवार चालित पार्टी में उत्तराधिकार में लीडरशिप मिलना तो आसान है, लेकिन उसके बाद पुराने राजनीतिक बैगेज से पीछा छुड़ाना एक चुनौती भरा काम है. अखिलेश ने इसे खेल को बखूबी खेला है.

चार बिंदुओं पर गौर कीजिए

इमेज मेकओवर- चार साल तक आधे सीएम का ताना सुनते रहे और चुनाव के ठीक पहले इस कमी को अपनी भलमनसाहत, शराफत और मासूमियत का सबूत बता दिया और ख़ुद की इमेज को शोर मचाकर प्रोजेक्ट किया. लखनऊ के हजरतगंज की छोड़िए, मुंबई के हाजी अली तक होर्डिंग का हल्ला मचाया. कांग्रेस ने स्ट्रैटेजी खोजने में वक्त बहुत लगाया पर एक ताजा एप्रोच, एक फैसला और उसको लागू करने में अभी भी हिचकिचाहट में है.

लीगेसी मुक्त- ज्यादा बड़ी बात ये है कि अखिलेश ने सपा से जुड़ी हर बुराई से खुद को अलग करने में कोई कन्फ्यूजन नहीं रखा. राहुल गांधी ने खुद राज नहीं किया है, लेकिन कांग्रेस की अप्रिय लीगेसी से खुद को अलग करने की कोशिश उन्होंने नहीं की है. अखिलेश का ये टेंपलेट राहुल को समझना चाहिए.

नया ऑफर - दरअसल अखिलेश जनता को कोई नया राजनीतिक ऑफर भी नहीं दे रहे, फिर भी अहसास वैसा ही दे रहे हैं- जवान है, जोश है, भला है. राज्य की राजनीति में नई राजनीतिक दृष्टि के बिना वो फिलहाल काम चला सकते हैं. लेकिन कांग्रेस नहीं चला सकती. उसका नया राजनीतिक ऑफर क्या है? पता नहीं. क्या भारत का मौजूदा जनमत वही है जो मोदी सरकार बता रही है? और अगर दूसरी वैकल्पिक राय देश में है तो वो क्या है और कांग्रेस उसको कैसे देखती है, वो ये बताए.

निर्णय क्षमता- अखिलेश हारें या जीतें, उन्होंने भविष्य के खेल पर पकड़ बनाने के लिए बड़ा दांव खेला है. इसके लिए एक फैसला लेना पड़ता है. नोटबंदी रिस्की खेल था, लेकिन मोदी जी ने एक फैसला लिया. 2017 में ये सवाल कई तरह से उठेगा कि क्या राहुल गांधी फैसला ले सकते हैं और कांग्रेस की अंतर्मुखी खुदगर्जी वाली नेता टोली के झगड़ों से अपना पिंड छुड़ा सकते हैं और जॉर्ज बुश, नरेंद्र मोदी और अखिलेश की तरह स्टेट क्राफ्ट का नया खेल खेलने की कोशिश कर सकते हैं?

(क्‍व‍िंट हिंदी पर यह आलेख पहली बार 1 जनवरी, 2017 को प्रकाशित किया गया था.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

0
Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×