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संडे व्यू: गोरक्षकों पर लगाम जरूरी, कौन बनेगा प्रेसिडेंट?

जानें सोलर एनर्जी के स्याह पहलू, गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी करने वालों पर लगाम लगाना बेहद जरूरी है.

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गुंडों पर लगाम जरूरी

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने राजस्थान में गोरक्षकों की ओर से मुस्लिम किसान पहलू खां की हत्या का सवाल उठाया है. वह लिखते हैं- मैं यह मानने को तैयार नहीं है यूपी में बीजेपी ध्रुवीकरण की वजह से जीती. इसमें कोई शक नहीं है इसका रोल रहा लेकिन मेरा मानना है कि कई लोगों ने जाति और धर्म से ऊपर उठ कर आर्थिक विकास के नाम पर वोट दिया. ज्यादातर युवाओं के लिए मंदिर-मस्जिद मुद्दा नहीं है. उन्हें आर्थिक विकास और नौकरी चाहिए. देश में राजनीतिक विमर्श अचानक बेहद भयानक भयावह हो गया है. व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता पर सवाल उठाए जा रहे हैं.

यूपी में टीचरों के पहनावे पर फतवे जारी करने से लेकर रेस्तराओं में खाने की मात्रा पर लगाम लगाने के मंसूबे बांधे जा रहे हैं. गोरक्षा के नाम पर जो गुंडागर्दी चल रही है उससे पूरा देश और दुनिया हतप्रभ है. संस्कृति, परंपरा, जाति और धर्म के नाम पर लोगों को अलग-थलग करने और हिंसा का खेल उजागर करने वाले मीडिया के खिलाफ आक्रामक रवैया अख्तियार करना बेकार है.

मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार को खत्म करने का बड़ा कदम उठाया है और पिछली सरकार की सामाजिक सुरक्षा के दायरे को और मजबूत किया है. लेकिन सरकार के ये अच्छे काम बेकार हो जाएंगे अगर इसने उन मिलिशया और सेना पर लगाम नहीं लगाया जो हमें यह बता रहे हैं कि हम क्या खाएं, क्या पहने और क्या देखें.

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ये माफी नहीं मांगते

हिन्दुस्तान टाइम्स में करण थापर ने शिवसेना के सांसद की ओर से एयर इंडिया के स्टाफ की पिटाई और यूपी के ग्रेटर नोएडा में अफ्रीकी युवाओं की पिटाई के सवाल पर करारा वार किया. करण लिखते हैं- जो लोग गायकवाड़ प्रकरण में यह कह रहे हैं इंसान ही गलती करता है. गलतियों को माफ कर देना दैवीय गुण है . वे यह भूल जाते हैं कि वे माफी मांगने से सुविधाजनक तरीके से बचने की कोशिश कर रहे हैं. क्योंकि सॉरी कहना गलती स्वीकार करना है और कई बार यह आसान नहीं होता. ईमानदारी से देखा जाए तो संसद में गायकवाड़ का अफसोस जताना एक तरह का नाटक था ताकि उन से ट्रैवल बैन हट सके. यह बेहद शर्मनाक था. उन्होंने संसद में खेद जताने का नाटक कर न सिर्फ अपनी गलती स्वीकार करने से इनकार किया बल्कि माफी मांगने से भी इनकार किया. फिर भी माफ कर दिए गए.

यूपी में ग्रेटर नोएडा में अफ्रीकी छात्रोँ और युवाओं पर हमले के मामले में सरकार लगातार इस बात से इनकार करती रही कि ये हमले नस्लीय नहीं हैं. जाहिर है सरकार का यह रवैया अफ्रीकी राजदूत के लिए नागवार गुजरना था. अगर सरकार यह कहती कि हम मामले की जांच कर रहे हैं- जो हुआ उसके लिए माफी मांगते हैं. अफ्रीकी मेहमानों के साथ मेजबानों ने जो किया, उसके लिए शर्मसार हैं. तो मामला तुरंत सुलट जाता. मेरा निष्कर्ष थोड़ा सनक भरा लग सकता है लेकिन इससे इनकार करना मुश्किल है कि महत्वपूर्ण लोग और शक्तिशाली सरकारें इतनी बड़ी होती हैं कि माफी नहीं मांग सकती. वे गलती करती हैं और चाहती हैं कि उन्हें माफ कर दिया जाए. अक्सर मिल भी जाती है. माफी अक्सर छोटे लोग मांगते हैं- हम और आप जैसे.

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कश्मीर : वैकल्पिक उपाय आजमाने का वक्त

दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम लिखते हैं - जम्मू एवं कश्मीर की स्थिति पर मैंने कई बार लिखा है, खासकर कश्मीर घाटी की स्थिति के संदर्भ के साथ. अप्रैल से सितंबर 2016 के दरम्यान इस विषय पर छह स्तंभ लिखे. मेरा मुख्य तर्क यह था कि जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार और केंद्र सरकार ने जो नीतियां अख्तियार की हुई हैं उनके चलते हम कश्मीर को खो रहे हैं.

कश्मीर घाटी के बाहर, कुछ ही लोगों ने मेरी बात का समर्थन किया; बहुतों ने मेरी आलोचना की; और केंद्र सरकार के एक मंत्री तो मुझे करीब-करीब राष्ट्र-विरोधी कहने की हद तक चले गए! मैंने अपनी राय बदली नहीं है. बल्कि हाल की घटनाओं से वह और मजबूत हुई है, और मैं उसे जोरदार ढंग से कहना चाहूंगा. राष्ट्र-विरोधी कह दिए जाने का जोखिम उठा कर भी मैं कुछ कदम सुझाऊंगा जो उठाए जाने चाहिए.

पी चिदंबरम ने पांच उपाय सुझाते हुए कहा है कि अगर सख्त बयानों तथा और भी कड़ी कार्रवाई की मौजूदा दवा जम्मू-कश्मीर में काम नहीं कर पा रही है, तो क्या यह वक्त का तकाजा नहीं है कि एक वैकल्पिक उपचार को आजमाया जाए?

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पाबंदियों के दौर में

तवलीन सिंह हाल के दिनों में गोरक्षकों को उपद्रव और खाने-पीने पर पाबंदियों पर लेकर बिफरी हुई हैं. दैनिक जनसत्ता में वह लिखती हैं- कितना अजीब है कि यह सब हो रहा है एक ऐसे प्रधानमंत्री के कार्यकाल में, जिन्होंने बहुत बार कहा है कि पर्यटन एक ऐसा आर्थिक औजार है, जो भारत की गरीबी दूर कर सकता है.

मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने पर्यटन की शक्ति को पहचाना, लेकिन शायद उन्होंने अभी तक गौर नहीं किया है कि उनके अपने साथी ही सारा खेल खराब करने पर तुले हैं. एक तरफ हैं खाद्यमंत्री, जो तय करना चाहते हैं कि होटलों और रेस्तरां में किसको कितना भोजन परोसा जाना चाहिए. दाने-दाने पर नाम खुद लिखवाने की कोशिश कर रहे हैं. उधर उत्तर प्रदेश से नई हवा चल रही है लव जिहाद की और योगी आदित्यनाथ के एंटी-रोमियो दस्ते दिल्ली तक पहुंचने लगे हैं. यही काफी है विदेशी पर्यटकों को दूर भगाने के लिए, लेकिन ऊपर से आया है सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से शराबबंदी का फैसला. नीतियां बनाना न्यायाधीशों का काम नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री ने अभी तक उनको रोकने की कोई कोशिश नहीं की है.

पिछले हफ्ते अलवर के उस हादसे में पहलू खान और उनके बेटों के साथ अर्जुन नाम का एक हिंदू भी था, जिसको दो थप्पड़ मार कर छोड़ दिया गोरक्षकों ने. मारा सिर्फ मुसलमानों को. जब दिल्ली-जयपुर हाइवे पर ऐसी हिंसा होने लगती है तो स्पष्ट दिखने लगता है कि भारत की सोच आधुनिक के बजाय पुरानी और दकियानूसी हो गई है. उसका रुख भी बदल गया है.

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सोलर पावर का स्याह पहलू

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन अकंलसरैया ने अपने कॉलम स्वामीनोमिक्स में सोलर ऊर्जा के स्याह पक्ष के बारे में लिखा है. वह लिखते हैं कि हाल में सौर ऊर्जा ने सस्ती बिजली मुहैया कराने की संभावना दिखाई है.

सरकार ने भी सौर ऊर्जा उत्पादन का अपना लक्ष्य बढ़ाया है. इससे प्रदूषण फैलाने वाली कोयला आधारित बिजली की जगह नई रिन्यूबल बिजली की संभावना ज्यादा मजबूत होती दिखती है. लेकिन क्या वास्तव में सही है. बिल्कुल नहीं. दरअसल सौर ऊर्जा से पैदा बिजली में कई तरह की सब्सिडी छिपी है. और यह सच है कि कोयले से पैदा बिजली से इसकी लागत ज्यादा आती है. दरअसल नए थर्मल पावर प्लांट की योजनाओं और नए सोलर प्लांट की वजह से बिजली मांग से ज्यादा पैदा होगी. और प्लांट लोड फैक्टर गिरने से कई परियोनजाओं धराशायी हो सकती हैं.

यह स्थिति पहले से ही संकट में चल रहे बैंकों को और मुश्किल में डाल सकता है. इससे पूरी अर्थव्यवस्था पर चोट पड़ेगी. कुल मिलाकर सोलर पावर की बढ़ोतरी वरदान दिखता है लेकिन यह अभिशाप साबित हो सकता है. हमें इस दिशा में अपनी रफ्तार में हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए.

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कौन बनेगा राष्ट्रपति

इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई ने देश में नए राष्ट्रपति के चुनाव से जुड़े मुद्दे उठाए हैं. देश राष्ट्रपति के चुनाव के लिए ज्यादा जन भागीदारी की जरूरत पर जोर देते हैं. वह लिखते हैं आधिकारिक तौर पर भले ही संभव न हो सके. लेकिन मीडिया चाहे तो लोगों से राष्ट्रपति पद के लिए दस लोगों के नाम मांग सकता है.

सिंगल ट्रांसफरेबल वोट के जरिये लोगों को उनकी रैंकिंग करने के लिए कहा जा सकता है. दरअसल राष्ट्रपति के चुनाव में व्यक्ति के गुण की जगह इस बात पर जोर रहता है कि सत्ता में कौन सी पार्टी है. इसलिए राष्ट्रपति के चुनाव में अब आम लोगों को शामिल करने की जरूरत है.

संविधान इस मामले में स्पष्ट है. यह सेरेमोनियल पद है. लेकिन यह राष्ट्रीय संवाद और सुलह-समझौता का शानदार प्लेटफार्म साबित हो सकता है. कॉलेजियम को इसके इस महत्व को समझना होगा. तो जनता की भागीदारी की शुरुआत उप राष्ट्रपति पद के चुनाव से क्यों नहीं करनी चाहिए.

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बांग्लादेश को तवज्जो का सच

भले ही मीडिया में बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना को तवज्जो देती मोदी सरकार की खबरें खूब दिखी हैं. लेकिन सत्ता में बैठे मंत्रियों के लिए बांग्लादेश को कितनी अहमियत दी जा रही है. इस बात का खुलासा कूमी कपूर के फाइनेंशियल एक्सप्रेस में छपने वाले कॉलम में हुआ है.

कूमी बताती हैं कि हैदराबाद में मोदी और हसीना की बैठक में पांच मंत्रियों को शामिल होना था लेकिन सिर्फ बाबुल सुप्रियो के अलावा और कोई मंत्री वहां मौजूद नहीं था. यहां तक कि राजनाथ सिंह जैसे वरिष्ठ मंत्री ने भी हसीना के सम्मान में होने वाले कार्यक्रम में शामिल होने से असमर्थता जताई थी. उन्हें इंडिया फाउंडेशन में हसीना के सम्मान में होने वाले कार्यक्रम में हिस्सा लेना था. लेकिन वे किसी दूसरे कार्यक्रम में व्यस्त दिखे.

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