यूपी के चुनावी कैंपेन में राहुल, अखिलेश, प्रियंका, डिंपल की जोड़ी के उतरने के बाद अपने नोवेल्टी फैक्टर की वजह से यह राजनीतिक विमर्श का काफी बड़ा हिस्सा घेरने वाली है. अब तक के नीरस चुनावी प्रचार में अचानक गरमी आ गई है.
अखिलेश, राहुल, प्रियंका, डिंपल- इन चार युवाओं की जोड़ी वैसे तो चुनावी प्रचार के लिहाज से बीजेपी के हाई वोल्टेज कैंपेन को असली टक्कर दे सकती है, पर सवाल ये है कि कैंपेन में आई गर्मी वोटों की जमीन को भी सुलगाएगा?
पॉपुलर विमर्श कहता है कि कांग्रेस-सपा गठबंधन के बाद मुस्लिम समुदाय का झुकाव बीएसपी की तरफ नहीं होगा और यह बंधन आसानी से सत्ता तक पहुंच जाएगा. सपा का 30 प्रतिशत, कांग्रेस के 11 प्रतिशत के साथ मिल जाए, तो त्रिकोणीय मुकाबले वाले चुनाव में गठबंधन की जीत तय है.
यूपी में मायावती, मुलायम और कल्याण के ही वोट केवल ट्रांसफर होते हैं
तीन बार सांसद रहे बधेल समुदाय के एक बड़े बीजेपी नेता बताते हैं कि यूपी में केवल तीन ही नेता ऐसे हैं, जिनकी जातियों के वोट ट्रांसफर होते हैं. मायावती का दलित, मुलायम का यादव और कल्याण सिंह का लोध. यह तीनों अगर किसी से गठबंधन करें, तो इनके वोट आसानी से एक-दूसरे को ट्रांसफर हो जाते हैं. लेकिन बाकी जातियों में इतने बड़े नेता नहीं कि अपने वोट ट्रांसफर करा सकें.
उदाहरण के लिए 1996 का चुनाव लीजिए. मायावती ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, दोनों मिलकर 100 सीट ही जीत सके. कांग्रेस को फायदा हुआ, लेकिन बहनजी की पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ. कांग्रेस अपने वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं करा सकी. उसके बाद से मायावती ने मतदान पूर्व गठबंधन करना बंद कर दिया.
मायावती के एक करीबी नेता के मुताबिक, बहनजी ने 1996 के प्रयोग के बाद समझ लिया गठबंधन होने पर फायदा दूसरे का, पर नुकसान अपना है, इसलिए बहनजी की किताब में चुनावपूर्व गठबंधन छलावा है. इस चुनाव में भी कांग्रेस के लाख डोरे डालने के बाद भी मायावती टस से मस नहीं हुईं. तो कांग्रेस-सपा गठबंधन की सबसे बड़ी परेशानी जमीन पर वोटों का ट्रांसफर कराना है.
2014 के मोदी लहर में कांग्रेस 7.5 प्रतिशत वोट पाकर महज 2 लोकसभा की सीट जीत पाई थी, तो 2012 के विधानसभा में 11.5 प्रतिशत वोट पाकर 28 सीट. अगर 2012 के आंकड़े को आधार मान लें, तो कांग्रेस की चुनौती अपने 11 प्रतिशत वोट सपा को ट्रांसफर कराने की होगी.
कांग्रेस के लिए सपा के साथ गठबंधन दोनों हाथ में लड्डू होने जैसा है. राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि मजबूत होगी. चुनाव जीतने की स्थिति में राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी का यह लॉन्चपैड हो सकता है.
2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सपा के सहारे की उम्मीद कर सकती है. लेकिन असली सवाल यह है कि सपा को कांग्रेस से कितना फायदा होगा, अगर कांग्रेस के ब्राह्मण, क्षत्रिय, दलित सपा को नहीं मिलते?
सपा कांग्रेस गठबंधन की तुलना बिहार में लालू-नीतीश गठबंधन से करना बेमानी है
यूपी का सपा-कांग्रेस गठबंधन बिहार का लालू-नीतीश गठबंधन नहीं है, इसलिए वैसे नतीजे की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए. बिहार में नीतीश-लालू गठबंधन दो जातियों के बड़े नेताओं के दलों का मिलन था, जिनका समाजिक आधार परस्पर विरोधी होते हुए भी ट्रांसफर होने वाला था. सपा-कांग्रेस गठबंधन का संदेश मुस्लिम वोटों के धुव्रीकरण में प्रभावी हो सकता है, पर सामाजिक फुटप्रिंट बिहार जितना व्यापक नहीं है.
अगर सपा का गठबंधन बीएसपी से हो गया होता, तो उसकी तुलना बिहार के प्रयोग से की जा सकती थी. बीजेपी को रोकने के लिए किया गया सपा-बसपा का 1993 का गठबंधन बिहार मॉडल की बराबरी कर सकता है, जब बीजेपी की प्रचंड लहर के बाद भी सपा-बसपा के जातीय गठबंधन ने कमल को खिलने से रोक दिया था.
खेल अंकगणित से ज्यादा आपसी केमिस्ट्री का है
यूपी के त्रिकोणीय मुकाबले में किसी दल को सत्ता में आने के लिए 30 प्रतिशत वोट चाहिए. सपा का 30 प्रतिशत और कांग्रेस का 11 प्रतिशत आसानी से इस आंकड़े को हासिल कर सकता है, पर राजनीति में हमेशा दो और दो, चार नहीं होता है. 2014 में बीएसपी 20 प्रतिशत वोट पाकर भी एक भी सीट नहीं जीत सकी.
बिहार में बीजेपी को मांझी से गठबंधन का कोई राजनीतिक फायदा नहीं मिल पाया, क्योंकि मांझी अपने वोट बीजेपी को ट्रांसफर नहीं करा पाए. तो सबसे पहले गठबंधन के नेता अखिलेश यादव और कांग्रेस नेता राहुल गांधी की केमिस्ट्री जनता को दिखना चाहिए. किसी को कमतर जगह देने और बड़ी और छोटी पार्टी के अंतर दिखाने से कार्यकर्ताओं में भी केमिस्ट्री का अभाव दिखेगा, जिसका नुकसान मतदान के समय दोनों दलों को उठाना पड़ेगा.
नेताओं की केमिस्ट्री के साथ दलों की केमिस्ट्री भी उतनी ही जरूरी है. किसी पार्टी के मिलने वाले वोट में मतदान केन्द्रों पर तैनात बूथ मैनेजरों का बड़ा रोल होता है. सपा की तुलना में कांग्रेस का बूथ मैनेजमेंट काफी कमजोर है, जिसे इतने कम समय में पाटना काफी मुश्किल काम होगा. यहां भी सपा-कांग्रेस बूथ मैनेजमेंट का संयुक्त प्रयोग कर सकते हैं, बशर्ते इसके लिए दोनों दल तैयार हों.
अखिलेश मैनेजमेंट टीम के एक नेता कहते हैं, “सपा-कांग्रेस गठबंधन ने प्रचार अभियान में परसेप्शन की लड़ाई तो जीत ली है, अब सारी कहानी कांग्रेस-सपा के जमीनी बूथ मैनेजमेंट और कार्यकर्ताओं के को-ऑर्डिनेशन पर टिकी है.”
सपा-कांग्रेस गठबंधन की सफलता इस बात पर टिकी रहेगी कि राहुल और अखिलेश अपने अपने अहंकार छोड़ कितनी ज्यादा केमिस्ट्री संयुक्त प्रचार कैंपेन में दिखाते हैं और उनकी चुनावी मैनेजमेंट टीम उस कैंपेन की ऊर्जा को मतदान केन्द्रों तक पहुंचाने में कितनी मेहनत करती है.
(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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