(इस आर्टिकल की पहली किस्त में आप पढ़ चुके हैं कि इस बार बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम जैसी कोई योजना ला सकते हैं. इसका मकसद होगा गरीबी दूर करना और लोगों का जीवन स्तर सुधारना. अब पढ़िए इस आलेख का दूसरा भाग...)
अगर मान भी लिया जाए कि सभी तरह की सब्सिडी को खत्म करके यूनिवर्सल बेसिक इनकम या यूबीआई लाई जा सकती है, लेकिन क्या गरीबी मिटाने के लिए ये कारगर होगी? दुनिया में और कहीं इस तरह का प्रयोग किया गया है? और क्या भारत इसके लिए तैयार है?
कैसे होगा अमल
सरकार की मंशा क्या है, ये जानने के लिए इकोनॉमिक सर्वे और बजट का इंतजार करना होगा. लेकिन दुनिया के कई डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट इस तरह की योजना के असरदार होने पर पूरी तरह एकमत नहीं है.
ब्लूमबर्ग क्विंट के एक लेख के मुताबिक, इकोनॉमिस्ट जी स्टैंडिंग का मानना है कि एकमुश्त रकम ट्रांसफर करना भारत के लिए अच्छा आइडिया है. लेकिन इसी लेख में दूसरे इकोनॉमिस्ट जीन ड्रेज के मुताबिक भारत अभी इसके लिए तैयार नहीं है. उनका कहना है कि भारत में सब्सिडी कैश के साथ साथ अनाज के तौर पर भी दी जाती है और दोनों की अलग अहमियत है. ऐसे में कितना कैश ट्रांसफर किया जाए और कितना अनाज ट्रांसफर ये संतुलन बरकरार करना बहुत मुश्किल होगा. पर अगर दोनों को मिलाया गया, तो दोनों के घालमेल से यूबीआई का पूरा आइडिया ही फेल होने का खतरा है.
इकोनॉमिस्ट जी स्टैंडिंग के मुताबिक, 2010 में एक गांव में यूबीआई स्कीम में एक पायलट प्रोजेक्ट के अच्छे नतीजे दिखे थे. ब्लूमबर्ग क्विंट को दिल्ली आईआईटी की ह्युमेनिटीज और सोशल साइंस डिविजन की रीतिका खेरा ने 2011 में कराए गए सर्वे का हवाला लिया. इस सर्वे में ज्यादातर लोगों ने सीधे रकम के बजाय सस्ता अनाज लेने को तरजीह दी थी और सीधे कैश लेने के लिए 20 पर्सेंट लोगों ने ही रजामंदी जताई थी.
केंद्र की स्कीम के अलावा गरीबों के लिए अलग राज्यों के हालात के मुताबिक अलग स्कीम काफी पॉपुलर होती हैं. जैसे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लड़कियों को साइकिल देने की स्कीम या फिर स्कूलों में मिडडे मील स्कीम काफी असर वाली रही हैं.
ब्राजील का प्रयोग
दुनिया में गरीबी दूर करने के सबसे कारगर तरीकों में ब्राजील का प्रयोग शुमार किया जाता है. ब्लूमबर्ग क्विंट के मुताबिक 2003 में उस वक्त के ब्राजीली राष्ट्रपति लुईज लूला ने बोल्सा फेमिलिया नाम के प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी.
इसमें लोगों को लोगों को कैश ट्रांसफर किया गया. बाद में इस प्रोजेक्ट को पूरे देश में लागू किया गया और कार्यक्रम इतना सफल रहा कि वर्ल्ड बैंक के मुताबिक 10 साल में ब्राजील में गरीबी 9.7 परसेंट से घटकर 4.3 परसेंट आ गई. साथ ही देश में आय की असमानता को कम करने में काफी मदद मिली. ब्राजील की यूबीआई स्कीम करीब 5 करोड़ लोगों पर लागू है जो देश की कुल आबादी का एक चौथाई है.
भारत के हालात ब्राजील से अलग
लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ब्राजील और भारत के हालात काफी अलग हैं. आईआईटी दिल्ली की रीतिका खेरा के मुताबिक साक्षरता, शहरीकरण और दूसरे पैमानों पर ब्राजील के सामने भारत कहीं नहीं ठहरता.
ब्राजील में गरीबी सिर्फ 10 परसेंट है, जबकि भारत में 30 परसेंट. वहां महिलाओं में शत-प्रतिशत साक्षरता है, जबकि भारत में सिर्फ 50 परसेंट के आसपास. वहां गरीबी आबादी शहरों में है जबकि भारत में गरीबों की बड़ी संख्या गांवों में रहती है, जहां बैंकिंग इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं के बराबर है.
सरकार के लिए अड़चनें
- FY18 में फिस्कल डेफिसिट जीडीपी के 3% तक लाना
- इंफ्रा जैसी स्कीमों पर भारी भरकम खर्च
दिग्गज अर्थशास्त्रियों के मुताबिक सरकार को यूबीआई स्कीम के लिए गैर जरूरी सब्सिडी खत्म करना चाहिए. जोकि जीडीपी का 5 परसेंट तक हो जाती हैं. लेकिन देश के हर इलाके और राज्यों के हालात अलग हैं और लोगों की जरूरतें भी एकदम जुदा हैं. ऐसे में कोई एक जैसी इनकम स्कीम बनाना सरकार के लिए काफी मुश्किल है. साथ ही बड़े पैमाने पर इस बात का सर्वे कराना होगा कि सरकार कौन कौन सी सब्सिडी खत्म करे जो गैर जरूरी हो या कैश में ट्रांसफर की जा सके.
बड़ा खर्च बड़ी मुसीबत
गरीबों के कल्याण के लिए एकमुश्त रकम हर महीने उनके खाते में ट्रांसफर करने का आइडिया तो अच्छा है पर उस पर अमल काफी मुश्किल हैं. दरअसल सरकार के पास इनकम के नए रिसोर्स बहुत ज्यादा नहीं है.
वित्तमंत्री अरुण जेटली को तो इकोनॉमिस्ट और रेटिंग एजेंसियों को भी संतुष्ट करना है, चुनाव जिताने के लिए जरूरी हथकंडे भी आजमाने हैं, लेकिन उन्हें ये भी सुनिश्चित करना है कि ग्रोथ की रफ्तार धीमी ना पड़े.
हाय-तौबा का खतरा
मोदी सरकार 3 लाख करोड़ या 4.5 लाख करोड़ की यूबीआई स्कीम लागू करती है तो उसे भारी आलोचना झेलनी पड़ सकती है. याद कीजिए करीब 4 साल पहले जब यूपीए सरकार ने फूड गारंटी स्कीम लागू की थी तो उसकी कितनी आलोचना हुई थी. जबकि फूड गारंटी का खर्च सालाना करीब 1.25 लाख करोड़ रुपए ही था.
रेटिंग एजेंसियों और कॉरपोरेट्स ने सरकार के संसाधनों पर भी सवाल उठाए थे कि इससे सरकार के पास दूसरे कामों पर खर्च करने के लिए संसाधन ही नहीं होंगे और फिस्कल डेफिसिट काबू के बाहर हो जाएगा.
वित्तमंत्री के हाथ बंधे
खर्च करने के मामले में अरुण जेटली के पास सीमित उपाय हैं. जीएसटी मुआवजे के लिए उन्हें करीब 75 हजार करोड़ अलग से रखने होंगे. इसके अलावा FY18 में उन्हें फिस्कल डेफिसिट जीडीपी के 3% के आसपास लाना है. नोटबंदी से सरकार को उम्मीद थी कि करीब 3 लाख करोड़ के पुराने नोट वापस नहीं आएंगे, लेकिन अनुमान लगाया जा रहा है कि अब ये रकम 75 हजार करोड़ से ज्यादा नहीं है.
हालांकि रिजर्व बैंक ने अभी इस बारे में कुछ नहीं कहा है. इसके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर और रेलवे के लिए भी वित्तमंत्रालय को खर्च जुटाना होगा, ऐसे में किसी भी तरह की वेलफेयर स्कीम में भारी भरकम खर्च इकोनॉमी और मार्केट का मूड बिगाड़ सकता है. आईएमएफ के ताजा अनुमान के मुताबिक नोटबंदी की वजह से 2016 में भारत सबसे तेजी से बढ़ रही इकोनॉमी का ताज चीन के हाथों गवां सकता है. ऐसे में वित्तमंत्री के पास विकल्प बहुत कम हैं.
(अरुण पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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