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भारत टीवी की दुनिया से बाहर आए, चीन से संबंध सुधारने का मौका तलाशे

आज फिर दलाई लामा को लेकर दोनों देशों में तनाव की स्थिति पैदा हो गई है.

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भारत में आजकल की दुनिया टीवी से चलती है. खास तौर पर न्यूज चैनेलों को ये इल्हाम हो गया है कि वो ही भारत को चला रहे हैं. टीवी देख कर हिंसा की मामूली घटना भी तीसरा विश्व युद्ध ही लगती है. ये टीवी जिस तरह के बिंब उभारते हैं, वो सच्चाई का नया आयाम लगता है. एक झूठ का एहसास दर्शकों को लगातार शक्ति का एहसास कराता रहता है.

कुछ इसी तरह चीन की भी तस्वीर भारत के सामने पेश की जाती है. राष्ट्रवाद के वितंडावाद में चीन की एक ही पहचान रह गई है कि वो एक खतरनाक ड्रैगन है, जो हिंदुस्तान को मिटाने में जुटा है. चीन कोई शैतान है, जो लगातार भारत को डराने की कोशिश करता है. बीच-बीच में जब भी भारत और चीन का सीमा विवाद सामने आता है तो टीवी पर बड़े ही खूंखार अंदाज में ऐसे पेश किया जाता है, जैसे जंग कल ही होने वाली है और अगर जंग हुई तो भारत इस बार 1962 की हार का बदला लेकर ही मानेगा.

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पर टीवी युग से अलग एक सच्चाई और भी है. चीन न तो कोई शैतान है और न ही चीन से हमारी दुश्मनी उस तरह की है, जैसी पाकिस्तान के साथ है. एक हैरान करने वाला सच ये है कि हज़ारों साल के पड़ोसी होने के बाद भी भारत और चीन के बीच बकौल माओ जे दांग सिर्फ ढाई युद्ध ही हुए हैं.

चीन के साम्यवादी नेता माओ ने 1962 के युद्ध के समय अपने कमांडरों से कहा था कि भारत और चीन शाश्वत युद्ध के लिये नहीं बने हैं और न ही लंबे समय तक एक दूसरे के शत्रु हो सकते हैं.

1962 की लड़ाई में भारत की बुरी हार हुई थी. तब माओ ने संकेत दिया था कि भारत और चीन लंबे समय तक शांति से रह सकते हैं और भारत को बातचीत की मेज तक लाने के लिए सैनिक शक्ति का इस्तेमाल जरूरी था.



आज फिर दलाई लामा को लेकर दोनों देशों में तनाव की स्थिति पैदा हो गई है.
माओ (फोटो: AP)
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ये वो समय था जब "भारत चीन भाई-भाई" के नारे लगते थे. नेहरू और माओ के बीच अच्छी दोस्ती थी पर तिब्बत के धार्मिक गुरु दलाई लामा को भारत में पनाह देने के भारत के ‘’दुस्साहस’’ को चीन बर्दाश्त नहीं कर पाया और भारत पर हमला कर दिया.

कई राजनयिकों का कहना है कि चीन का मकसद भारत को जीतना नहीं था, वो सिर्फ एक संदेश देना चाहता था कि अगर हमें अच्छे पड़ोसी की तरह रहना है, तो हमें एक दूसरे की संवेदनाओं का ख्याल रखना होगा. क्योंकि जैसा लोग कहते हैं अगर चीन चाहता तो वो भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर स्थाई रूप से कब्जा कर सकता था.

आज फिर दलाई लामा को लेकर दोनों देशों में तनाव की स्थिति पैदा हो गई है. चीन ने शायद बरसों बाद सैनिक समाधान की धमकी दी है. चीन के अखबारों में भारत को लेकर काफी जहर उगला जा रहा है. स्थिति विस्फोटक हो सकती है.

क्या भारत इसके लिये तैयार है? क्या हम वाकई में जंग बर्दाश्त कर सकते हैं?

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आज फिर दलाई लामा को लेकर दोनों देशों में तनाव की स्थिति पैदा हो गई है.
(फोटो: द क्विंट)

चीन से डील करते समय हमें दो चीजों का ख्याल रखना चाहिए. एक, चीन पाकिस्तान नहीं है. वो आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी ताकत है. चीन की आर्थिक विकास गति भले ही धीमी पड़ी है फिर भी भारत और चीन की सैन्य और आर्थिक क्षमता का कोई मुकाबला नहीं है.

हमें ये भ्रम भी नहीं होना चाहिये कि चीन की अर्थव्यवस्था में आई कमी उसकी कमजोरी का सूचक है. मेरा मानना है कि 1978 के बाद से चीन की अर्थव्यवस्था ने जो सरपट रफ्तार पकड़ी थी उसे रोक कर अब "कंसॉलिडेट" करने का वक्त आ गया है. शी जीन पिंग की पूरी ताकत चीन की मौजूदा व्यवस्था में उत्पन्न हुए विकारों का हल खोजते हुये उसे महाशक्ति के तौर पर आगे बनाये रखने और उसकी आर्थिक प्रगति को दीर्घायु बनाने में लग रही है. जो ये कहते है कि चीन मे लोकतांत्रिक परंपरा नहीं है और लोकतंत्र की तलाश अंत में, चीन मे अव्यवस्था ला देगी वो शायद चीन के इतिहास से परिचित नहीं है.

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चीन की ऐतिहासिक परंपरा है. पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के पहले तक चीन एक बहुत समृद्ध देश था. नदी नालों के जाल की वजह से चीन पश्चिमी देशों से कई गुना आगे था. 1820 में चीन की आर्थिक विकास दर विश्व के आर्थिक विकास दर के 30 फीसदी थी. यानी पूरे यूरोप और अमेरिका की सम्मिलित समृद्धि से भी अधिक. चीन अपने को हमेशा से ही पूरे ब्रह्मांड का केंद्र बिंदु मानता रहा है. खुद को "मिडिल किंगडम" कहता है. ये "इतिहास बोध और सभ्यताजनित गौरवभाव" चीन को दूसरे देशों से अलग करता है.

माओ और देंग के बाद चीन की बागडोर संभालने वाले जियांग जेमिन ने “आर्थिक सभ्यता के विकास” के साथ साथ “आध्यात्मिक सभ्यता के विकास” की भी बात की. जेमिन वो शख्स हैं जिसने देंग की विरासत को आगे बढ़ाते हुये चीन को महाशक्ति बनाने का काम किया. जेमिन दरअसल आर्थिक प्रगति को चीन के पुराने मूल्यों से जोड़कर उसे अपने इतिहास की याद दिला रहे थे. अपनी पुरानी सभ्यता से चीन की मौजूदा आर्थिक प्रगति को जोड़ रहे थे.

ये भी याद रखने वाली बात है कि पिछले डेढ़ हजार साल में जब भारत एक के बाद एक हमले झेल रहा था और भौगोलिक सीमाएं बदल रही थीं, तब चीन में अद्भुत शांति थी. 1912 तक वहां सिर्फ दो ही वंशों का शासन रहा. 1912 के बाद 1949 तक चीन ने गृह युद्ध झेला. ऐसे में चीन का इतिहास राजनीतिक अस्थिरता का इतिहास नहीं है. माओ के बाद जिस शांति से चीन ने देंग झियाओ पेंग को स्वीकार किया और चीन रातोंरात साम्यवाद को छोड़ कर पूंजीवाद के रास्ते पर चला और महज तीस साल में एक बदहाल देश से महाशक्ति बना, उसकी मिसाल विश्व के इतिहास में नहीं है. इसलिये भारत "राष्ट्रवाद और टीवीवाद" के दौर में चीन को हल्के में लेने की गलती न करे तो बेहतर होगा.

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दो, आज का दौर शीतयुद्ध का दौर नहीं है. तब दुनिया दो भागों में बंटी थी. पूंजीवाद और साम्यवाद. दोनों की अपनी अपनी सैनिक संधियां थीं. भारत और सोवियत संघ मे समझौता था कि हम एक दूसरे की मदद करेंगे.

आज सोवियत संघ खत्म हो चुका है. रूस सामने है. साम्यवाद की जगह अधकचरा पूंजीवाद है. और व्लादिमीर पुतिन की अर्ध तानाशाही चल रही है. भारत और रूस बस दो देश हैं. हम अगर ये सोचें कि चीन से जंग में वो हमारी मदद करेगा तो ये हमारी सबसे बड़ी भूल होगी. अमेरिका से भारत के रिश्ते पहले से बेहतर हुए हैं, पर वो व्यापार आधारित है. वहां नफा-नुकसान का हिसाब ज्यादा है. फिर आज भारत आतंकवाद को झेल रहा है. कश्मीर जल रहा है. पाकिस्तान भारत को घायल करने का कोई मौका चूकना नहीं चाहता. चीन और पाकिस्तान के बीच अच्छी खासी-दोस्ती है, और दो पड़ोसी मुल्कों से एक साथ शत्रुता ठीक नहीं है.

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ऐसे में हमें ये सोचना चाहिये कि हमें चीन के साथ रिश्तों में खटास कितना और किस हद तक चाहिए.

भारत ने 1991 के बाद निश्चित तौर पर काफी प्रगति की है. पर हकीकत में 2011 के बाद से हमारी अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है. विश्व की सबसे तेज अर्थव्यवस्था के बावजूद, कहने को तो विकास दर 7% बताई जा रही है पर वास्तव मे इस पर गहरे सवाल हैं. नोटबंदी के बाद के आंकड़े अच्छी कहानी बयां नहीं करते. एक सर्वेक्षण के मुताबिक जनवरी 2015 से जनवरी 2017 के बीच इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन इंडेक्स में ग्रोथ सिर्फ 1.1% है. आठ बुनियादी सेक्टर्स में कुल नौकरियां 2 करोड़ है पर अप्रैल 2016 से सितंबर 2017 के बीच सिर्फ 1.1 लाख नई नौकरियां ही जुड़ी हैं. आयात और निर्यात मे कोई लाक्षणिक सुधार नहीं है.

ऐसे में चीन से नया तनाव आर्थिक विकास की दिशा को भटकाने का काम करेगा.



आज फिर दलाई लामा को लेकर दोनों देशों में तनाव की स्थिति पैदा हो गई है.
पीएम मोदी और चीन के प्रधानमंत्री शी जीन पिंग. (फाइल फोटो: Reuters)

ये सच है कि मोदी के आने के बाद से राष्ट्रवाद पर काफी जोर दिया गया है. पर राष्ट्रवाद की असली परीक्षा जंग में हो, ये जरूरी नहीं है. राष्ट्रवाद देश को एक करने का काम तो करता है पर अगर ये जंग की दिशा में बढ़ने लगे तो इस पर लगाम लगाने की जरूरत है. दलाई लामा हमारे मेहमान हैं. आध्यात्मिक गुरु हैं. उनकी वजह से भारत एक युद्ध झेल चुका है और बेइज्जती भी दूसरे के लिये देश तैयार नहीं होगा. और न ही भारतीय मानस इसके लिए तैयार होना चाहिए.

चीन से रिश्ते सुधारने की दिशा में काम होना चाहिए. व्यापार बढ़ाने की दिशा में कदम उठने चाहिए. तनाव के बाद भी मेल-मिलाप होते रहना चाहिए. चीन और भारत अगर रिश्ते बेहतर कर लें तो नई शताब्दी में विश्व को नई दिशा दे सकते हैं. पश्चिम आज संकट के काल से गुजर रहा है. ये दोनों महान सभ्यताओं और गौरवशाली देशों के लिये सुनहरा मौका है. इसका लाभ उठाएं, न कि टीवी और वितंडावादी राष्ट्रवाद के जाल मे फंस कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारें.

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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