"कब्रिस्तान" और "गधे" के बाद अब "कसाब" आ गया है. इशारा साफ है. यूपी के चुनावों में असली मुद्दों की जगह नकली मुद्दों को सामने लाकर "अस्मिताओं" या फिर सामाजिक "पहचान" के नाम पर वोटों की फसल काटने की तैयारी की जा रही है. जो एक तरफ ये दर्शाता है कि राजनीतिक पार्टियां असली मुद्दे - रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा के मसले पर चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पा रही हैं. या फिर यूपी की जनता अभी भी इतनी परिपक्व नहीं हुयी है कि वो जाति-धर्म से ऊपर उठ कर वोट दे.
यूपी के बारे में ये मशहूर है कि यहां ब्राह्मण, ठाकुर, अगड़े, पिछड़े, दलित, हिंदू, मुसलमान के नाम पर ही उम्मीदवारों को वोट पड़ते हैं. जातीय और धार्मिक संतुलन ही ये तय करता है कि किस पार्टी की सरकार बनेगी. जो पार्टी सही संतुलन बनाने में कामयाब होती है वो विजयी होता है.
अस्मिता की राजनीति में जकड़ा यूपी
यूपी अपनी सामंती पृष्ठभूमि, अधपके शहरीकरण, अनुपस्थित औद्योगिकीकरण की वजह से आज भी देश के सबसे पिछड़े प्रदेशों में गिना जाता है. ये यूपी ही है जहां से बीजेपी, आरएसएस का राममंदिर आंदोलन परवान चढ़ा और बीजेपी को केंद्रीय सत्ता के करीब पंहुचाने में मदद मिली. ये यूपी ही है जहां मंडल के बाद की "पिछड़ा" राजनीति का सफल प्रयोग मुलायम सिंह यादव ने किया. ये यूपी ही है जहां कांशीराम के "दलितवाद" ने दलित राजनीति में बाबा साहेब आंबेडकर के बाद का सबसे कारगर "एक्सपेरिमेंट" किया. दलित पिछड़ा और हिंदुवाद की राजनीति "अस्मिताओं" पर आधारित राजनीति है, अंग्रेजी में जिसे "पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी" कहते हैं .
इन तीन अस्मिताओं के इर्द-गिर्द ही यूपी की राजनीति पिछले पच्चीस साल घूमी. कभी मुलायम मुख्यमंत्री बने तो कभी मायावती और कल्याण सिंह. मुलायम पिछड़ों के नेता थे तो मायावती दलितों की और कल्याण सिंह हिंदुओं के. पर अब सवाल ये है कि क्या 2017 में भी अस्मिताओं का खेल चलेगा?
बदलने को तैयार है उत्तर प्रदेश
मेरा मानना है कि यूपी की राजनीति में बुनियादी बदलावों की शुरुआत हो गयी है. प्रदेश अस्मिताओं के चंगुल से बाहर निकलने की फिराक में है या यों कहें कि अस्मिताओं की राजनीति को अपनी सीमाओं का अहसास होने लगा है. इसकी पहली पदचाप साल 2012 के चुनाव के समय सुनी गयी थी. 2012 में मुलायम को कायदे से मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करनी चाहिये जिनकी पिछड़े नेता की छवि रही और जिन्होंने उस छवि को खूब भुनाया भी और 1997 में प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये, लेकिन उन्होंने आगे कर दिया बेटे अखिलेश को जो यादव होने के बाद भी यादव नेता की छवि अभी तक बना नहीं पाये थे.
मुलायम की पिछड़ी राजनीति में गुंडागर्दी का तत्व पूरी तरह से शामिल था पर चुनाव के ठीक पहले जब अखिलेश मे माफिया डॉन डीपी यादव को पार्टी से निकाल बाहर किया तो वो अचानक अस्मिता के बंधन से निकल "अस्मितायेत्तर" राजनीति का बिगुल बजा बैठे. यानी जो डीपी यादव पहले पिछड़ी राजनीति में फिट बैठते थे वो अचानक एक लायबिलिटी बन गये और पार्टी को उनसे निजात पानी पड़ी. इससे अखिलेश की छवि बेहतर हुयी, उन्हें अपने पिता से अलग पहचान मिली और और 37 साल की उम्र में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.
अखिलेश की खुद को जातिवादी राजनीति से अलग करने की कोशिश
साल 2017 में भी चुनाव की पूर्व संध्या पर जब पिता और चाचा से अखिलेश की भिड़ंत हुयी तो किसी ने सोचा भी नहीं था कि पिछड़ों के सबसे बड़े नेता को उन्हीं का बेटा पटखनी दे देगा और मुलायम अचानक पैदल हो जायेंगे. ये यूपी की और देश की राजनीति में बहुत बड़ी घटना है. पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद भी अखिलेश की पहचान कभी भी खांटी यादव या पिछड़ों के नेता की नहीं रही. उन्हें माना गया कि वो पढ़े लिखे "आधुनिक" मुख्यमंत्री हैं, जो प्रदेश के लिये कुछ करना चाहते हैं. लेकिन मुलायम का पिछड़ावाद उन्हें करने नहीं देना चाहता.
यूपी में नौकरशाही में बड़े पदों पर, थानों में पिछड़ों (यादव) की नियुक्ति का काम तो चलता रहा, लेकिन लखनऊ में मेट्रो और आगरा से लखनऊ के बीच सुपर हाईवे भी बना जो मुलायम की राजनीति से मेल नहीं खाता. कानून और व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिये पुलिस विभाग को आधुनिक करने के प्रयास भी हुये. और जब बाप बेटे का झगड़ा बढ़ा तो पूरी पार्टी अपने सबसे बड़े नेता का साथ छोड़ बेटे के साथ खड़ी हो गयी ऐसा तभी संभव है जब मुलायम के पिछड़ावाद में पार्टी को जिताने की ताकत खत्म हो गयी हो.
तमाम मार-पिटाई और लड़ाई के बावजूद आज यूपी के दंगल में अगर समाजवादी पार्टी- बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी के समक्ष मजबूती से खड़ी है तो इसका कारण यही है कि "एंटी इंकंबेंसी" के बावजूद अखिलेश का जाति से अलग आकर्षण बचा है. ऐसा क्यों है?
मध्यमवर्ग अब दिल से नहीं दिमाग से काम लेता है
दरअसल, देश के सामाजिक ताने बाने में साल 1991 के बाद की आर्थिक नीति की वजह से कुछ बुनियादी बदलाव आ रहे हैं. एक नया मध्यवर्ग बहुत तेजी से खड़ा हो रहा है. ये मध्यवर्ग बहुत तेजी से फैल भी रहा है और जो अपने निजी मामले में तो जाति और धर्म के आधार पर फैसले करता है पर सार्वजनिक जीवन में ये देखता है कि किस फैसले से उसकी जिंदगी बेहतर होगी. रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, सुरक्षा और रोजगार के पैमाने पर कौन नेता और पार्टी खरी उतर सकती है.
अर्थ नीति ने नई चेतना को जाग्रत करने का काम किया है. टेक्नोलॉजी के जबरदस्त विस्तार, सूचना क्रांति के विस्फोट और बहस मुबाहसे की नयी "खुली संस्कृति" ने भारतीय मानस में नया कोलाहल पैदा कर दिया है जो नये भारतीय मन का सृजन कर रहा है. ये वो मन है जो अपनी पहचान को अपनी आर्थिक औकात से मापता है. जिसे कुछ लोग "उपभोक्तावादी संस्कृति" भी कह सकते हैं. ये वो मन है जो पहले कि तुलना में दिल से ज्यादा दिमाग से फैसले करता है. यहां तक कि प्यार भी सोच समझ कर ही करता है. वो पहले की तरह आंख बंद कर नहीं कूद पड़ता.
जनता की दरकार- प्रोग्रेसिव सरकार
इस मन को जब साल 2004 में लगा कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का साइनिंग इंडिया का नारा एक धोखा है तो उसने बीजेपी के हिंदूवाद को किनारे रख दिया और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी. तब बीजेपी इतने विश्वास में थी कि वो हार गयी है वो ये कई साल तक मानने को तैयार नहीं थे.
जिन मनमोहन सिंह के बारे में कहा जाता था कि वो पार्टी के लिये एक वोट नहीं ला सकते, 2009 की जीत के लिये उन्हीं मनमोहन सिंह को जिम्मेदार माना गया. साल 2004 से लेकर 2009 तक अर्थ व्यवस्था 9% की गति से चली है, सिर्फ 2008 को छोड़कर. साल 2009 के चुनाव में खुद कांग्रेसी मान रहे थे कि 170 से ज्यादा सीटें नहीं आयेंगी पर आईं 205. ये नई उभरती चेतना का कमाल था, जिसके लक्षण राज्यों में पहले से दिख रहे थे.
दिल्ली में बिना किसी जनाधार के शीला दीक्षित का लगातार तीन चुनाव जीतना क्या बताता है? मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी लगातार पंद्रह साल सरकार चलायेगी. गुजरात में पचीस साल हो जायेंगे. उड़ीसा में नवीन पटनायक के बीस साल होने वाले हैं. असम में तरुण गोगोई ने पंद्रह साल शासन किया. बिहार में नीतीश कुमार तीन चुनाव जीत चुके हैं. महाराष्ट्र में भी कांग्रेस ने पंद्रह साल सरकार चलाई. आंध्र प्रदेश में भी वाईएसआर ने भारी बहुमत से दूसरी बार जीत हासिल की थी. जयललिता को तमिलनाडु में लगातार दूसरी बार मौका मिला था. वरना राज्यों में ये माना जाना था कि पांच साल सरकार चलने के बाद नयी सरकार आनी चाहिये.
अब काम करने वालों को ही चुनती है जनता
साल 1995 के बाद से सरकारों के एजेंडे मे बदलाव आया है. देश में समृद्धि आई है. जीवन स्तर में सुधार हुआ है. ये सुधार जितना होना चाहिये उतना हुआ या नहीं ये बहस का मुद्दा है. जिस स्तर का सर्वांगीण विकास और जीवन शैली में परिवर्तन होना चाहिये वो हुआ, इस पर चर्चा भी होनी चाहिये लेकिन इसमें संदेह नहीं है कि पहले की सरकारों की तुलना में अगर जरा सा भी सुधार हुआ दिखा तो लोगों ने सरकार रिपीट की.
बिहार का ही उदाहरण ले लें. पंद्रह साल लालू यादव का जंगलराज और भ्रष्टाचार, इस कदर लोगों के दिलों दिमाग पर छा गया कि नीतीश कुमार के कानून व्यवस्था, बच्चियों की शिक्षा और सड़क निर्माण के क्षेत्र में हुये काम को उसने हाथोंहाथ ले लिया. बिहार में पिछड़ा राजनीति की जड़ें बहुत गहरी है पर पिछड़ावाद के नाम पर राज्य अब लालू यादव के हाथ सत्ता सौंपने को राजी नहीं है. लालू को भी ये पता है तभी तो 2016 में नीतीश से अधिक सीट आने के बाद भी लालू को नीतीश को मुख्यमंत्री मानना पड़ा.
उड़ीसा में नवीन के पहले के कांग्रेस के शासन को आज कोई याद नहीं करना चाहता. महाराष्ट्र में कांग्रेस गठबंधन इसलिये कामयाब रहा कि शिवसेना और बीजेपी की सरकार ने 1993 से 1998 तक, पांच साल, सरकार चलाने के अलावा सारे काम किये. खुलेआम गुंडागर्दी, उगाही और सांप्रदायिकता को छूट मिली थी. लोगों की याददाश्त अच्छी है. वो भूले नहीं हैं. महाराष्ट्र के लोगों को कांग्रेस की लचर सरकार भी बीजेपी शिवसेना से बेहतर लगती रही.
दिल्ली मे पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदलना और प्याज जैसी चीजों के दाम पर लगाम न लगा पाने की निष्फलता बीजेपी को काफी मंहगी पड़ी है. वो उन्नीस साल से सत्ता से बेदखल है. असम में असम गण परिषद में जो गंध मचाई थी जनता ने उनको जमकर सबक सिखाया और दोबारा सत्ता में नहीं लायी और जब तरुण गोगोई दंगा रोकने में नाकाम रहे तो जनता ने उन्हें भी रिजेक्ट कर दिया.
विकास से भटकी बीजेपी ले रही है सांप्रदायिकता का सहारा
साल 2014 में केंद्र में लोगों ने बीजेपी को वोट दिया. तब वो कांग्रेस के भ्रष्टाचार से नफरत करने लगे थे. मोदी ने हिंदूवाद की जगह विकास का नकाब ओढ़ा, लोगों ने उन पर यकीन किया. भारी बहुमत से सरकार बनी. पिछले ढाई साल से मोदी जी की डिलीवरी ठन ठन गोपाल है. जिस विकास का वादा किया था वो जमीन पर दिख नहीं रहा है. ऊपर से नोटबंदी ने कमर तोड़ दी है. इस कारण से वो और उनकी पार्टी यूपी में विकास के एजेंडे को आगे नहीं कर रहे हैं. कभी कब्रिस्तान बनाम श्मशान होता है तो कभी होली, दीवाली, रमजान और ईद आ जाता है. और अब कसाब का जिक्र कर फिर पूरे विपक्ष को एक खास समुदाय से जोड़कर दिखाने की कोशिश हो रही है. यूपी के लोगों को उनकी पहचान, उनकी अस्मिता की याद दिलाई जा रही है. जाति-धर्म का डर दिखा कर जीत की रणनीति को अंजाम देने का कुचक्र चल रहा है. ये राजनीति ज्यादा कारगर होगी इसमें मुझे संदेह है.
जाति-धर्म पर नहीं विकास पर वोट देगी जनता
अखिलेश भी "गधे" की भाषा बोल रहे हैं. मायावती भी मुस्लिम तबके को लुभाने में लगी हैं. हर पार्टी अपने स्तर पर पुरानी राजनीति के मुहावरे को खोजने की जुगत में हैं. जो ज्यादा हताश दिख रहा है वो ज्यादा जाति-धर्म को जगाने में लगा है. लेकिन यूपी का समाज अब आगे निकल रहा है. वो जाति-धर्म और अस्मिताओं के जंगल से बाहर निकल कर आर्थिक विकास के हाईवे पर चलना चाहता है. ऐसे में वो चुनेगा उसे जो ये यकीन दिलाने में कामयाब होगा कि वो नयी राजनीति करेगा या करता दिखेगा. यूपी 2012 से आगे जायेगा, पीछे नहीं.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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