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क्‍या 2019 के चुनाव पर GST, नोटबंदी और विकास दर असर डालेंगे? 

अब ये देखना होगा कि मोदी जी की सरकार किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए क्या-क्या करती है.

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मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब सामने कोई बहुत बड़ा खतरा आ जाता है, तब दिमाग सिर्फ दो विकल्प देता है- लड़ो या भागो. मसलन, अगर सामने एक शेर आ जाए, तो भागने में ही बुद्धिमानी है.

मगर समय अगर राहुल गांधी, सुब्रह्मण्यम स्वामी, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के साथ आ जाए, तो जिस प्रकार पिछले हफ्ते मोदी जी खड़े हो गए, हर कोई लड़ने के लिए तैयार हो जाता है, क्योंकि खतरा ही नहीं होता.

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दिल्‍ली के विज्ञान भवन में भाषण देते हुए उन्होंने देश को बताया कि अर्थव्यवस्था ठीक है, घबराने की बिल्कुल जरूरत नहीं. हां, जीडीपी के बढ़ने से दर में थोड़ी गिरावट आई है, लेकिन ऐसा पहले भी तो हुआ है.

हम हैं ना! उन्होंने कहा, हम सब ठीक कर देंगे और ठीक ही करने के लिए वो काम में जुट गए. अमित शाह, जो कि केरल यात्रा पर थे, उन्हें फटाफट वापस बुला लिया. फिर वो उनसे और जेटली जी के साथ मिले.

मीटिंग में कुछ अहम निर्णय लिए गए. अब ये देखना होगा कि सब ठीक होता है कि नहीं. मुझे नहीं लगता कि अर्थव्यवस्था उस मात्रा में ठीक होगी, जितनी होनी चाहिए.

मेरा मानना तो ये है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव जीतने की कोशिश में मोदी जी इतने मुग्ध हो गए कि उनकी नजर अर्थव्यवस्था से हट गई. उन्होंने अपना ध्यान वापस लाने में जरा-सी देर कर दी है. यूपी की जीत का पूरा श्रेय उन्होंने नोटबंदी को दिया. उसका जो खौफनाक परिणाम था, मानो शरीर से खून ही सूख गया. वो अब नहीं के बराबर रह गया है. पैसा वापस आ गया है.

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लेकिन यूपी की जीत का एक और परिणाम हुआ. जीएसटी से मोदी का ध्यान हट गया. इसीलिए अब उनके सामने एक बहुत बड़ी समस्या आकर खड़ी हो गई है. ये समस्या नोटबंदी की तरह आसानी से जाने वाली नहीं है. करीब एक डेढ़ साल तक इसे और भुगतना पड़ेगा.

इन सवालों का जवाब कौन देगा?

इसलिए अब अहम सवाल तो ये है कि 2019 के आम चुनाव पर क्या जीएसटी का असर पड़ेगा? मुझे नहीं लगता कि कुछ खास असर पड़ेगा, क्योंकि किसानों का जीएसटी से कोई लेना-देना नहीं है.

उनकी समस्या कुछ और ही है. अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि उसका कोई हल नहीं है. ये सिर्फ भारत की ही कहानी नहीं है. ऐसा हर जगह हुआ है. ऑस्ट्रेलिया से चिली तक, जापान से अमेरिका तक.

इंडिया में करीब 145 मिलियन फार्मिंग हाउसहोल्ड हैं. करीब 100 मिलियन चार एकड़ जमीन है. औसतन पूरे साल में एक एकड़ की कमाई 25,000 रुपये है. मतलब ज्यादा से ज्यादा अगर चार एकड़ हो, तो किसान साल में एक से डेढ़ लाख रुपये कमा लेगा. या महीने का करीब 8000 रुपये बस. इतना तो शहरों में काम वाली बाई भी कमा लेती है.

पिछले 300 सालों में बाकी देशों में भी ये कम आमदनी वाली समस्या है. वहां या तो क्रांति हुई है, जैसा कि चीन और रूस में, या फिर लोग बाहर चले गए, जैसा यूरोप में हुआ. सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी तक या फिर किसान पिसते ही रहे, जैसे इंडिया और दक्षिण अमेरिका के देशों में. अंग्रेजी में इसे 'इमीसरिसेशन' कहते हैं

किसान का रखना होगा ध्यान

ताज्जुब की बात ये है कि अमेरिका जैसे समृद्ध देश में भी ऐसा हुआ है. कृषि से कमाई वहां भी बहुत कम है. इसीलिए वहां पर सरकार पिछले 70 सालों से लाखों-करोड़ों रुपये की सब्सिडी देती है. लेकिन इंडिया और बाकी देशों में एक बहुत बड़ा फर्क है. वहां कृषक वोटर बहुत ही कम हैं. इसलिए सरकारें उनको ज्यादा तवज्जो नहीं देतीं, सब्सिडी देकर उन्हें काबू में रखती हैं.

भारत में करीब 65 करोड़ वोटर कृषि से जुड़े हैं. कोई भी सरकार उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकती. इसलिए जीएसटी, नोटबंदी, जीडीपी, वित्तीय घाटा इत्यादि का इंडिया की राजनीति में कोई महत्व नहीं है. महत्व है, तो किसान की आमदनी का. और अब ये भी देखना होगा कि मोदी जी की सरकार किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए क्या-क्या करती है.

टाइम नहीं है, इसलिए मेरा अंदाजा ये है कि जैसा तमिलनाडु में होता है, वैसा किसानों में चीजें बांटी जाएं. एलपीजी सिलेंडर के साथ यूपी में शुरुआत हो गई है. अब यही काम बाकी राज्यों में भी होगा. कम से कम महिलाएं तो सिर्फ बीजेपी को वोट देंगी.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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