राष्ट्रपति का चुनाव है, विपक्ष एकता को बेकरार है. नेताओं का मिलना-जुलना जारी है. बयानबाजियां भी हैं और बयानबाज भी. पर अभी कोई शक्ल, कोई सीरत दिखाई नहीं पड़ती.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरफ से एक मीटिंग बुलाई गई. पर एकता के सबसे बड़े पैरोकार नीतीश कुमार ही उसमें शामिल नहीं हुए. वो प्रधानमंत्री के साथ लंच में ज्यादा मशगूल थे. हालांकि वो बोले कि लंच में राजनीति पर चर्चा नहीं हुई. जो बातें उन्हें कहनी थी, वो पहले ही कह चुके थे विपक्षी नेताओं से. अब लालू यादव की रैली का सबको इंतजार है. नेताओं को न्योते दिये जा रहे हैं और मनुहार किया जा रहा है.
बड़े दिनों के बाद विपक्षी एकता की बात उठी है. बड़े दिनों के बाद वही बातें हो रही हैं, जो कभी कांग्रेस के खिलाफ नेताओं के जमावड़े के समय देखी जाती थी. पर अब माहौल बदल गया है. कांग्रेस न केवल आज विपक्ष में है, बल्कि उसकी हालत काफी कमजोर है. जो हालत कभी बीजेपी की थी, उस हालत में आज कांग्रेस है. बीजेपी सत्ता में है और एक के बाद एक राज्यों में सरकार बना रही है. ये कयास भी लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी को अकेले कोई एक पार्टी अगला लोकसभा का चुनाव नहीं हरा सकती.
यानी बीजेपी निहायत मजबूत स्थिति में है. उसे तभी हराया जा सकता है, जब सब मिलकर धक्का लगाएं. यानी अब ‘एंटी-बीजेपीइज्म’ (गैर-बीजेपीवाद) का जमाना है और ‘एंटी-कांग्रेसइज्म’ (गैर-कांग्रेसवाद) अतीत का हिस्सा हो चुका है.
'एंटी-बीजेपीइज्म' भारतीय राजनीति में नई चीज है और इस बात का प्रमाण भी कि देश की राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है. कांग्रेस की जगह एक नयी पार्टी का वर्चस्व हावी हो रहा है. अभी ये तो नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस की तरह बीजेपी का वर्चस्व लंबे समय तक चल सकता है, पर संकेत साफ है कि कांग्रेस समेत सारी विपक्षी पार्टियों के लिये आने वाले दिन संघर्ष भरे हो सकते हैं. अगर राजनीतिक एकजुटता नहीं दिखाई गई, तो संघर्ष काफी लंबा भी हो सकता है.
कभी कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होती थीं पार्टियां
ये सच है कि अतीत में 'गैर-कांग्रेसवाद' को एक चुनावी रणनीति के तौर पर ही इस्तेमाल किया गया. चाहे वो 1967 की विपक्षी एकता हो या फिर 1977 में जेपी का आंदोलन, या अंत में 1989 में बोफोर्स और वीपी सिंह के रथ पर सवार विपक्ष हो. गैर-कांग्रेसवाद के घोड़े पर लदकर सब चुनाव लड़ते, चुनाव में जीत हासिल करते ही आपस में लड़ने लगते और कुछ समय के बाद बिखर जाते. फिर जब कांग्रेस के बारे में ये लगने लगता कि उसे अकेले नहीं हराया जा सकता, तो फिर सब इकट्ठा हो जाते.
जैसे 1971 में इंदिरा गांधी जब बांग्लादेश युद्ध के बाद लगभग अपराजेय हो गई थीं, तो विपक्षी एकता की हलचल नये सिरे से शुरू हुई. इसी तरह जब 1984 में राजीव गांधी वाली कांग्रेस को 400 से ज्यादा सीटें मिलीं, तो फिर गैर-कांग्रेसवाद का नारा बुलंद हुआ. इसके तह में कोई वैचारिक एकजुटता नहीं थी, बस एक कशिश थी सत्ता में आने की.
सत्ता पाने की ललक इतनी मजबूत थी कि सभी विपक्षी दलों ने अपनी पहचान तक खत्म कर 1977 में एक पार्टी, जनता पार्टी तक बना डाली थी. चूंकि पार्टी में कोई वैचारिक ऊर्जा नहीं थी, इसलिये सरकार बनते ही लड़ाई शुरू हो गई. यही हाल 1989 में हुआ. जनता दल बना और फिर कई जनता दल बन गये.
आज करीब-करीब वैसे ही हालात है. बीजेपी को हराने के लिये सब दल एक मंच पर आने को तैयार हैं. ये सत्ता की लड़ाई है. पर एक बड़ा फर्क सारे विपक्ष को समझना पड़ेगा. आज विपक्षी दलों का राजनीतिक संकट एक बड़ा 'वैचारिक संकट' भी है और शायद आजादी के बाद का सबसे गंभीर वैचारिक संकट. कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई कभी भी वैचारिक लड़ाई नहीं थी, ये बस एक 'पार्टी के वर्चस्ववाद' को चुनौती थी.
पर मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश को जिस दक्षिणपंथ के रास्ते पर ले जाया जा रहा है, वो आजादी की लड़ाई और गांधी जी के आदर्शों के ठीक उलट है. गांधी जी सबको साथ लेकर चलने की बात करते थे और साथ लेकर चलते भी थे. मौजूदा सरकार और सरकार की विचारधारा सबका साथ, सबका विकास की बात तो करती है, पर उसकी करनी अल्पसंख्यकों के नकार, निषेध और नफरत पर टिकी है.
आरएसएस की विचारधारा ही अल्पसंख्यक विरोध है. फिर वो जिस दकियानूसीपन की बात करती है, वो आधुनिकता का धुर विरोध है, उसमें वैज्ञानिक सोच का अभाव है. वो अपने विचार में महिलाविरोधी है, स्त्री-पुरुष बराबरी को नहीं मानती है. ये सोच एक सभ्यता के नाते बढ़ते भारत के कदम को पीछे ले जाएंगे. ऐसे में विपक्ष को एक सोची-समझी रणनीति के तहत चुनावी लड़ाई को वैचारिक जामा पहनाना होगा.
चाहे 1967 हो या फिर 1977 या फिर 1989, हर बार एक बड़ी शख्सियत ने विपक्ष को एक करने में बड़ी भूमिका निभाई. 1967 में राममनोहर लोहिया थे, जिन्होंने पहली बार गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया. 1977 में जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का विशालकाय व्यक्तित्व था, जिसके समाने मोरारजी देसाई, चरणसिंह और जगजीवन राम जैसे बड़े नेता भी नतमस्तक थे. 1989 में वीपी सिंह का कद इतना बड़ा हो गया था कि सबके पास उनकी बात मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था.
आज के दौर में प्रभावशाली शख्सियत का अभाव
ये वीपी सिंह का कद और बोफोर्स का मुद्दा था कि लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी और ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत को एक साथ आना पड़ा था. आज ऐसी शख्सियत की कमी साफ दिखती है. आज मोदी और आरएसएस से लड़ने के लिये ज्यादा बड़े व्यक्तित्व की आवश्यकता है. ऐसा व्यक्ति, जिसके नैतिक बल के सामने सब बौने हों और जब वो कुछ कहे, तो जनता में आलोड़न हो.
नीतीश इस कोशिश में हैं, पर मोदी और बीजेपी से उनका मिलना-जुलना विपक्षी खेमे में कनफ्यूजन पैदा करता है. सोनिया बड़ी नेता हैं, पर उनकी बीमारी और स्वीकारोक्ति वैसी नहीं है, जैसी जेपी या लोहिया की थी कि सारे दल आपसी सीमाओं के तोड़कर एक हो जाएं.
आज बोफोर्स जैसा कोई मुद्दा नहीं है, पर सांप्रदायिकता का मुद्दा उससे बड़ा है. देश को हिंदुत्व के रास्ते पर ले जाने की कोशिश पूरे भारत राष्ट्र को खत्म कर सकती है. ये मुद्दा बोफोर्स की तुलना में काफी खतरनाक है. बोफोर्स भ्रष्टाचार का प्रतीक था. भ्रष्टाचार घुन की तरह देश को खा रहा था और है.
सांप्रदायिकता तो देश की नसों को बरबाद कर रहा है. देश के मानस को चौपट कर रहा है. इसकी चोट भ्रष्टाचार की चोट से कहीं अधिक घातक है. पर एक दिक्कत है. बोफोर्स स्थूल है, साम्प्रदायिकता तरल. स्थूल दिखता है, तरलता महसूस की जा सकती है. एक कुशल विलक्षणी नेता तरलता को भी स्थूल रूप दे सकता है. पर आज कौन दे पायेगा, कहना मुश्किल है.
आपसी मतभेदों को भुलाना होगा
फिर सबको एक साथ ले चलने के लिये बड़ा दिल करना होगा. सभी तरह के मतभेदों और राजनीतिक तत्परता को पीछे रखना होगा. विपक्षी एकता और राष्ट्रपति के चुनाव के संदर्भ में बुलाई गई बैठक में 'आप' को न बुलाना इस 'बड़ेपन' की ओर इशारा नहीं करता.
ये सच है कि दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस को 'आप' से खतरा है. पर अगर आरएसएस जैसे बड़े खतरे से लड़ना है, उसे उखाड़ फेंकने की कवायद करनी है, तो फिर दिल तो बड़ा करना होगा. कुछ नुकसान तो उठाना पड़ेगा. कौन जाने विपक्षी एकता रंग लाये, आने वाले दो साल में लोगों का ऐसा मन जीत ले कि दिल्ली की भरपाई कांग्रेस को केंद्र में ही हो जाए.
राष्ट्रपति का चुनाव तो महज एक ट्रेलर है. ये भविष्य की राजनीति का संकेत भी होगा. अगर सारे विपक्ष ने मिलकर एक साझा उम्मीदवार दे दिया, तो 2019 की लड़ाई काफी दिलचस्प हो सकती है. इस लड़ाई में यूपी और बिहार के राजनेता काफी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. लालू-नीतीश का प्रयोग अखिलेश और मायावती के लिये नया आदर्श हो सकता है.
आम आदमी पार्टी भले आज छोटी पार्टी दिख रही हो, पर देश के हर कोने में उसके समर्थकों की अच्छी-खासी भीड़ है. ये दावा दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां नहीं कर सकती हैं. ये आप का सबसे बड़ा ‘प्लस प्वाइंट’ है.
ऐसे में आने वाले दिनों में राष्ट्रपति के चुनाव के समय काफी कुछ तय होगा. पर ये एकता तब मजबूत और बीजेपी को हराने में सक्षम होगी, जब ये मौजूदा वैचारिक संकट को आत्मसात कर अपनी रणनीति को आकार दे. क्या ऐसा होगा, ये बड़ा सवाल है.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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