रोहिंग्या संकट पर मीडिया में कई बेतुकी बातें कही जा चुकी हैं और दुनियाभर में इस पर काफी चर्चा हो रही है. ग्लोबल मीडिया में इस मामले के केंद्र में नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची बनी हुई हैं. कहा जा रहा है कि म्यांमार की सेना रोहिंग्या अल्पसंख्यकों का सफाया कर रही है और इसमें उनकी रजामंदी शामिल है. उनसे नोबेल पुरस्कार वापस लेने की मांग भी की जा चुकी है.
सू ची के बारे में जो कहा जा रहा है, वह गलत और गुमराह करने वाला है. रोहिंग्या पॉलिसी म्यांमार सेना की बनाई हुई है, सू ची की नहीं.
भारत शरणार्थियों को पनाह देता आया है
भारत में मुद्दा अलग है. गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू ने कहा है कि उनकी सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजना चाहती है.
यह चौंकाने वाला बयान है क्योंकि भारत का 2,000 सालों से मानवाधिकार को लेकर शानदार रिकॉर्ड रहा है.
1893 में शिकागो में हुए धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने अपने ऐतिहासिक भाषण में देश को पीड़तों के लिए स्वर्ग बताया था. उन्होंने कहा था कि हिंदुओं को इस पर गर्व है.
तिब्बती, 1971 में पाकिस्तानी सेना के प्रताड़ित किए गए बंगाली, श्रीलंका के तमिल मूल के लोग, सिविल वॉर से भागकर आए नेपाली, बांग्लादेशी चकमा, अफगानिस्तानी, ईरान और सीरिया सहित अफ्रीका के लोगों को देश पनाह मिली है.
रोहिंग्या और इन मामलों में (पश्चिम एशिया और अफगान शरणार्थियों को छोड़कर) एक फर्क है. म्यांमार से आए सभी रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमान हैं.
रिजिजू ने इन्हें देश से निकालने के बारे में जो तर्क दिए हैं, वो सभी इसी पर केंद्रित हैं. उन्होंने कहा कि आतंकवादी संगठन रोहिंग्या शरणार्थियों को भर्ती करने की कोशिश कर सकते हैं. उनसे देश की सुरक्षा को गंभीर खतरा हो सकता है. रोहिंग्या शरणार्थियों के भारत में रहने से सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्याएं होंगी.
दरअसल, वह यह कह रहे हैं कि सरकार बड़ी संख्या में मुस्लिम शरणार्थियों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है. उनके बयान से हैरानी होती है क्योंकि सरकार ने अभी तक कोई सबूत नहीं दिया है, जिससे साबित हो कि भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों का आतंकवादी घटनाओं में हाथ रहा है.
रोहिंग्या का कोई देश नहीं है
रोहिंग्या अभी भारत में ही रहेंगे. असल में हमारी सरकार एक कड़वी सच्चाई को स्वीकार नहीं कर रही है कि इन शरणार्थियों को अभी कहीं नहीं भेजा जा सकता. ये लोग म्यांमार के रखाइन प्रांत से यहां आए हैं, जहां 150 साल पहले अंग्रेजों के शासन के दौरान उनके पूर्वज बसे थे. हालांकि, म्यांमार उन्हें विदेशी मानता है. इसलिए उसे रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस लेने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
सच तो यह है कि म्यांमार में रोहिंग्या शब्द का इस्तेमाल तक नहीं किया जाता. उन्हें बंगाली मुस्लिम कहा जाता है ताकि उनके विदेशी होने की पहचान बनाई रखी जा सके. इसलिए रोहिंग्या की अपनी कोई धरती नहीं है, जहां वे जा सकें.
इसके बावजूद भारत किसी डील के जरिये उन्हें म्यांमार या बांग्लादेश भेज सकता है और उसके बदले में वह आर्थिक पैकेज दे सकता है. सरकार को ऐसा करने में इसलिए परेशानी नहीं होगी क्योंकि भारत में शरणार्थियों के लिए कोई कानून नहीं है.
भारत ने संयुक्त राष्ट्र के 1951 के रिफ्यूजी कन्वेंशन या इसके 1967 के प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं किए हैं. हमारे यहां शरणार्थियों के बारे में केस टु केस बेसिस पर फैसला होता है. मैंने संसद में शरणार्थियों के लिए कानून बनाने की खातिर एक विधेयक पेश किया था. मैंने इसे पास कराने के लिए गृह मंत्रालय के तीनों मंत्रियों और पूर्व गृह सचिव से गुजारिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
हमारी सरकार इस मामले में अपने हाथ कानून बनाकर नहीं बांधना चाहती. वह अपनी सुविधा के हिसाब से शरणार्थियों की तकदीर के बारे में फैसला करना चाहती है.
अतिथि देवो भवः को भूल गए कथित हिंदू राष्ट्रवादी
संयुक्त राष्ट्र को यह पसंद नहीं है. उसने भारत को याद दिलाया है कि अगर किसी शरणार्थी को जान का डर है तो संयुक्त राष्ट्र का कोई भी सदस्य देश उसे जबरदस्ती वापस नहीं भेज सकता.
सुप्रीम कोर्ट अभी एक मामले की सुनवाई कर रहा है, जिसकी याचिका में यह अपील की गई है कि सरकार का रोहिंग्या को वापस भेजना गैरकानूनी होगा.
कानूनी बातों को छोड़ दें तो इस मामले का एक नैतिक पहलू भी है. हमारे कथित हिंदू राष्ट्रवादी यह भूल रहे हैं कि हिंदू धर्म किन मूल्यों पर आधारित है और वे अक्सर ऐसा करते हैं. हमारे धर्म में अतिथि को देवता के समान माना गया है. इन्हीं मूल्यों की वजह से दुनिया में भारत को सम्मान की नजर से देखा जाता है. अगर हम ऐसे वक्त में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून और प्रक्रिया की अनदेखी करेंगे, जब इस्लाम और आतंकवाद से ऐसे ही डर के बीच पश्चिमी देश सीरिया के शरणार्थियों को पनाह दे रहे हैं तो दुनिया की नजरों में भारत का कद छोटा होगा. यही नहीं, इससे हम खुद अपनी नजरों में गिर जाएंगे.
कई ऐसे देश रहे हैं, जहां बसने वाले शरणार्थियों से उस देश का नाम रोशन किया. आइंस्टाइन शरणार्थी थे, हमारे देश में मिल्खा सिंह शरणार्थी बनकर आए थे. इन लोगों को अपने देश से जान बचाकर भागना पड़ा था और नए देश में उनका स्वागत हुआ.
भारत में सिर्फ 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी हैं. 1.2 अरब की आबादी वाला देश इतने लोगों को स्वागत आसानी से कर सकता है. 2,000 साल की परंपरा तोड़ने से आइए सत्ताधारी पार्टी को रोका जाए. रोहिंग्या के प्रति मानवीय रुख अपनाया जाए, ताकि हमें अपनी नजरों में शर्मिंदा ना होना पड़े.
(नोटः शशि थरूर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लेखक हैं. उनसे @ShashiTharoor पर संपर्क किया जा सकता है. यह लेखक के निजी विचार हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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