(केंद्र में मोदी सरकार 3 साल पूरे करने जा रही है. इस मौके पर क्विंट ये डिबेट शुरू कर रहा है कि क्या एनडीए सरकार वे वादे पूरे कर रही है, जो उसने 2014 में किए थे. इस आर्टिकल में केवल एक पक्ष पेश किया गया है. इसका दूसरा पक्ष आप BJP नेता विनय सहस्रबुद्धे के आर्टिकल में पढ़ सकते हैं.)
मोदी जी के तीन साल. तीन साल, माने आधे से ज्यादा कार्यकाल पूरा. नये चुनाव की तैयारी की ओर बढ़ते कदम. इन तीन साल को मापने का पैमाना क्या हो? अर्थव्यवस्था में सुधार, कानून-व्यवस्था बहाल, लोकतंत्र खुशहाल, संस्थाएं मालामाल या कुछ और?
क्या वे उम्मीदें पूरी हुईं, जिनकी लहर पर सवार हो उनका स्वागत देश ने किया था? मनमोहन सिंह जब देश के प्रधानमंत्री बने थे, तो देश को उनसे आशा नहीं थी. उन्हें पूरा प्रधानमंत्री माना ही नहीं गया था. वो सोनिया की चरणपादुका लेकर दस साल सरकार चलाते रहे. उनके पहले अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. दो दर्जन से अधिक छोटी-छोटी पार्टियों के गठबंधन के नेता. वो बड़े नेता थे, लेकिन देश को उनसे भी चमत्कार की उम्मीदें नहीं थीं.
पर मनमोहन सरकार के आखिरी दौर में भ्रष्टाचार पर नाकामी और मोदी की जबर्दस्त मार्केटिंग ने उम्मीदों को आसमान पर चढ़ा दिया था, इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
मोदी आए, तो लगा कि अच्छे दिन आने से कोई नहीं रोक सकता. देश रातोंरात महाशक्ति बन जायेगा. मंहगाई खत्म हो जायेगी. पाकिस्तान को सबक सिखा दिया जायेगा. कश्मीर और नक्सल समस्या समाप्त हो जायेगी. लोगों को थोक में रोजगार मिलेगा. बिजनेसमैन और उद्योगपति लाभ मे गोते लगायेंगे. महिलाओं की तरफ कोई आंख उठाकर नहीं देखेगा. किसान आत्महत्या नहीं करेगा, आदि-आदि.
तीन साल के बाद ये नहीं कहा जा सकता कि अभी नीतियों पर ही चर्चा हो रही है. ये भी नहीं कहा जा सकता कि आने वाले समय में बड़ी नीतियां बनेंगी, क्योंकि ये माना जाता है कि पहले एक साल में कडे फैसले लिये जाते हैं, जिनके नतीजे आगे के दो साल में आने लगते हैं. बचे दो साल में चुनाव की तैयारी, जनता को लुभाने का काम होता है, ताकि सत्ता में वापसी फिर हो सके.
ऐसे में तीसरी वर्षगांठ पर उम्मीदों और उन पर खरे उतरने का बेबाक बही-खाता खींचा जा सकता है और ये विश्वास से कहा जा सकता है कि उम्मीदों ने दम तोड़ दिया या फिर नये पंख लग गये हैं. सपने सच हुये या रूठ गये.
किसी को नहीं मिले 15 लाख
मोदी जी के लिये सबसे बड़ी चुनौती इन उम्मीदों से ही थी. उन आकांक्षाओं से थी, जो जवान हो रही थी. लेकिन पहले ही साल लोगों को तब झटका लगा, जब मोदी जी की सरकार पर सूट-बूट की सरकार होने का ठप्पा लग गया. लोगों को वादे के मुताबिक उनके खातों में पंद्रह लाख नहीं मिले. कालाधन लाने की जगह बयानबाजियों और बहानेबाजियों से पेट भरने की नायाब कोशिश की गई.
और तो और, जिस पाकिस्तान का सिर धड़ से अलग करने की बात की जा रही थी, उसके प्रधानमंत्री को जन्मदिन की मुबारक देने प्रधानमंत्री जी खुद लाहौर गये और आतंकवाद पर दो टूक करने की जगह केक खिला आये. जीएसटी छोड़, कोई बड़ा आर्थिक सुधार नहीं हुआ. स्वच्छ भारत और जनधन जैसी अच्छी योजनाएं आईं जरूर, पर जमीन पर कितना क्रियान्वयन हुआ, ये तीन साल पर सबसे बड़ा सवाल है और सरकार को डरा रहा है. 'मेक इन इंडिया' 'स्टार्टअप इंडिया' महज नारे ही रह गये हैं.
ये परंपरागत सवाल हैं, जिनके परंपरागत जवाब मिल जायेंगे, पर तीन सालों में कुछ ऐसा गैरपरंपरागत हुआ है, जो आज सबके सामने मुंह बाए खड़ा है. ‘नेहरूवादी लोकतांत्रिक विचार’ और संस्थान, दोनों पर संकट हैं. ‘गांधीवाद’ की धज्जियां उड़ रही हैं. भारतीय विमर्श में सर्वमान्य ‘सर्वधर्म समभाव’ की अंतरदृष्टि खतरे में दिख रही है.
मोदी जी को विकास के नाम पर वोट मिला था
मोदी जी 'हिंदुत्ववादी' नेता हैं, ये सबको पता था, पर उनको जीतने लायक वोट इसलिये मिले थे कि उन्होंने 'सबका साथ, सबका विकास' का वादा किया था. हिंदुत्व पर नहीं, विकास पर उन्हें वोट मिला था, पर तीन साल में हालात कुछ और ही हो गये हैं. भारतीय मानस को नये सिरे ये संचालित करने का सुसंगठित प्रयास हो रहा है.
सोवियत रूस के नेता और 1917 में साम्यवादी क्रांति के जनक ब्लादिमीर लेनिन लोकतंत्र की अद्भुत परिभाषा करते थे. वो कहते थे, "लोकतंत्र एक ऐसी राज्यव्यवस्था है जो बहुसंख्यक के समक्ष अल्पसंख्यक को अधीनस्थ बनाने की व्यवस्था को स्वीकार करती है." ऐसा लगता है कि पिछले तीन सालों में लेनिन के शब्दों को अक्षरश: उतारने की कोशिश की गयी है.
दादरी में अखलाक का घर में घुसकर कत्ल. आरोप, गोमांस परोसने और खाने का. ये घटना अपवाद होती, अगर अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होती. देशभर में हंगामा मचा, पर प्रधानमंत्री जी कुछ नहीं बोले. अपराधियों के हौसले बुलंद हो गये.
गुजरात के ऊना में दलितों को बुरी तरह कैमरे के सामने पीटा गया. आरोप फिर गोहत्या का. जगह-जगह से गोरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यक और दलित तबकों पर जुल्म की खबरें आती रहीं. यूपी चुनाव के बाद उस शख्स को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गई, जिसे मुसलमानों का खुला विरोधी माना जाता है.
योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी ने उदारवादी तबके को सकते में डाल दिया. लोग पूछने लगे, क्या ऐसा भी हो सकता है?
अत्याचार करने वालों को राज्य का संरक्षण!
योगी के बनते ही राज्यभर के बूचड़खानों पर कहर बरपा. मीट विक्रेताओं की शामत आ गयी. ये भी नहीं सोचा गया कि अचानक बंद करने से मांस का व्यापार करनेवालों के घर कैसे चलेंगे, चूल्हा कैसे जलेगा. प्रधानमंत्री जी चाहते तो रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं हुआ.
गोहत्या और गोमांस के नाम पर फिर से लोगों को मारा जाने लगा. पहलू खान को दिनदहाड़े मार दिया गया. अलवर हो या रांची, एक ही खबर. गोरक्षक गाय ले जाने वालों को पीट रहे हैं. जान से मार रहे हैं. बीच-बीच में लव जिहाद. मुस्लिम लड़का और हिंदू लड़की. प्रेम या शादी, आफत को सरेबाजार न्योता.
छात्र संगठन एबीवीपी से जेएनयू के नजीब का झगड़ा होता है और अगले दिन से वो गायब. तीन महीने से अधिक हो गये, कहीं कोई अता-पता नहीं. एबीवीपी से हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की लड़ाई और वो आत्महत्या कर लेता है.
ऐसी घटनाएं ऐसा नहीं है कि पहले नहीं हुईं, पर तब ये नहीं लगता था कि पूरी व्यवस्था आरोपी-अपराधी को बचाने में लगी. अल्पसंख्यक के खिलाफ अत्याचार करने वालों को अगर राज्यव्यवस्था का पुष्ट संरक्षण मिले, तो फिर ‘बहुसंख्यकवाद’ को देश पर लादने के आरोप में सचाई तो दिखेगी.
ये बहुसंख्यकवाद और कुछ नहीं, आरएसएस का हिंदुत्ववाद है, जो सौ फीसदी भारतीयों की नहीं, बल्कि 80 फीसदी हिंदुओं की बात करता है. बहुसंख्यकवाद को आगे चलकर राष्ट्रवाद का नाम दे दिया गया. कश्मीर और पाकिस्तान, बहुसंख्यकवाद के नये रूप में परिभाषित हो रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी ने इंसानियत के दायरे में कश्मीर समस्या का समाधान खोजने की वकालत की थी. कश्मीर पर वैकल्पिक बहस को देश के नाम पर धोखा कहा जा रहा है.
हाथ से निकलता दिख रहा कश्मीर
नरसिंह राव ने 1996 में चुनाव करवा कश्मीर को मुख्यधारा में लाने का काम किया. मनमोहन सिंह के समय में कश्मीर में हालात तेजी से सामान्य हुये थे. पर्यटन लौटा और 40 फीसदी वोट पड़ते थे. आज उसी कश्मीर में 8 फीसदी वोट पड़ रहे हैं. पुलवामा में चुनाव टालने पड़ रहे हैं. पिछले तीन सालों में कश्मीर हाथ से निकलता दिख रहा है.
पाकिस्तान आग में घी डाल रहा है. भारतीय सैनिकों के धड़ अलग किये जा रहे हैं और कभी एक के बदले दस सिर लाने की डींग हांकने वाले हांफ रहे हैं. कुलभूषण जाधव को फांसी पर लटकाने की तैयारी पाकिस्तान कर रहा है और देश अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में जिरह कर रहा है. आज मोदी जी से ये पूछना चाहिये कि पाकिस्तान को सबक कब सिखाया जायेगा? एक 'सर्जिकल स्ट्राइक' बस?
आज राष्ट्रवाद पर कितना ही गला फाड़ लें, पर हकीकत ये है कि पाकिस्तान और चीन ने हमें घेर रखा है. दोनों देशों से हमारे संबंध मनमोहन सिंह के जमाने से बदतर हुए हैं.
दबाई जा रही है विपक्ष की आवाज
'बहुसंख्यकवादी आतंक' के दूसरे रूप से सारी विपक्षी पार्टियां त्रस्त हैं. सब पर सरकारी एजेंसियों को छोड़ दिया गया है. अरविंद केजरीवाल अगर अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं, तो सोनिया-राहुल की भी पेशी हो रही है. लालू पर सीबीआई 'मेहरबान' है, तो ममता, जयललिता और बीजू पटनायक की पार्टियां भी हलकान हैं. लेकिन तमाम गंभीर आरोपों के बावजूद शिवराज सिंह चौहान, सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे सिंधिया से कोई पूछताछ नहीं होती.
गोवा और मणिपुर में सारे लोकतांत्रिक मर्यादाओं को धता बताते हुये विपक्ष की सरकार नहीं बनने दी जाती और अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में जमी-जमाई विपक्ष की सरकार बर्खास्त कर दी गई.
तो क्या मोदीजी लेनिन से प्रभावित हैं? लेनिन का ‘बहुसंख्यकवाद’ सर्वहारा वर्ग की तानाशाही थी, वर्ग संघर्ष आधारित. साम्यवाद और हिंदुत्ववाद में तो छत्तीस का बैर है. हिंदुत्ववादी तो आज साम्यवादियों को देशद्रोही करार दे रहे हैं. वैसे भी भारतीय लोकतंत्र में लेनिनवादी हिंसा के लिये जगह नहीं है.
हमारा आदर्श तो लोकतंत्र से ही आ सकता है. लेकिन पिछले तीन सालों को देखकर ये नहीं लगता कि हमारे बीच कही अब्राहम लिंकन जिंदा हैं.
लिंकन कहते थे, "कोई व्यक्ति दूसरे की इच्छा के बगैर किसी और व्यक्ति पर शासन करने के योग्य नहीं होता." यहां लोगों की इच्छा के बगैर नोटबंदी लागू भी हो जाती है और एक के बाद एक चुनाव भी जीते जा रहे हैं, तो ये माजरा क्या है? जिन्न मशीन से निकल रहा है या कहीं और से? फिर भी अंत में जरूर कहूंगा, जो वुड्रो विल्सन कहते थे, "लोकतंत्र के लिये दुनिया को सुरक्षित बना दो."
पढ़ें विनय सहस्रबुद्धे का आलेख:
मोदी@3: स्पष्ट सोच, स्मार्ट तरीके से काम है मोदी सरकार की पहचान
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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