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‘अंग्रेजों भारत छोड़ो का बायकाॅट करने वाले नेशनलिज्म सिखा रहे हैं’

उनकी नजर में आजादी की लड़ाई एक “क्षणिक उत्साह” था.

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9 अगस्त को देश भारत छोड़ो आंदोलन की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है. वो आंदोलन जिसने भारत की आजादी का रास्ता खोला. वो आंदोलन जिसमें गांधी जी ने "करो या मरो" का नारा दिया. वो आंदोलन जिसने जेपी यानी जय प्रकाश नारायण को राष्ट्रीय पटल पर एक क्रांतिकारी के रूप में स्थापित किया. वो आंदोलन जिसने अंग्रेजी राज की चूलें हिला दी. वो आंदोलन जिसमें लाखों लोगों ने गिरफ्तारियां दी, अपना घर-बार छोड़ा, देश के लिये कुर्बानियां दीं, अंग्रेजों का आतंक सहा पर देश के लिये मर मिटने का जज्बा कम नहीं हुआ.

गांधी जी के भारत आगमन के बाद से जिस तरह से भारतीय मानस को एक करने और पूरे स्वतंत्रता संग्राम को जनांदोलन बनाने का कार्यक्रम गांधी जी ने चलाया था, उसका उत्कर्ष था भारत छोड़ो आंदोलन. करोड़ों भारतीयों के त्याग और बलिदान का शिखर बिंदु था भारत छोड़ो आंदोलन.

गांधी जी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को नया आयाम दिया. जिसने अंग्रेजी शासन को ये एहसास करा दिया कि अब भारत गुलामी सहने के लिये तैयार नहीं है. ये उस तरह का राष्ट्रवाद नहीं था जिसकी झलक आजकल दिखाने की कोशिश की जाती है. जिसमें नफरत है, अल्पसंख्यक समाज और दलितों का नकार है.

गांधी जी ने जो सत्य-अहिंसा का प्रयोग किया था वो सभी धर्मों, जातियों, समाजों को साथ लेकर चलने का राष्ट्रीय उपक्रम था. वो राष्ट्रवाद मौजूदा राष्ट्रवाद का उलटा था. एंटी थीसिस था .
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आज की पीढ़ी को शायद इस बात का इल्म न हो कि उस वक्त भी आरएसएस और इसके आनुशंगिक संगठनों और नेताओं ने आजादी की लड़ाई को "सतही राष्ट्रवाद" का नाम देकर उसमें हिस्सा लेने से इंकार कर दिया था. ये बड़ी हैरानी की बात है आज जो देशभक्ति के नाम पर किसी को पीट देते हैं, किसी को भी देशद्रोही करार देते हैं, उस वक्त जब देश में देशभक्ति की ज्वाला फूटी थी, लोग देश के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर रहे थे तब संघ परिवार के बड़े नेता अपने बिलों में छुपे थे.

ये इतिहास का वो काला सच है जिसको आज छिपाने का प्रयास किया जाता है. आरएसएस के दूसरे प्रमुख एम एस गोलवलकर ने 24 मार्च, 1936 को आरएसएस प्रचारक कृष्णराव वाडेकर को एक चिठ्ठी लिखी, जिसमें लिखा - “क्षणिक उत्साह और भावनात्मक उद्वेलन से पैदा हुये कार्यक्रमों से संघ को दूर रहना चाहिये.” उनकी नजर में आजादी की लड़ाई एक “क्षणिक उत्साह” था.

गोलवलकर यहीं नहीं रुकते. वो आगे कहते हैं - "इस तरह से अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने की कोशिश 'सतही राष्ट्रवाद' है." इस चिठ्ठी में वो वाडेकर को ताकीद करते हैं कि वो धूले जलगांव इलाके में संघ की शाखा स्थापित करने पर ध्यान दें.

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गोलवलकर ने हालांकि ये माना कि आरएसएस कार्यकर्ताओं के मन में भी भारी ऊहापोह था. इनमें से कई भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेना चाहते थे. पर गोलवलकर ने संघ कार्यकर्ताओं को ऐसी किसी भी मुहिम या आंदोलन का हिस्सा बनने से मना कर दिया.

गोलवलकर ने लिखा है -"1942 में बहुत सारे संघ कार्यकर्ताओं के दिल में भावनायें उछाल मार रही थी. फिर भी, उस समय, संघ का काम निर्बाध चलता रहा. संघ ने कसम खाई थी कि वो सीधे (आंदोलन में) हिस्सा नहीं लेगा. इसके बावजूद संघ स्वयंसेवकों के दिमाग में भारी उथल-पुथल मची रही."

गोलवलकर के इन शब्दों से साफ है कि ढेरों स्वयंसेवकों का मन आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिये मचल रहा था. उनमें देशप्रेम की भावना हिलोरें मार रही थी पर संघ नेतृत्व हिस्सा न लेने पर अड़ा रहा. यही नहीं संघ ने यहां तक कहा कि आजादी की लड़ाई की वजह से देश और समाज पर उलटा असर पड़ा.

गोलवलकर कहते हैं- "निश्चित तौर पर संघर्ष का गलत नतीजा निकलेगा. 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़के उच्छृंखल हो गये. मेरा मतलब नेताओं पर कीचड़ उछालना नहीं है. ऐसा होना स्वाभाविक है. 1942 के बाद लोगों ने सोचना शुरू कर दिया कि कानून पालन करने का कोई मतलब नहीं है."

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उनकी नजर में आजादी की लड़ाई एक “क्षणिक उत्साह” था.
भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे महान देश भक्तों को गांधी जी का तरीका पसंद नहीं था.
(फोटो: द क्विंट)
संघ का तर्क समझ से परे है. उनकी क्या मजबूरी थी? उनके अंदर देशप्रेम की भावना क्यों नहीं जागृत हो रही थी? क्या वो अंग्रेजों के दबाव में थे जैसे सावरकर थे? या गांधी जी के प्रति उनके मन में इतनी जलन थी कि वो उनके चलाये आंदोलन में शरीक नहीं होना चाहते थे?

गांधी जी की अहिंसा से कई लोगों को आपत्ति थी, मतभेद थे. भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे महान देश भक्तों को गांधी जी का तरीका पसंद नहीं था. पर वो घर नहीं बैठे. उन्होंने अंग्रेजों की मदद नहीं की. उन्होने क्रांतिकारी तरीका अपनाया और अपने प्राणों की आहुति हंसते-हंसते दे दी. संघ भी गांधी जी से अलग रास्ता अपना सकता था. अपने तरीके से आजादी की लड़ाई लड़ सकता था, उसमें जुट सकता था. पर वो कभी नहीं जुटा .

आज की पीढ़ी को ये जानकर आश्चर्य होगा कि आरएसएस ने इन महान स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को भी काफी हल्के में लिया. गोलवलकर की नजर में भगत सिंह और चंद्रशेखर की कुर्बानी असफलता का प्रतीक है.

वो लिखते हैं, "हमारे आराध्य पुरूष श्री राम जैसे सफल लोग हैं. जो जीवन में असफल रहे उनमें जरूर कोई न कोई गंभीर दोष रहा होगा. वो जो परास्त है वो समाज को रोशनी कैसे दिखा सकता है, दूसरों को कैसे कामयाब बना सकता है."

वो आगे कहते हैं, "इसमें दो राय नहीं कि शहादत देने वाले ये लोग बड़े नायक हैं, ... लेकिन ऐसे लोगों को समाज अपना आदर्श नहीं मान सकता. हम उनकी शहादत को महानता का सर्वोच्च शिखर नहीं मान सकते जिसे हासिल करने की प्रेरणा लोग लें. आखिर में वो अपने उद्देश्य की प्राप्ति में नाकामयाब रहे, और नाकामी का अर्थ है कि उनमें कुछ कमी रही होगी."

क्या आज कोई ये कह सकता है कि भगत सिंह और जिन दूसरे हजारों लाखों लोगों ने देश की खातिर जान की बाजी लगाई वो आदर्श नहीं हो सकते, वे असफल लोग हैं? है किसी में ये हिम्मत?

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ये महज इत्तफाक नहीं है कि पूरी आजादी की लड़ाई में आरएसएस का कोई भी बड़ा नेता कभी जेल नहीं गया. सिर्फ संघ के प्रथम प्रमुख हेडगेवार को छोड़ कर. पहली बार वो कांग्रेस के कार्यकर्ता की हैसियत से जेल गये और दूसरी बार जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन छेड़ा था तब वो जेल जरूर गये पर तब भी उन्होने संघ को साफ कहा था कि उनके लोग आंदोलन में संघ कार्यकर्ता के रूप में हिस्सा नहीं ले सकते.

ये भी महज इत्तफाक नहीं है कि दूसरे हिन्दुत्ववादी संगठन और नेता भी इस राष्ट्रीय संग्राम से दूर रहे. आरएसएस के प्रेरणा पुरूष सावरकर ने तो बाकायदा अंग्रेजों से वादा किया था कि वो कालापानी से छूटने के बाद अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी राजनीतिक काम में शामिल नहीं होंगे. और कभी शामिल नहीं हुये. उन्होंने 1942 में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनायी और भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने में अंग्रेज सरकार की मदद तक की.

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उनकी नजर में आजादी की लड़ाई एक “क्षणिक उत्साह” था.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी.
(फोटो: द क्विंट)

श्यामा प्रसाद मुखर्जी जिन्होंने आगे चलकर जनसंघ की स्थापना की. वो जनसंघ जो बीजेपी का पूर्व अवतार थी. ये वही श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं जिनका गुणगान करते बीजेपी और आरएसएस के लोग आज थकते नहीं हैं, जिनकी मौत को बीजेपी के लोग कश्मीर के लिये की गई शहादत मानते हैं, वो उस वक्त हिंदू महासभा में थे जिसके अध्यक्ष सावरकर थे. 1942 में हिंदू महासभा ने बंगाल में जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. लीग के फजल-उल-हक तब मुख्यमंत्री थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस सरकार में उपमुख्यमंत्री थे. जैसे-जैसे आजादी की लड़ाई परवान चढ़ती गई, बंगाल की लीग-महासभा की संविद सरकार का जुल्म बढ़ता गया.

जिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी को आज प्रचंड राष्ट्रवादी और प्रखर देशभक्त के तौर पर आरएसएस/बीजेपी/हिंदुत्ववादी पेश करते है उनकी तब के अंग्रेज गवर्नर को लिखी चिठ्ठी हतप्रभ कर देती है और ये सवाल खड़ा करती है कि क्या उन्हें सही मायनों में देशभक्त कहा जा सकता है?

26 जुलाई, 1942
उन्होंने 26 जुलाई, 1942 को गवर्नर को आधिकारिक तौर पर लिखा था- “सवाल ये है कि बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन का सामना कैसे किया जाये? प्रशासन को इस तरह से चलाया जाये कि कांग्रेस की भरसक कोशिश के बाद भी ये आंदोलन बंगाल में अपनी जड़ें न जमा पाये, असफल हो जाये. ... भारतीयों को ब्रिटिशर्स पर यकीन करना होगा, ब्रिटेन के लिये नहीं, या इससे ब्रिटेन को कोई फायदा होगा, बल्कि बंगाल राज्य की सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिये.”

अगर आज के माहौल में इस तरह की चिठ्ठी लिखी गई होती तो न केवल श्यामा प्रसाद मुखर्जी को देशद्रोही करार दिया जाता बल्कि उनके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा भी चलता. बहुत संभव है कि उन्हें आगे चलकर जेल की हवा भी खानी पड़ती. लेकिन आज श्यामा प्रसाद का गुणगान हो रहा है. हम श्यामा प्रसाद को महान तब मानते जब फजल-उल-हक की सरकार से इस्तीफा देते और आंदोलनकारियों के साथ अंग्रेजों की लाठियां खाते. पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. वो जिन्ना की पार्टी के साथ मिलकर आंदोलनकारियों पर लाठी भंजवाते रहे. ऐसा शख्स आज भावी पीढ़ी के लिये कैसे प्रेरणा हो सकता है? इस चिठ्ठी और श्यामा प्रसाद के कृत्य पर संघ परिवार की टिप्पणी आनी चाहिये, इसलिये कि अब संघ परिवार के लोग कन्हैया कुमार जैसे मेधावी छात्र को देशद्रोही कहकर पीटते हैं, उसको जेल भेजा जाता है. रामजस कालेज में संघ परिवार के लोग हुड़दंग करते हैं. मार-पिटाई करते हैं. अध्यापकों और प्रोफेसर्स तक को नहीं बख्शा जाता. जेएनयू को आतंकवाद का गढ़ साबित किया जाता है. ऐसे में इतिहास के आइने में आज ये सवाल पूछा जाना चाहिये कि क्या

आरएसएस की मौजूदा सरकार को वाकई में भारत छोड़ो आंदोलन की 75 वीं सालगिरह मनाने का हक है? क्यों कि इतिहास ये कहता है कि इन लोगों ने राष्ट्रीय भावना का अपमान किया, आंदोलनकारियों को कुचलने की कोशिश की, स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत का मजाक उड़ाने का प्रयास किया. ये कैसे उस महान राष्ट्रीय पर्व के जश्नकर्ता हो सकते हैं?

आज आरएसएस/बीजेपी/हिंदुत्ववादियों को भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी भूमिका के लिये देश से माफी मांगनी चाहिये. पर मुझे मालूम है ऐसा होगा नहीं क्योंकि ऐसा करने के लिये भगवान राम जैसा संवेदनशील हृदय चाहिये.

(लेखक आम आदमी पार्टी के नेता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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