यह बात सच है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को मिली बड़ी जीत जातियों और समुदायों से हटकर बने एक नए समीकरण का परिणाम है. एक तरफ ऐसा माना जा रहा है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने जातिगत समीकरणों को ध्वस्त कर दिया. दूसरी तरफ उन्होंने अलग-अलग समूहों के एक नए वोटबैंक के समीकरण को बनाया है, जिसे तोड़ना आसान नहीं है.
उन्होंने गैर-यादव ओबीसी मतदाताओं को अपने पक्ष में कर लिया था. इनसे न तो सपा ठीक से जुड़ पाई थी और न ही बीएसपी इनको अपने पक्ष में करने में कामयाब हो पाई थी.
दलितों का 60 फीसदी वोट खिसका
यूपी चुनाव परिणाम और मोदी के जादू का विश्लेषण करने पर एक नई सच्चाई सामने आती है, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है. उत्तर प्रदेश में कुल दलितों का तकरीबन 60 फीसदी तबका जाटव है, जो हाशिए पर पड़ा है. क्या मायावती इस तबके को अपने साथ रख पाईं? दरअसल इन लोगों ने 2017 के चुनाव में बड़े पैमाने पर उन्हें वोट दिया है. जाटवों के इस बड़े पैमाने पर समर्थन की वजह से मायावती की पार्टी को 22 फीसदी वोट मिल सके.
इस चुनाव में नॉन-जाटव दलित मसलन, वाल्मीकि, खटिक और पासी वोटरों का बड़ा हिस्सा बीजेपी को मिला. लेकिन बीआर अंबेडकर और उनकी विचारधारा में विश्वास करने वाले जाटवों ने वोट नहीं दिया. बीजेपी ने डिजिटल पेमेंट प्लेटफॉर्म को भीम नाम देकर और अंबेडकर के गुण गाकर उन्हें लुभाने का प्रयास किया, लेकिन जाटव उनसे दूर ही रहे. इन लोगों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया.
नेतृत्व की कमी
यहां दो समस्या हैं:
जाटवों ने बीजेपी के हिंदू तौर-तरीकों को मानने और वंदे मातरम् का जाप करने का जोरदार विरोध किया है. आरएसएस की घर वापसी जैसी मुहिम ने भी इन्हें परेशान किया है.
यहां सबसे बड़ी समस्या यह है कि बीजेपी यूपी में जाटव वोट पाने की ख्वाहिश तो रखती है, लेकिन उन्हें कोई प्रतिनिधित्व नहीं दे पाई.
आपको बता दें कि बीजेपी ने महाराष्ट्र में डॉ. नरेंद्र जाधव और राजस्थान में निहालचंद को प्रतिनिधित्व दिया है, लेकिन यूपी में एक भी व्यक्ति को यह मौका नहीं दिया गया. अगर सावित्री बाई को बीजेपी की तरफ से लोकसभा में प्रतिनिधित्व मिला भी है, तो वो इसलिए क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने टिकट नहीं दिया था. बीजेपी को यह अंदाजा था कि वह चुनाव जीत जाएंगी, इसलिए टिकट दिया गया था.
शायद बीजेपी की जो वोटरों को लुभाने की स्कीम है, उसमें जाटव सबसे निचले पायदान पर हैं, क्योंकि इनका ब्राह्मणवादी भगवा संगठन के साथ सीधा संघर्ष है. आजादी के बाद से इस तबके के बारे में बहुत बातें हुई, लेकिन आज भी इन्हें उचित अवसर नहीं मिल पाया है.
दलित लंबे समय तक कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं. इंदिरा गांधी ने इनकी आकांक्षाओं को समझा था और इन्हें पेट्रोल पम्प की डीलरशीप दी थी. लेकिन समय अब बदल चुका है. कांग्रेस अगर अभी भी सोचती है कि इन लोगों को बस अपना पेट भरने तक से सरोकार है, जबकि हकीकत यह है कि नए दौर में अब इन्हें इज्जत और खुद को आर्थिक रूप से मजबूत करने के अवसरों की तलाश है.
पंजाब में सिख दलित आज भी राजनीतिक सशक्तिकरण की तलाश में हैं. उन्होंने इस चुनाव में पूरी तरह कांग्रेस के अमरिंदर सिंह का सपोर्ट किया. महाराष्ट्र और राजस्थान में भी यही हाल है. महाराष्ट्र में दलित आंदोलन के मजबूत इतिहास के बावजूद ये एक पार्टी से दूसरे पार्टी का रुख करते रहते हैं.
बिखरे विपक्ष के पास एक मौका
यूपी के चुनाव परिणाम के बाद इस तबके के सामने कठिन समय है. ये लोग नेतृत्वविहीन हो सकते हैं. मायावती के खराब प्रदर्शन की वजह से दूसरे दलों के पास मौका है कि वे दलितों को अपने पक्ष में कर लें.
हालांकि मोदी हमेशा मौके की तलाश में रहते हैं. वह एक चुनाव के खत्म होते ही दूसरे चुनाव की तैयारी में लग जाते हैं. यह एक जीवंत लोकतंत्र की निशानी है कि इस तरह के अवसरों को कोई भी भुना सकता है.
कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति ठीक नहीं है. उसके पास वापसी करने का यह एक बेहतरीन मौका है. लेकिन क्या वह इस अवसर का फायदा उठा पाएगी?
बेशक कांग्रेस को शर्मनाक हार मिली हो, लेकिन अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस ने वोटों में 51 प्रतिशत बढ़त हासिल की. कांग्रेस ने 18 विधानसभा क्षेत्रों में राहुल गांधी के दलित नेतृत्व मिशन के तहत प्रत्याशियों को चुना था. क्या कांग्रेस भविष्य में इस बढ़त को बरकरार रख पाएगी?
चुनाव जीतना एक अलग चीज है और मौका का फायदा उठाना दूसरी चीज है. सबसे जरूरी बात जो मैं कहने की कोशिश कर रहा हूं, वो ये है कि समाज में बराबरी का सपना तब तक पूरा नहीं हो सकता है, जब तक हाशिए पर खड़े तबके की सही देखभाल न हो. मैं यहां 15 करोड़ भारतीयों की बात कर रहा हूं. वे आज चौराहे पर खड़े हैं. विपक्ष के पास यहां एक मौका हो सकता है.
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