चुनावी पंडित, ओपिनियन पोल और सट्टा बाजार, सभी ये कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मुकाबला तिकोना है, इसलिए शायद किसी को बहुमत न मिले. इन अनुमानों के मुताबिक, जीतने वाली पार्टी या गठबंधन को 160-170 सीटें, दूसरे नंबर वाले को 130 के आसपास और तीसरे नंबर पर आने वाली पार्टी को 80 के करीब सीटें मिल सकती हैं.
ये पुराने तर्कों के आधार पर है. बिहार में महागठबंधन और बीजेपी का सीधा मुकाबला था. यूपी में सपा-कांग्रेस का साथ आना महागठबंधन नहीं, बल्कि मिनीगठबंधन है. फिर बसपा भी मजबूत दावेदार है, इसलिए यूपी में तिकोना मुकाबला मतलब त्रिशंकु विधानसभा. एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि किसी के पक्ष में या विरोध में ऐसी कोई हवा नहीं है कि चुनाव एकतरफा हो जाए. शायद वोटर की चुप्पी हमें ऐसे निष्कर्षों की तरफ पहुंचाती है.
चूंकि ये सभी मानते हैं कि यूपी का चुनाव बेहद अहम है और संगीन है, तो फिर चीजों को जरा दूसरे नजरिए से भी देखना चाहिए. मोदी जी ने यूपी चुनाव के पहले नोटबंदी का एकदम नया हथियार एक नए किस्म के ध्रुवीकरण के लिए ही चलाया. धर्म और जाति के समीकरणों के आगे अमीर और गरीब का विभाजन. इस मुद्दे पर बीजेपी के साथ जनमत है और इसके बड़े-बड़े दावे हो रहे हैं. लेकिन चुनावी घोषणापत्र में फिर से राम मंदिर और ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दे को उठाने का मतलब समझ में नहीं आता है.
अखिलेश ने अपने खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी को खत्म करने के लिए पिता और चाचा से बगावत की और आज वो ‘टॉक ऑफ द टाउन’ बन गए हैं. लेकिन पापा मुलायम के कभी हां, कभी ना की गुगली से अपना विकेट कब तक बचाकर रख पाएंगे, पता नहीं.
परम्परागत राजनीति के मुताबिक सपा की असली चैलेंजर बसपा है, लेकिन ये धारणा बनी है कि मायावती का पुराना जादू कमजोर दिखता है. 'दिखता है', सच्चाई का पता तो 11 मार्च को चलेगा. बीजेपी शुरू से ही मुस्लिम वोटों से डरी रहती है. उसकी सारी कोशिश इस मुस्लिम वोट को तबीयत से बांटने की है. यानी मायावती के दलित के साथ और अखिलेश के यादव के साथ मुस्लिम वोट एकतरफा न चले जाएं.
कांग्रेस खुद में कितनी भी कमजोर क्यों न हो, अभी के संदर्भ में मुस्लिम वोट को सपा की तरफ करने में एक गारंटर के रूप में देखी जा रही है.
इसी ध्रुवीकरण की काट के तौर पर मोदी जी ने नोटबंदी का सेक्युलर कॉर्ड निकाला. बीजेपी को उम्मीद है कि अगर उनका एक ट्रेडिशनल दुकानदार वोट गया भी, तो पांच गरीब वोट आ जाएंगे. यानी मोदी जी की रणनीति चली, तो एक तरह का ध्रुवीकरण होगा और वोटर ने इसे मोदी जी का नहीं, राज्य के मुख्यमंत्री का चुनाव माना, तो दूसरे किस्म का ध्रुवीकरण होगा. ये काम वोटर करेगा और वो हमेशा कई फैक्टरों को नाप-तौलकर वोट करता है. हम उसे जाति, धर्म या वर्ग के सरल खानों में डालकर लेबल लगाना चाहते हैं, जो ठीक नहीं है.
असली महागठबंधन तो वोटरों के मन में है
कई बार ऐसा होता है कि पार्टियां गठजोड़ करने में फेल हो जाती हैं, लेकिन वोटर अपना गठजोड़ बना लेते हैं. यूपी चुनाव में शायद यही देखने को मिले.
नतीजा किसी के भी हक में आए, ये बात पक्की है कि इस चुनाव में ध्रुवीकरण पूरा है. यानी वोटर का दिमाग साफ है कि वो किसको जिताने और किसको हराने के लिए वोट डालेगा. उस मायने में यूपी में वोटर का महागठबंधन देखने को मिल सकता है.
अगर वोटर मोदी जी के काम से इतना खुश है कि यूपी में कौन मुख्यमंत्री बने, ये सवाल उसके लिए बेमानी है, तो मोदी जी के नाम पर ही ये चुनाव निकल जाएगा. अगर युवा वोटर और बाकी जातिगत आग्रह इस चुनाव को तय करेंगे, तो सपा-कांग्रेस गठजोड़ या बसपा में से एक को चुना जाएगा.
बिहार चुनाव के वक्त नीतीश कुमार ने मुझे इंटरव्यू में एक मार्के की बात कही थी कि हमारे देश में जो वोटर सरकार चुनता है, वही वोटर विपक्ष भी चुनता है. यूपी का वोटर भी इस तरह से सोचे, तो नतीजा अलग होगा.
इस चुनाव में बुनियादी फैक्टर इतने बदल गए हैं कि हमारे सारे तर्क गलत साबित हो सकते हैं, फिर भी हम पहले दौर का मतदान शुरू होने के पहले इतना कहने का जोखिम जरूर उठाना चाहेंगे कि यूपी की विधानसभा त्रिशंकु नहीं होगी और वोटर का महागठबंधन बनेगा. ऐसे में जीतने वाला 225 के पार जाएगा और तीसरे नंबर की पार्टी 75 सीटों तक सिमट जाएगी.
इन पार्टियों का नाम भी हम आपको चुनाव नतीजों के काफी पहले, जल्दी ही बताएंगे. क्विंट पढ़ते रहिए.
हां, एक बात का ध्यान रखना होगा कि बीजेपी का पुराने मुद्दों को उखाड़ना, यादव परिवार का अनवरत झगड़ा और बसपा का ब्रांड डायल्यूशन वाला काम (अंसारी बंधु को शामिल करना उसी की कड़ी है)- इन वजहों से अलग काफी कनफ्यूजन फैल गया, तो वोटरों का महागठबंधन हिल सकता है.
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