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ये मत खाओ, वो मत बोलो- लिबरल कट्टरपंथियों की ऐसी हालत क्यों हो गई?

‘ट्रिपल तलाक’ को BJP ने अपना मुद्दा बना लिया है और लिबरल्स मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं.

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2014 में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में सांप्रदायि‍क दंगों के कुछ ही दिन बाद मैं वहां गया था. माहौल थोड़ा शांत हो गया था, लेकिन रात का कर्फ्यू जारी था. बहुत सारे लोगों की बात सुनने के बाद मेरे मन में इच्छा जगी कि मुस्लिम का पक्ष भी तो सुना जाए.

वहां के व्यापार संघ के एक पदाधिकारी ने शहर के नायब इमाम से फोन पर बात करने की सलाह दी. वहां खड़े लोगों ने चेतावनी दी कि जहां इमाम रहते हैं, उस इलाके में इस समय जाना खतरे से खाली नहीं होगा. नायब इमाम से फोन पर बात हुई और दोपहर में उनके आवास पर मिलना तय हुआ.

डरा-सहमा, पूरी तरह से घबराया हुआ मैंने उस इलाके में जाने की हिम्मत की. जिन गलियों से गुजरते हुए मैं वहां जा रहा है, उनमें सन्नाटा था. मेरे अंदर के डर को छोड़कर कुछ भी अजूबा नहीं दिखा.

तंग गलियां, गंदगी, अजीबोगरीब ट्रैफिक सेंस, बीच-बीच में लोगों के समूहों में कानाफूसी और सड़क पर खेलते बच्चे- सबकुछ शुद्ध देसी. इमाम से मेरी फोन पर हुई थी, लेकिन उनसे मिलने से पहले अजीब-सा डर. थोड़े इंतजार के बाद मुलाकात हुई और लंबी बातचीत. और इतनी अच्छी बातचीत, जिसे मैं जिंदगी में कभी नहीं भूल सकता हूं.

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गीता के श्लोकों का जितनी गहराई से उन्होंने मतलब समझाया, वो विरला ही था. वो मुझसे ज्यादा संस्कृत जानते थे. अंग्रेजी में उनकी पकड़ मुझसे तो अच्छी ही थी. और जिस वैचारिक दकियानूसी को मैं माइक्रोस्कोप से खोजने निकला था, वो मुझे कहीं नहीं दिखी.

लंबी बातचीत के बाद मेरे मन में एक ही सवाल आया. इतने खुले दिलवाले से मिलने से पहले मेरे मन में किस बात का डर था. क्यों यह कहा जा रहा था कि जिस इलाके में वो रहते हैं, वहां जाना खतरे से खाली नहीं है. स्टैंडर्ड जवाब होगा कि धार्मिक कट्टरपंथियों ने ऐसा माहौल बना दिया है, जिससे दिलों की दूरियां बढ़ गई हैं. हो सकता है कि इस बात में सच्चाई हो. दिलों की दूरियां बढ़ी हैं और संवादहीनता की वजह से दूसरा पक्ष हमेशा भयावह ही दिखता है.

लेकिन मेरा सवाल है कि दिलों को जोड़ने के लिए लिबरल्स ने क्या-क्या किया. सुनने में अच्छा नहीं लगता है, लेकिन सच्चाई यह है कि अपनी हरकतों से लिबरल्स ने अपने आपको भी कट्टरपंथी बना लिया.

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‘ट्रिपल तलाक’ को BJP ने अपना मुद्दा बना लिया है और लिबरल्स मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं.
(सांकेतिक फोटो: द क्विंट)

लिबरल वो, जो सारी विचारधाराओं का सम्मान करे. जो किसी भी विचारधारा को तुच्छ न करार दे और अपनी सोच को सर्वश्रेष्ठ न समझे. जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करे और कभी किसी को पहले से बने सांचे में न डाल ले. इस कसौटी पर लिबरल्स खरे उतरे हैं क्या?

कुछ उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं. जब मुस्लिम समाज में ‘ट्रिपल तलाक’ जैसी कुरीति को खत्म करने की बात हुई, तो लिबरल्स ने धार्मिक कट्टरपंथियों का साथ देने को धर्मनिरपेक्षता क्यों करार दे दिया.

पाकिस्तान में ट्रिपल तलाक की प्रथा को 60 के दशक में खत्म कर दिया गया था. अनेक मुस्लिम बहुल देशों में ट्रिपल तलाक का वजूद नहीं है. लेकिन अपने देश में इसको खत्म करने के लिए लिबरल्स ने पहले से आंदोलन क्यों नहीं चलाया. क्या यह महिलाओं के अधिकार का मसला नहीं है, जिस पर लिबरल्स को जोर-शोर से बोलने की जरूरत थी? अब हालत ऐसी हो गई है कि बीजेपी ने इसे अपने हिस्से का मुद्दा बना लिया है और लिबरल्स मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं.

ऐसा ही एक मसला खाप पंचायतों का है. पिछले कई सालों से खाप पंचायतों के अजीबोगरीब फैसले आते रहे हैं. लेकिन लिबरल विचारधारा से संचालित होने का दावा करने वाली पार्टियों ने खाप पंचायतों के तुगलकी फरमानों का कभी भी जमकर विरोध नहीं किया. डर था कि इससे कहीं उनके वोट बैंक पर असर न हो जाए.

यह कौन-सा लिबरलिज्म था, जिसे वोट की राजनीति के अलावा कुछ दिखता ही नहीं था. और लिबरल चिंतक- उनका तो एक ही कमेंट होता था कि ये खाप पंचायत वाले छोटी सोच के हैं, जो आधुनिकता की बयार के साथ अपने आप बह जाएंगे. वाह रे लिबरल्स और इस विचारधारा से चलने वाली पार्टियां!
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लिबरल्स ने अपनी इतनी मिट्टी पलीद की है कि अब उन पर चौतरफा पहरा है. उनसे बोलने की आजादी छीन ली गई है. ताजा उदाहरण है दिल्ली विश्वविद्यालय के राजमस कॉलेज में चार नाटक के मंचन पर रोक. उनके खाने की आदतों पर भी कड़ा पहरा है. उदाहरण है देश को गैरकानूनी स्लाउटर हाउस को बंद करने के नाम पर शाकाहारी भोजन की तरफ धकेलने की कोशिश. इसके अलावा एंटी रोमियो का मकसद तो इनके दिलों को भी कंट्रोल करना है.

ये सारे मसले ऐसे हैं, जिन पर लिबरल्स को मुखर होने की जरूरत थी. लेकिन इन्होंने अपनी हालत ऐसी बना ली है कि इनकी कोई सुनता ही नहीं.

लिबरल्स जगो और अपनी आवाज तलाशो. इसके लिए अपनी विचारधारा से कट्टरपंथ को निकालने की जरूरत है. तभी तो इनकी बात सुनी जाएगी.

इस लेख को लिखते वक्त मुझे एक डर बार-बार सता रहा है- कहीं मुझे भी भक्त या कोई और तमगा न दे दिया जाए.

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